तीन चौथाई चित्र संसार



ये तस्वीरें दिल्ली के लालकिला स्थित संग्रहालय से ली गई हैं। कुछ तस्वीरें आगरा की भी हैं। 
बात उन दिनों की है जब हम मेरठ में रहा करते थे। देव ने जिद्द की और हम मां के साथ दिल्ली घूमने निकल पड़े। कांघे पर बैग टांगा और बस में बैठ दिल्ली पहुंचे। फिर वहां से लालकिला पहुंचे। 
दो-तीन घंटे तक वहां समय गुजारे। खूब घूमे और देव की खुशी का तो ठिकाना ही नहीं था। दिल्ली में इंडिया गेट घूमने का भी प्लान था लेकिन एक फोन आया और वापस लौटना पड़ा। बहरहाल, दिल्ली की ट्रिप अच्छी और मजेदार रही थी। हमारे लिए भी। वहां हमें वो जानकारियां हासिल हुईं जो अब तक पता नहीं थीं। बाएं वाली तस्वीर लालकिला में लगी हुई है। यह कोल्हापुर में हुए गडकरी आंदोलन की है। अंग्रेजों के खिलाफ हुंकार की है।


दाएं की तस्वीर उन असलहों की है जो अंग्रेजों के जमाने में प्रयुक्त हुआ करती थीं। इन बंदूकों का प्रयोग अंग्रेज किया करते थे और हम यानी भारतीय लड़ाके तीर और चाकुओं का। बेइमानी थी लेकिन अंग्रेजों को इससे क्या फर्क पड़ता था। उन्हें दो चीजें अच्छी लगती थीं भारत का धन और भारतीयों का खून, चाहे जैसे मिल जाए। नीचे की त्सवीर में हम, मां और देव भी ऐसे ही कुछ हथियार को देख रहे हैं।

पुराने असलहों से जहां अपने अतीत का पता चलता है वहीं, गौरवशाली वर्तमान और विकास की गति का भी अंदाजा मिलता है, गर्व महसूस होता है। यह गौरव हमें महसूस होता है क्योंकि प्राप्त हुआ है। और शायद यही गौरव देव भी महसूस कर रहा है। वर्ना इतनी तल्लीनता से वह इन्हें क्यों देख रहा होता।


राष्ट्र शब्द आज की तारीख में सांप्रदायिकता का द्योतक होता जा रहा है। आश्चर्य होता है कि जिस राष्ट्रीय जागरण और राष्ट्रवाद की हवा ने हमें आजादी दिलाई वह शब्द भला सांप्रदायिकता का द्योतक कैसे हो सकता है? वास्तव में राष्ट्रीय जागरण का दौर तो सामाजिक सुधार का था। तब गंगा-जमुनी तहजीब वाला भारतीय समाज धर्म और जातियों में बंटा तो होता था लेकिन, इतनी कटुता भला कहां थी। हां, तब उग्रवाद और आतंकवाद भी तो देश में नहीं था।

ये तीन महापुरुष हैं- अजीमुल्लाह, एनी बेसेंट और महर्षि अरविंदो। कहते हैं कि एनी बेसेंट भारतीय नहीं थीं। लेकिन, भारतीयता उनके अंदर कूट-कूटकर भर गई थी। थियोसोफिकल सोसायटी का गठन कर इन्होंने भारतीय समाज के उत्थान में काफी योगदान दिया। अजीमुल्लाह और महर्षि अरविंद तो भारतीय थाती हैं ही। 

दाएं के एक महापुरुष ने जहां भारत को दिशा दी वहीं दूसरे ने भारत के उन्नति का बड़ा फलक तैयार किया। ये हैं हमारे एओ ह्यूम यानी कांग्रेस के संस्थापक और लोकमान्य बालगंगाधर तिलक। तिलक ने भारतीय समाज में एकता लाने और कुरीतियों को दूर करने के लिए तन-मन-धन न्योछावर कर दिया। गणेशपूजा भी इन्हीं की देन है।

बाएं मां, हम और देव मुगलकालीन उन हथियारों को देख रहे हैं जिनके बदौलत भारतीयता का कत्ल किया गया। बाबर से लेकर हुमायू और चंगेज से लेकर औरंगजेब तक ने न सिर्फ यहां की जनता पर राज किया बल्कि उनकी मान्यताओं और आस्थाओं तथा जीवनशैली को भी प्रभावित किया। 







प्यारी आशी, यह फोटो मेरठ में लिया गया है। चुलबुली आशी हमेशा ही नैसर्गिक रूप में रहती है।
यही इसकी खासियत है।   

बलराम (समन्वय) और कृष्ण (देवांश)
ये दोनों महाप्रभु काफी होनहार हैं। बस थोड़ाबहुत अपने पिता से डरते हैं। बड़े वाले हमारे बड़े भाईसाब के सुपुत्र हैं और दूसरे वाले हमारे। दोनों की खासियत है कि इनकी जोड़ी बलराम-कृष्ण की है। दोनों जब एक साथ मिल जाते हैं तो फिर दुनिया हिला देते हैं। वैसे पढ़ाई में भी कुशाग्र हैं। यह काफी अच्छी बात है।
 
ये  ताजमहल का मुख्य प्रवेश द्वार है। जनवरी के अंतिम सप्ताह में हम मथुरा होते हुए आगरा पहुंचे। वहां ताजमहल में हमने खूब मस्ती की। हमारे साथ हैं कुणाल, मां, हिमानी, समन्वय और देव। इस मुख्यद्वार के गुंबद की नक्कासी आज के इस कंप्यूटरीकृत वास्तुशास्त्र के लिए बड़ी चुनौती है। 



किताबों में अक्सर यह पढ़ते थे कि मुगलों और अंग्रेजों ने हमसे बहुत कुछ लिया लेकिन थोड़ा बहुत दिया भी। ये इमारते कुछ ऐसी ही हैं। एक ओर जहां ये गुलामी की याद दिलाती हैं, वहीं दूसरी ओर धरोहर और  के रूप में प्रासंगिक भी हैं।





ताजमहल के सामने खड़ा होने से ही कितनी रूमानियत और गर्व पैदा हो सकता है, यह हमने उस दिन महसूस किया। यहां हमारा मकसद सिर्फ फोटो खिंचवाना नहीं था बल्कि इन यादों को अपनी जेहन में बसा लेना था। 


ताजमहल के सामने खड़ा होकर फोटो खींचवाने का शौक हम दोनों को कभी नहीं रहा। हां, फोटो खींचवाते समय यह जरूर कामना कर रहे थे कि प्यार का अमरत्व हमारी जिंदगी में भी आ जाए। बेटा फोटो ले रहा था और हम दोनों पोज में खड़े थे। धूप जब आंखों पर आई तो टिकट से छाया करना चाहे। इस बीच कुणाल ने कुछ कहा और बेटे ने क्लिक कर दिया।



दाएं वाले फोटो खींचने के दौरान मम्म भी साथ में थीं। इस दौरान देव ने एक ऐसी हरकत कर दी कि हमें हंसी आ गई और शैतान ने झटके से क्लिक भी कर दिया। उसकी यह शैतानी हमें पसंद आई।


देखा, ताजमहल हमारी मुट्ठी में  है। 

मां, आपकी मुट्ठी में तो दुनिया है। फिर, यह तो सिर्फ ताजमहल है।

हां भाई अभी छोटे हो। इसलिए मिलकर ही पकड़ना होगा।

अरे हिमानी, विश्वास नहीं होता कि तुम अकेले ताजमहल मुट्ठी में कर सकती हो।



लालकिला के गेट पर कुणाल, देव और मम्मी।
लालकिला के गेट पर ही मैं, कुणाल और मम्मी।
बाएं में हैं झारखंड के वीर योद्धा। अंग्रेजों के खिलाफ उलगुलान (क्रांति, लड़़ाई) के अगुवा। इस झारभूमि के भगवान बिरसा मुंडा। लालकिला में ही यह तस्वीर सुरक्षित तौर पर संग्रहित है। इन्हें वहां देखकर काफी अच्छा लगा। लगा कि खुद के बारे में कोई सोचना छोड़ दे तो जनजन के बीच भगवान का स्थान बना सकता है।



हिन्दुस्तान की आजादी के अगुवा मंगल पांडेय को सादर नमन। आजादी की पहली लड़ाई के इस प्रणेता ने खुद की आहूती देकर आम लोगों के बीच वो जज्बा पैदा कर दिया जिससे कि अंग्रेजों के मकड़जाल से हमें आजादी मिल पाई। पुनः इनके चरणों में सादर नमन। 

गोपाल कृष्ण गोखलेः स्वतंत्र्य वीर। सादर नमन्। आजादी की लड़ाई में इनके योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता।

इस गाड़ी में नेताजी सुभाषचंद बोस सफर किया करते थे। धन्य है यह गाड़ी। इसकी तस्वीर भी लालकिला स्थित संग्रालय से ही प्राप्त हुई।
अपना खून देकर आजादी दिलाने वाले आजाद हिन्द फौज के संस्थापक महान योद्धा व क्रांतिकारी नेताजी सुभाषचंद बोस परेड की सलामी लेते हुए। जब भी यह फोटो देखता हूं रोमांचित हो जाता हूं। महसूस करता हूं कि आज भी एक आजाद हिन्द फौज की जरूरत है। 
वो कुर्सी जिस पर आजाद हिन्द फौज के अगुवा नेताजी सुभाषचंद बोस बैठा करते थे। कुर्सी लालकिला में संग्रहित है। 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें