कैसे कहें कि होली है...
ए. दुष्यंत युवा कवि व पत्रकार। |
घी-तेल सब कुछ है महंगा, खाली अपनी झोली है,
ऊपर से ये मार्च महीना, कैसे कहें कि होली है।
खीस निपोरे खड़ा पड़ोसी, मुझको रंग लगाएगा,
पूरे दस का कुनबा उसका, मेरे घर ही खाएगा,
ठूंस-ठूंस कर उन्हें खिलाये, मेरी बीवी भी भोली है,
महंगाई में मुश्किल है जीना, कैसे कहें कि होली है।
बच्चों की भी जिद्द है, कपड़े नये सिलाएंगे,
इस होली की छुट्टी में ससुरालवाले भी आएंगे,
एक नई साड़ी पर बीवी की नीयत डोली है,
मेरे माथे आये पसीना, कैसे कहें कि होली है।
जी करता है हो जाऊं संन्यासी,
अबकी होली चलूं मैं काशी,
छोटी इनकम में यारों होली एक ठिठोली है,
कोई रास्ता दिखे कहीं ना, कैसे कहूं कि होली है।
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पत्थर हो गया
साहिल था अब आंसुओं का समंदर हो गया,
इस पत्थर के शहर में मैं भी पत्थर हो गया
लिखनी थी तकदीर जिस कलम से,
उसमें खूं है, आज वो खंजर हो गया
हाथ मांगा था, साथ मांगा था उसने,
वो अब किसी और का हमसफर हो गया
खिलता नहीं कोई फूल मुस्कुराहट का,
मैं भी किसी जमीन सा बंजर हो गया