-कुणाल देव-
हरिहरगंज नामक जिस कस्बे में मेरा बचपन बीता वहां सिनेमा देखना भी एक व्यसन माना जाता था। आम लोगों की तरह पापा भी तब बच्चों को सिनेमा देखने देने के पक्षधर नहीं थे। जब हम थोड़े बड़े हुए तो छिप-छिपाकर सिनेमा देखने की अघोषित छूट मिली। तब सार्वजिनक कार्यक्रमों में प्रोजेक्टर के जरिये पर्दे पर सिनेमा दिखाया जाात था। बाद में वीसीआर और वीसीपी ने उसकी जगह ले ली।
वह दौर ऋषि कपूर का था। तभी मैंने मेरा नाम जोकर देखा था, जिसके जरिये उन्होंने बाल कलाकार के रूप में फिल्म इंडस्ट्री में एंट्री ली थी। बॉबी देखकर तो किशोरवय मन पागल सा हो गया था। हालांकि, ये फिल्में हमने दोस्तों के साथ रिलीज के काफी बाद देखी थीं। इसके बाद तो चांदनी, प्रेमरोग, लैला मंजनू, हीना, बोल राधा बोल आदि कई फिल्में धड़ाधड़ देखता चला गया।
उस वक्त समाज के किशोर व युवा को ऋषि कपूर की फिल्में पसंद थीं, उनके गाने पसंद थे। इसके विपरीत अभिभावक ऋषि कपूर को छिछोरा अभिनेता समझते थे। वह मानते थे कि ऋषि कपूर इन फिल्मों के जरिये समाज से परंपरा का लबादा उतार रहे हैं, जिसका उन्हें कोई हक नहीं। धीरे-धीरे समाज बदला, फिल्में बदलीं, कलाकार बदले और जो पुराने थे उनकी भूमिका बदल गई। ऋषि कपूर की रोमांटिक छवि में एक्शन का तड़का लगाते हुए गोविंदा का फिल्मी दुनिया में पदार्पण हो चुका था। ज्यादातर घरों में टीवी आ चुका था और फिल्मों की स्वीकार्यता होने लगी थी।
हमारे चिंटू सहब भी बदल गए थे। वह फिल्मी दुनिया में अजूबा बनने की ओर कदम बढ़ा चुके थे। वह रोमांटिक भूमिका को फना कर अग्निपथ पर निकल पड़े थे। मुल्क, डी डे, 102 नॉट आउट जैसी फिल्मों से उन्होंने हीरोइन के इर्दगिर्द चक्कर लगाने वाले हीरो से अलग गंभीर छवि बना ली थी। उन्होंने साबित किया था कि वह शोमैन राज कपूर की विरासत संभालने में सक्षम हैं।
फिल्म देखते-देखते किरदारों और कलाकारों से एक अनूठा बंधन बंध जाता है। किशोरावस्था से लेकर आजतक ऋषि कपूर की शायद ही कोई ऐसी फिल्म है, जिसे मैं नहीं देख पाया। आज जब नींद से जागते ही उनके महाप्रयाण की खबर सुनी तो लगा कि रात तो अब शुरू हुई है। ऋषि कपूर का जाना वास्तव में हम जैसे कई फिल्मचियों के एक सुंदर सपने के टूटने जैसा है। खासकर तब जबकि एक दिन पहले ही हमने फिल्मी दुनिया में आम आदमी के प्रतिनिधि इरफान को खोया है। दोनों महात्माओं को नमन...
हरिहरगंज नामक जिस कस्बे में मेरा बचपन बीता वहां सिनेमा देखना भी एक व्यसन माना जाता था। आम लोगों की तरह पापा भी तब बच्चों को सिनेमा देखने देने के पक्षधर नहीं थे। जब हम थोड़े बड़े हुए तो छिप-छिपाकर सिनेमा देखने की अघोषित छूट मिली। तब सार्वजिनक कार्यक्रमों में प्रोजेक्टर के जरिये पर्दे पर सिनेमा दिखाया जाात था। बाद में वीसीआर और वीसीपी ने उसकी जगह ले ली।
वह दौर ऋषि कपूर का था। तभी मैंने मेरा नाम जोकर देखा था, जिसके जरिये उन्होंने बाल कलाकार के रूप में फिल्म इंडस्ट्री में एंट्री ली थी। बॉबी देखकर तो किशोरवय मन पागल सा हो गया था। हालांकि, ये फिल्में हमने दोस्तों के साथ रिलीज के काफी बाद देखी थीं। इसके बाद तो चांदनी, प्रेमरोग, लैला मंजनू, हीना, बोल राधा बोल आदि कई फिल्में धड़ाधड़ देखता चला गया।
उस वक्त समाज के किशोर व युवा को ऋषि कपूर की फिल्में पसंद थीं, उनके गाने पसंद थे। इसके विपरीत अभिभावक ऋषि कपूर को छिछोरा अभिनेता समझते थे। वह मानते थे कि ऋषि कपूर इन फिल्मों के जरिये समाज से परंपरा का लबादा उतार रहे हैं, जिसका उन्हें कोई हक नहीं। धीरे-धीरे समाज बदला, फिल्में बदलीं, कलाकार बदले और जो पुराने थे उनकी भूमिका बदल गई। ऋषि कपूर की रोमांटिक छवि में एक्शन का तड़का लगाते हुए गोविंदा का फिल्मी दुनिया में पदार्पण हो चुका था। ज्यादातर घरों में टीवी आ चुका था और फिल्मों की स्वीकार्यता होने लगी थी।
हमारे चिंटू सहब भी बदल गए थे। वह फिल्मी दुनिया में अजूबा बनने की ओर कदम बढ़ा चुके थे। वह रोमांटिक भूमिका को फना कर अग्निपथ पर निकल पड़े थे। मुल्क, डी डे, 102 नॉट आउट जैसी फिल्मों से उन्होंने हीरोइन के इर्दगिर्द चक्कर लगाने वाले हीरो से अलग गंभीर छवि बना ली थी। उन्होंने साबित किया था कि वह शोमैन राज कपूर की विरासत संभालने में सक्षम हैं।
फिल्म देखते-देखते किरदारों और कलाकारों से एक अनूठा बंधन बंध जाता है। किशोरावस्था से लेकर आजतक ऋषि कपूर की शायद ही कोई ऐसी फिल्म है, जिसे मैं नहीं देख पाया। आज जब नींद से जागते ही उनके महाप्रयाण की खबर सुनी तो लगा कि रात तो अब शुरू हुई है। ऋषि कपूर का जाना वास्तव में हम जैसे कई फिल्मचियों के एक सुंदर सपने के टूटने जैसा है। खासकर तब जबकि एक दिन पहले ही हमने फिल्मी दुनिया में आम आदमी के प्रतिनिधि इरफान को खोया है। दोनों महात्माओं को नमन...