तीन चौथाई मैंगो पिपल

 न आम आम रहा, न आम आम रहे-2

नहीं...बिलकुल नहीं। घर पहुंचते ही पापा को दरवाजे पर पाता या फिर उन्हें सूचना हो जाती कि दोपहर में हम कहां थे। कई बार मां झूठ बोलकर बचाने की कोशिश करती। कई बार वह सफल रहती और कई बार उसकी झूठ भी पकड़ी जाती। फिर पापा का दिखावटी गुस्सा और गलती के बदले दी जाने वाली ना काफी सजा (तब तो यही सजा न जाने कितनी बड़ी लगती थी) का दौर। 
मैंगो पिपल
गर्मी के दिनों में करीब-करीब रोजाना ही पापा विपुल मात्रा में किसिम-किसिम के आम ले आते। स्वाद का तो क्या पता लेकिन, कुछ आम कुछ ज्यादा मीठे होते तो कुछ कम। लेकिन, इन आमों में उतनी मिठास कभी नहीं महसूस हुई जितनी दोपहर के दौरान अपनी मेहनत से जुटाये गये आमों में होती थी। तब लगता था कि पापा हमारी बचपना को क्यों नहीं समझते? क्या वे बच्चे नहीं रहे होंगे? क्या उनके पापा भी ऐसा ही करते होंगे जैसा हमारे साथ होता है? आदि...आदि...। आज हमारा बच्चा भी शायद यही सोचता होगा। 
खैर, अब सोचता हूं कि आम का नाम आम कैसे पड़ा होगा? यह भी कि इतने खास स्वाद वाले फल का नाम अगर आम पड़ भी गया तो क्या सामान्य व्यक्ति के लिए आम लोग का संबोधन होना चाहिए था? आखिर आम का नाम आम पड़ा कैसे? आज की तारीख में जब व्यक्ति दो लोगों तक अपनी पहुंच बना लेता है तो खुद को बादशाह से कम नहीं समझता और यह आम तो जन-जन तक पहुंच बना चुका है। फिर यह आम कैसे? 
बचपन में पढ़ा था अकबर अपनी प्रजा के सुख-दुख जानने के लिए वेश बदलकर घुमा करते थे। यानी, वह खास होकर भी जनसामान्य के बीच जाते थे। वह जानना चाहते थे कि उनकी प्रजा में सब ठीक तो है न। आम लोगों के बीच उनकी पहुंच ही उन्हें खास बनाती थी। यह बात दूसरी है कि आज भी शासक वर्ग के लोग जनता के बीच जाते हैं लेकिन चुनाव के दौरान। पूरे पांच वर्ष तक आम के समर्थन से वह खास बने रहते हैं। 
शायद आम की आम आदमी तक पहुंच के कारण ही इसे आम नाम दिया गया होगा। कारण है कि फलों के इस राजा के अलावा कोई दूसरा ऐसा फल नहीं दिखाई देता जो इसकी उत्पादकता और गुणवत्ता के बराबर हो। कई बार आम के एक पेड़ में उतने ही फल दिखाई देते हैं जितने पत्ते होते। लाजमी है कि जिस फल की उत्पादकता जितनी होगी उतनी ही वह लोगों तक पहुंचेगा। बाजार की भाषा में कहें तो उतना ही सस्ता होगा। 
महाराजा के रूप में विक्रमादित्य की लोकप्रियता भी आम की जैसी है। पढ़ा है कि वह भी अपनी प्रजा के बीच उतना ही सहज रूप में उपलब्ध होते थे जितना आम होता था। आर्याव्रत जैसे विशाल साम्राज्य में हर जनता के सुख-दुख को जानना और उसके काम आना विक्रमादित्य के शासन की सफलता थी। 
खैर, जैसे-जैसे सत्ता का परिवर्तन होता गय वैसे-वैसे आम खास होता चला गया। उत्तम खेती अब बेरोजगारों की थाती भर रह गई और प्रजातंत्र के साथ नेतागीरी उत्तम की श्रेणी में आ गया। फटेहाल लोग एक बार भी जनप्रतिनिध बन गये तो कोठियों की लाइन लग गई। कभी इस लोकतांत्रिक व्यवस्था के बीच किसी भी तंत्र ने उनसे पछने की कोशिश नहीं की कि इतनी सारी संपत्ति आई कहां से। और पूछा भी गया तो तब देश के धन का एक बड़ा हिस्सा कालाधन में तबदील हो गया। नेताओं ने जेल जाने की औपचारिकता निभाई और कुछ ही दिनों में बाहर आ गये। 
पारंपरिक खेती में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का प्रवेश हो गया। खाद्यान्न की पैकिंग होने लगी। कच्चे माल विदेश जाने लगे या फिर इन कंपनियों ने भारत ही अपना आउटलेट और कारखाने खोल दिये। नतीजतन, जो खाद्यान्न कच्चे माल के रूप में खेतों से औने-पौने भावों में खरीदे गये उन्हें ही वापस उत्पाद के रूप में लोगों तक पहुंचने लगे। अंतर सिर्फ इतना रहा कि वह चमकीले रैपरों व बोतलों के साथ लोगों तक पहुंचे। कौड़ियों में खरीदे गये खाद्यान्न उत्पाद के रूप में इतने महंगे हो गये कि आम आदमी उन्हें पाने की ख्वाब देखने लगा। और आम आम न रहा...आम आम न रहे....

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न आम आम रहा, न आम आम रहे-1

थोड़ी देर हो चुकी है। मौसम का मिजाज बदल चुका है। बाजार में भी कहीं-कहीं और पिछाती (पछेती) फसल दिखाई दे रही है। दुकानदार कहते हैं सब कोल्ड स्टोर से निकलकर आ रहे हैं। इस बार अच्छी फसल नहीं थी। इसलिए कीमत बढ़ गई है। मतलब, यह आम अब आम लोगों के लिए नहीं रहा।
आमजन, सरेआम, आम बात, आमदनी, महफिले आम, दरबारएआम...आदि शब्द जब बचपन में कानों में पड़ते थे तो एक अजीब सा सुकून होता था। जुलाई-अगस्त में जब आम की फसल खत्म हो जाती थी तब भी यह ललक होती थी कि दिसंबर मध्यम से बौर (मंजर) आने शुरू होंगे और मार्च तक रसीले आम....मजा आ जाएगा। गर्मी की छुट्टी का तो बेसब्री से इंतजार रहता था।
गर्मी की छुट्टी हुई और गांव का जाना तय था। गर्मी की छुट्टी कहिये तो शिक्षकों और बच्चों के लिए मौसम की आड़ में एक तरह से बलात अवकाश (फर्स लीव) की तरह है। तिथि तय है और छुट्टी भी। तब शिक्षकों की इतनी तनख्वाह होती थी नहीं और सिनेमाहॉल तथा टीवी भी इतने प्रभावी नहीं थे कि परिवार के साथ गर्मी छुट्टी की प्लानिंग शिमला या दर्जिलंग के लिए की जा सकती। इसिलए गर्मी छुट्टी के डेस्टीनेशन (स्थान) भी तय थे, गांव या फिर मामा गांव। मामा गांव तो कभी-कभी, लेकिन गांव हमेशा....।
मैंगो पिपल
खैर, आज के बच्चों के लिए गांव की गर्मी और सनसनाती लू दुखदाई हो सकती हैं लेकिन हम तो इन्हीं के बीच अपना स्वर्ग ढूंढ़ लिया करते थे। दोपहर के समय सभी खपरैल मकान में आश्रय लेते। पक्का मकान तपता था। दोपहर में सांय-सांय करती हुई तेज हवा चलती तो घर के लोग सो चुके होते या फिर सोने का उपक्रम करते रहते। लेकिन, हम और हमारी टोली भगवान खैर करे....। वैसे पापा तो कड़क मिजाज थे और हम लोगों को डर भी लगता था लेकिन, मौज-मस्ती के बीच भविष्य का ख्याल कहां रहता है। सो, सोने से पहले से ही आंख बचाकर बाहर भागने की जुगत भिड़ाते रहते। कभी पापा के नाक के सामने हाथ रख कर देखते ही सांस का लय एक जैसा है या नहीं और कभी पैर हिलाकर इस बात की तस्दीक करते कि कहीं वे जाग तो नहीं रहे। जब तसल्ली हो जाती कि पापा फिलहाल तो सो ही रहे हैं तो धीरे-धीरे दरवाजा खोलकर निकल पड़ते बगान की ओर।
तब हम तो नहीं जानते थे लेकिन, शायद पापा जानते थे कि बच्चों को ज्यादा पीटने का भी कोई असर नहीं, इसलिए कोशिश करते थे कि भय से ही बात बन जाए। दिन के दस बजते ही जब हवा तेज हो जाती और सांय-सांय की आवाज करते हुए तेजी से धूल को अपने साथ लेते हुए बहती तो पापा कहते- देखो इस हवा में एक भूत रहता है। वह बच्चों को अपने साथ ले जाता है। बहुत दुष्ट है वह भूत। बच्चों से काम करवाता है। उनसे गायें चरवाता है और खाना भी नहीं देता। उन्हें पीटता भी है। ...जब पापा कहानी सुनाते तो ड़र लगता, लेकिन गली में जैसे ही किसी बच्चे की आवाज सुनाई देती अकुलाहट शुरू हो जाती। ऐसे लगता जैसे शरीर में कोई चींटी काटने लगी हो। आशंका रहती कि अगर वह बागान में पहले पहुंच गया तो उसकी थैली में ज्यादा आम आ जाएंगे.... ।
जैसे ही मौका मिलता कि ये लो और वो लो। पलक झपकते ही बगान में। तब बगान भी कई हुआ करते थे। आज तो बगान के नाम पर शीशम और बबूल के पेड़ भर रह गये हैं। अचार के लायक आम तोड़ लिये गये होते। जो आम लोगों की पहुंच तक नहीं आते वही आम पेड़ से लगे होने का सुख पा रहे होते और अपनी जिंदगी जी रहे होते। और हम, उन्हीं आमों की जिंदगी खत्म होने की दुआ आंधी रूपी भगवान से करते। गोपिया आम बहुत मीठा हुआ करता था। इसलिए वहां भीड़ ज्यादा हुआ करती थी। गांव के बच्चे धाकड़ किस्म के। खुद अगर आम लूट नहीं पाते तो हमें धमकी देते। कहते, पापा को जाकर कह देंगे कि दोपहर में आम लूटने (अनाधिकृत रूप से हासिल की गई चीज को हमारे यहां लूटना ही कहा जाता है) गये थे। फिर, मांडवाली (समझौता) शुरू होता। पापा से शिकायत न कहने की शर्त कई बार तीन-चार आम तक चली जाती थी। हम मजबूर हो जाते और कई बार एक-दो आम से ही समझौता करना पड़ता। लेकिन, उसके न कहने से क्या हमारी चोरी पकड़ी नहीं जाती और क्या हम पिटाई से बच पाते.....(क्रमशः)

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