तीन चौथाई कथा-कहानी

अपने पैरों पर 

दिल की ये आरजू थी कोई दिलरूबा मिले... कॉलेज का आखिरी साल और विदाई समारोह। सभी भावुक थे, लेकिन रमा। उसे तो जैसे इस गाने ने बिलकुल प्रभावित ही नहीं किया हो। वह हंसती थी। लड़कों से हाथ मिलाती। लड़कियों से गले मिलती। कहती, अब तो उड़ने का मौका मिला है। स्कूल और कॉलेज में खास फर्क नहीं होता। सिर्फ ड्रेस पहनने की आजादी मिल जाती है। स्कूल में भी दूसरों की ईबारत पढ़नी होती है और कॉलेज में भी। फाइनल इग्जाम का रिजल्ट ही असली 
कुणाल देव 
युवा कथाकार, कवि और पत्रकार
Mob.  08969394348
रोमांचक होगा। फिर क्या, सारी दुनिया तुम्हारी मुट्ठी में। चाहे आगे की पढ़ाई करो या फिर यहीं से अपने कॅरियर में लग जाओ। वैसे मैं तो काम के साथ-साथ आगे की पढ़ाई करना चाहूंगी। ‘अरे हेमंत...कहां थे यार? अब आए हो। फेयरवेल पार्टी कब से चल रही है। तुम्हारी कमी खल रही थी।’ रमा ने कहा। ‘कुछ नहीं यार। आज मन भरा हुआ लग रहा है। कॉलेज आने का जी नहीं चाह रहा था। लग रहा था काश कोई समय को यहीं रोक देता। खैर तुम बताओ, क्या बातें चल रही थीं?’ हेमंत ने अपने चेहरे पर जबरदस्ती मुस्कान लाने की कोशिश करते हुए कहा। ‘देखो यार! कॉलेज हम सबके मिलने का बहाना हो सकता है, लेकिन दोस्ती का कारण नहीं। यहां से तो हम सबकी जिंदगी शुरू होती है। अब तक हम पापा की स्कॉलरशिप पर ऐश-मौज कर रहे थे। अगर यही ऐश-मौज आगे भी जारी रहा तो ठीक, वर्ना यह मान लेना कि अपने बस में कुछ भी नहीं था।...और हां, रही बात दोस्ती की तो यह जान लो बच्चू कि जिसके दिल में यह जज्बा जिंदा रहेगा, वह महीनों ही नहीं वर्षों बाद भी मिलेगा तो उसका एहसास, उसकी गर्मी कम न होगी। जो ऐसा महसूस नहीं करेंगे या जिनके मिलने से ऐसा महसूस न हो, तो मान लेना वह दोस्ती थी ही नहीं।’ रमा ने हंसते हुए, लेकिन गंभीर बातें कह डालीं। 
‘हां यार! यह तो है।  लेकिन, लगता है तुम मुझसे भी ज्यादा गंभीर हो। दार्शनिक की तरह। आगे क्या फिलॉस्फी लेने का इरादा है?’ हेमंत ने माहौल हल्का करने की कोशिश की। 
‘नहीं भई! आगे भी हिन्दी से ही एमए करूंगी। दरअसल, तुम साइंस वालों को हिन्दी की शक्ति का एहसास नहीं है। हिन्दी ही एक ऐसा विषय है, जिसमें सौंदर्य, लावण्य, माधुर्य, उत्साह, क्रोध, घृणा, शक्ति, पराक्रम, साहस, शौर्य, भूत, वर्तमान और भविष्य की चिंता होती है। इस विषय में दो-दो चार तो हम सीखते ही हैं, साथ ही यह भी सीखते हैं कि दो और दो पांच तथा दो और दो तीन कब, क्यों और कैसे हो जाता है? हाहाहाहाहाहाहाहा....’ रमा ने हंसते हुए हेमंत की चुटकी ली।  
‘चलो, अब यहां से कहीं और चलते हैं वर्ना तुम ऐसी ही दार्शनिक बातें करती रहोगी। ’ हेमंत ने रमा का हाथ पकड़कर लगभग खींचते हुए कहा। 
‘आराम से भई! मैं मना कब कर रही हूं। लेकिन, जाएंगे कहां? ’  
‘जहां तुम कहो। ’ 
‘अच्छा चलो आज तुम्हारी एक मुराद मैं पूरी करती हूं।’
‘कौन सी? ’
‘तुम मुझे लॉंग ड्राइव पर ले जा सकते हो।’
रमा के इस प्रस्ताव पर तो हेमंत का दिल बागबाग हो गया। उसने रमा को गले लगा लिया और लगभग दौड़ते हुए पार्किंग की तरफ चल दिया। 
***
‘रमा, तुम मेरे बारे में क्या खयाल रखती हो?’
‘कुछ खास नहीं और कुछ अलग भी नहीं।’
‘मतलब?’
‘मतलब यह कि जैसे और दोस्त हैं वैसे तुम भी हो। ’
‘ऐसा? फिर मेरे साथ ड्राइव पर क्यों आई? क्या मुझ पर इतना विश्वास करती हो?’
‘हां! तभी तो। वर्ना, तुम्हारे दो साल पुराने इस प्रस्ताव पर तभी न तैयार हो गई होती। ’
‘बस! इतना ही।’
‘हां! और क्या? ’
हेमंत ने अचानक गाड़ी की रफ्तार तेज कर दी। जैसे कोई उनका पीछा कर रहा हो और वह चाहते हों कि गाड़ी उससे इतना फासला तय कर ले कि पीछा करने वाला व्यक्ति अपनी हिम्मत खो दे। गाड़ी सांय-सांय करती हुई जा रही थी। न रमा ने टोका और न हेमंत ने पूछने की कोशिश की। यहां तक कि दोनों ने नजरें भी मिलाने की कोशिश नहीं की। कभी-कभार हेमंत जरूर रिवर्स मिरर से रमा के चेहरे को देखने की कोशिश करता। रमा मूर्तिवत बैठी थी। लगता था वह समझने की कोशिश कर रही हो कि आखिर हेमंत चाहता क्या है? 
‘कुछ खाओगी? आगे काके दी हट्टी आने वाली है।’ स्पीड बढ़ाने पर भी जब रमा ने जब कोई प्रतिक्रिया नहीं दी तो हेमंत ने चुप्पी तोड़ी। 
‘नहीं। लेकिन, चाय जरूर पीऊंगी।’ रमा ने कहा। 
‘अच्छा चलो इतना ही सही। मेरे हिस्से कुछ तो आया।’ हेमंत ने माहौल को हल्का करने की कोशिश करते हुए कहा तो रमा मुस्कुरा दी। 
गाड़ी तेज चलती रही और भीतर सन्नाटा पसरा रहा। गहरी खामोशी। जैसे दो महान दार्शनिक जीवन के गंभीर विषयों का निष्कर्ष ढूंढ़ने की कोशिश कर रहे हों। जैसे कोई ऐसी बात याद आ गई हो जो दोनों से संबंधित तो है, लेकिन दोनों ही उसे याद नहीं करना चाहते। अचानक सामने स्पीड ब्रेकर आ गया। गाड़ी की रफ्तार हेमंत ने धीमी की तो रमा को झटका लगा और वह इस प्रकार हिलोरें खाई जैसे उसे किसी ने कच्ची नींद से जगा दिया हो। अगले ही पल काके दी हट्टी आ गई और हेमंत ने गाड़ी साइड में पार्क कर दी। 
***
कई टेबलों के बीच एक टेबल खाली दिखाई दी। दोनों ने उसी ओर रुख किया। कुर्सियां खींचकर बैठे, लेकिन बात नहीं हुई। थोड़ी देर में वेटर आया। टेबल पर साफी मारते हुए पूछा क्या लऊं साब? 
मेरे लिए आलू पराठा, दही, क्वार्टर बटर व राजमा और मेमसाब के लिए सिर्फ चाय। हेमंत ने रमा की ओर देखते हुए मुस्कुरा कर कहा। 
वेटर ऑर्डर लेकर चला गया, लेकिन दोनों के बीच का खालीपन खौलता रहा। टेबल पर रखे मेन्यू को लेकर दोनों इस प्रकार जमे हुए थे, जैसे उसका शब्द दर शब्द याद कर आगामी परीक्षा में हू-ब-हू उतार दिया जाए। चारों तरफ शोरशराबे के बावजूद उनके बीच की खामोशी टूटने का नाम ही नहीं ले रही थी। अचानक हेमंत पूछ बैठा-‘क्या हुआ रमा, कुछ बात नहीं करोगी?’ 
रमा के चेहरे पर ऐसे भाव आए जैसे उसे किसी ने तंद्रा से जगा दिया हो, बोली-‘नहीं हेमंत ऐसी बात नहीं है।’ 
‘फिर इतनी गहरी चुप्पी क्यों?’ 
‘दरअसल, मेरे पास बात करने के लिए कोई टॉपिक ही नहीं है।’ 
‘अच्छा, लेकिन मुझे तो ऐसा नहीं लगता।’
‘हां, मैं सच कह रही हूं। खैर, चलो तुम ही कोई बात शुरू करो।’
‘रमा, मैं बहुत दिनों से कुछ कहना चाहता था, लेकिन तुम्हारी चुप्पी से एक बार फिर मेरा मन मजबूर हो गया है। सोचता हूं कहूं या न कहूं।’
रमा पूर्ववत शांत रही। यहां तक कि उसने कुछ पूछने का उत्साह भी नहीं दिखाया। यह देख हेमंत ने फिर से पहल की। 
‘कॉलेज के दिन काफी याद आएंगे न?’
‘हां, ये दिन तो भुलाये नहीं जा सकते। कितनी बेफिक्री के दिन होते हैं। सेशन के पहले तीन महीने तो कुछ समझ में नहीं आता। क्लास बंक करना, सीनेमा देखना और बाजार की चौकड़ी। फिर पढ़ाई पर ध्यान जाता है। तब तक फेस्टिवल शुरू हो जाता है और इसके बाद के तीन महीने गुजराने मुश्किल हो जाते हैं। पढ़ाई-पढ़ाई और सिर्फ पढ़ाई। काफी रोमांचक थे हमारे कॉलेज के दिन।’
‘हां, यार। इन तीन वर्षों में न जाने कितने रिश्ते बने, टूटे और फिर बने। लेकिन, सबकुछ याद रहेगा। अब लगता है जैसे जिनसे लड़ाई हुई, वह सरासर मेरी बेवकूफी ही थी। मेरे दिल में तो कम से कम किसी के लिए भी कोई शिकवा-शिकायत नहीं है। कुछ रिश्ते तो ऐसे बन गये हैं जो सांसों की डोर के साथ ही खत्म होंगे। रमा, क्या तुम्हे भी ऐसा लगता है?’
‘देखो हेमंत, यह भावनात्मक दौर है। इस दौर में की गई बातें हकीकत से कुछ ज्यादा संबंध नहीं रखतीं। इसलिए, यह कहना ठीक नहीं होगा कि किससे कैसा संबंध बना है। अगर सचमुच में किसी से कोई संबंध बना है तो यह वक्त के साथ साफ हो जाएगा।’
‘समझ नहीं आता, तुम इतनी गहरी बातें कैसे कर लेती हो। हम लोग तो उसी को हकीकत मान लेते हैं जो दिखता है या तात्कालिक महसूस होता है। इतनी दूर तक तो सोच भी नहीं पाते। सचमुच तुम आम लड़कियों की तरह नहीं हो रमा। पहले यह सिर्फ महसूस करता था, लेकिन अब धीरे-धीरे विश्वास होता जा रहा है।’
वेटर उनका ऑर्डर लेकर आता है। रमा ने अपनी चाय उठा ली और हेमंत अपने ऑर्डर की चीजों को खाने लगा। जाहिर तौर पर वह खाने तन्मयता दिखा रहा था लेकिन, दिल की बातों को चेहरे पर पैदा होने वाले भाव छिपाने में असमर्थ थे। हेमंत के चेहरे से साफ पता चल रहा था कि उसके दिल में उथलपुथल मची हुई है। 
‘रमा, रिजल्ट के बाद कनवोकेशन में तो आओगी न?’
‘कुछ कह नहीं सकती। अभी उसमें तीन महीने का समय है। पता नहीं तब तक क्या हो जाए।’
‘रहोगी तो शहर में ही न?’
‘हां।’
‘फिर तो मुलाकातें होती रहेंगी।’
‘कुछ कह नहीं सकती।’
‘अच्छा चलो, तुम्हे आने की जरूरत नहीं पडे़गी। ये रहा मेरा विजटिंग कार्ड। इसमें मेरा नंबर है। जब चाहे एक फोन घुमा देना, बंदा हाजिर रहेगा।’
‘चलो ऐसा कर लेंगे।’
‘रमा, तुम बताओ या नहीं लेकिन, तुम उदास जरूर हो। वर्ना, कॉलेज में चहकने वाली लड़की इतना गंभीर हो सकती है, कम से कम मैं तो यकीं नहीं करता।’
‘अरे नहीं भई, ऐसा कुछ नहीं है। चलो, वापस चलते हैं। तुम्हारा खाना भी खत्म हो गया।’
‘हां, चलो आज तुम्हारे घर तक छोड़ आऊं।’
‘नहीं, तुम तो मुझे बस कॉलेज तक छोड़ दो। वहां से मैं खुद चली जाऊंगी।’
‘मैं जानता हूं कि आज तुम मूड में नहीं हो। इसलिए मेरी बातें भी नहीं मानोगी। फिर भी मैं दोबारा पूछता हूं, घर तक छोड़ दूं?’
‘नहीं, सिर्फ कॉलेज तक।’
‘ओके बाबा, जैसी तुम्हारी मर्जी।’
***
आदमी चाहे कहीं भी चला जाए, कुछ भी बन जाए और कुछ भी करे, लेकिन अतीत से पीछा नहीं छुड़ा सकता। व्यक्ति का अतीत उसकी परछाई की तरह साथ चलता है। हालांकि, कभी-कभी व्यक्ति जानबूझकर अतीत से पीछा छुड़ाने की कोशिश जरूर करता है, लेकिन यह कोशिश भर ही होती है। इसमें कामयाबी की गुंजाइश दूर-दूर तक नहीं रहती। कॉलेज के ग्रेजुएशन डे की अंतिम मुलाकात के बाद रमा और हेमंत भी यही कर रहे थे। रिजल्ट निकले, कनवोकेशन हुआ और अगली कक्षाओं में नामांकन के लिए आवेदन भी किये जाने लगे, लेकिन हेमंत को रमा कहीं नहीं दिखाई दी। चार साल बाद अचानक रमा और हेमंत जब नेहरूनगर में मिले भी तो संबंधों की गर्मी जाती रही थी। हल्की मुस्कान के साथ दोनों ने एक ही समय में पूछा- कैसे हो और एक ही साथ जवाब भी दिया- ठीक हूं। इसके बाद जैसे उनके पास बातचीत के लिए कोई शब्द ही नहीं रह गया हो। दोनों की पलकें झुकी रहीं। बाजार के कोलाहल के बीच जैसे शब्दों का अकाल पड़ गया हो। चेहरे पर थे तो बस अफसोस, उलझन और अनमने से भाव। हालांकि, दोनों ही चेहरों पर एक जैसे भाव तैर रहे थे, तो कोई किसी से शिकायत करने की स्थिति में भी नहीं दिखाई दे रहा था। इस बार भी बात की पहल हेमंत ने ही की-
‘वाइफ मॉल में इंतजार कर रही है। उसी के साथ यहां आया था। काफी दिनों बाद।’
‘शादी की बधाई।’
‘धन्यवाद! पिछले ही साल हुई है।’
‘मुझे मालूम नहीं था।’
‘कैसी हो? क्या चल रहा है आजकल? आओ न तुम भी हमें ज्वाइन करो।’ हेमंत ने एक सांस में इतनी सारी बातें कह दीं। 
‘नहीं, अभी नहीं। फिर कभी।’ रमा ने मुस्कुराने की कोशिश करते हुए कहा। 
‘चार वर्षों में तुमने एक बार भी फोन नहीं किया।’
‘हां, वो तो है।’
‘क्यों?’
‘इसका जवाब फिलहाल नहीं दे सकती। अभी जल्दी है। फिर मिलते हैं। बाय।’
रमा तेजी से निकल गई और हेमंत बस उसे अपलक देखता रह गया। रमा से उसे ऐसे व्यहार की उम्मीद नहीं थी। उसे लगा था कि भले ही चार वर्षों से बातचीत नहीं हुई हो, लेकिन रमा जिस दिन भी मिलेगी संबंधों की गर्मी तारी रहेगी। लेकिन, चार साल बाद जब मिला भी तो रमा का व्यहार या यूं कहें दोनों का व्यवहार काफी बदल गया था। समय के साथ शायद संबंधों के बीच दुनियावी दायरे बनने लगे थे। कई मौकों पर ऐसा होता है जब आदमी ठहरा रह जाता है और वक्त तेजी से निकल जाता है। रमा और हेमंत के साथ भी शायद ऐसा ही था। खासकर हेमंत की तरफ से। कॉलेज छोड़ने के बाद चार वर्षों में उसकी ही दुनिया कितनी बदल गई थी। पिता की मौत के बाद उनकी संपत्तियों और बिजनेस का मालिक बन गया था। किताबों से दूरी बनाये रखने वाला लड़का, आज अकाउंट दुरुस्त करने लगा था। रमा से करीबी बढ़ाने की जुगत लगाने वाला लड़का आज गृहस्थ आश्रम में कुलांचे भर रहा था। पहले जैसा कहां कुछ रहा था। न तो वह बेफिक्री थी न ही खुलापन। यहां तक कि पहनने, खाने और सोचने की शैली भी बदल गई थी। लेकिन, रमा के मामले में हेमंत अब भी वहीं खड़ा था। कॉलेज का अंतिम दिन, डांस-मस्ती, लॉन्ग ड्राइविंग और काके दी हट्टी। 
***
‘अरे बुत क्यों बने हुए हो। कितनी देर लगा दी। घर नहीं चलना क्या?’ रीना ने जब लगभग डांटने के लहजे में कहा तो हेमंत जैसे नींद से जागा। 
‘हां, चलो घर चलते हैं।’ हेमंत ने हड़बड़ी में कहा और आगे चल दिया। 
‘क्या हो गया? थोड़ी देर पहले तक तो खुश थे। अब किस बात की चिंता खाये जा रही है।’ रीना ने पूछा। 
‘नहीं कुछ नहीं। रमा मिली थी, तो पुराने दिनों में खो गया था।’ हेमंत ने कहा। 
‘अरे कौन, कॉलेज वाली। चलो बाबा, दो साल से उसकी बातें सुनते-सुनते पक गई थी। लगता ही नहीं था कि मैं तुम्हारी पत्नी हूं। तुम पहले आदमी हो जो पत्नी के सामने किसी दूसरी लड़की की बड़ाई करते रहते हो और मैं पहली हूं जो सुनती रहती हूं। खैर, बताओ कैसी है वो?’ रीना कहती चली गई। 
‘अरे वही तो नहीं पता चला। मिली तो ऐसे जैसे वह मुझे जानती ही न हो। पता नहीं वह क्यों असहज महसूस कर रही थी। हाय-हल्लो और चलती बनी।’ हेमंत ने कहा। 
‘बच्चू, जैसे मैं तुम्हें मिल गई, वैसे ही उसे भी कोई मिल गया होगा। अब क्या तुम चाह रहे हो कि वह मिलती तो गले में बाहें डाल देती।’ रीना ने चिकोटी ली। 
‘नहीं यार, ऐसा नहीं हो सकता। शादी या ब्वायफ्रेंड के कारण अपने पुराने दोस्तों से दूरी बना ले, रमा ऐसी नहीं है।’ हेमंत ने जवाब दिया।
दोनों धीरे-धीरे चलते रहे और कार के पास पहुंच गए, लेकिन माहौल गंभीर हो गया। घर तक पहुंचने और उसके बाद तक दोनों में फिर कोई बात नहीं हुई। रात में हेमंत ने अनमने भाव से खाना खाया और सो गया। यह सिलसिला कई दिनों तक चलता रहा। रीना भी हेमंत की मनोदशा को समझती थी। शादी के दो वर्षों में हेमंत ने अपने पिता का भी उतना नाम नहीं लिया था, जितना रीमा की बातें वह रीना से करता रहता था। इसलिए रीना भी हेमंत की चुप्पी के जवाब में चुप ही रहती। इस बीच रीना उम्मीद से हो गई। इस सूचना ने हेमंत की जिंदगी में खुशियां भर दीं और वह फिर से सामान्य जिंदगी में लौट आया।  
ऊपरवाले ने आदमी का दिमाग ही ऐसा डिजाइन किया है कि अवसाद और खुशी बहुत दिनों तक वहां घर नहीं करते। वक्त की हवा अपने अनुसार सबकुछ बदलती रहती है। यहां तक कि भावनाएं भी समय के इशारे पर ही कदमताल करती हैं। ये प्राकृतिक क्रियाएं मनुष्य के स्थायित्व के दावों को दरकिनार भी करती हैं। हालांकि, मनुष्य इस हकीकत को मानने से तब तक मानने से इनकार करता है, जब तक वह मजबूर न हो जाए।  
हेमंत अब घर में आने वाले मेहमान की स्वागत की तैयारी में जुट गया था। सुबह से बिजनेस और धंधों की जिम्मेवारियों को निभाता तो शाम हमेशा अपनी पत्नी रीाना के लिए बचाकर रखता। दरअसल, वह इन दिनों में रीना को किसी भी प्रकार की पेरशानी या मायूसी देना नहीं चाहता था। उधर, रीना भी हेमंत का अब ज्यादा ख्याल रखने लगी थी। ठंड लगभग खत्म होने को थी। दिन भी बड़े होने लगे थे। कोहरे भरी शाम की जगह, चिड़ियों की चहचहाअट और रक्तिम आभा लिये सूरज का इमारतों की ओट में जाना अलग सुकून देता था। ऐसी ही एक शाम दोनों नेहरू नगर में घूम रहे थे। अचानक ही ‘द सी’ होटल के पास उनकी मुलाकात रमा से हो गई। यह वही जगह था जहां रमा चार महीने पहले हेमंत को मिली थी। 
‘रमा, रुको। आज बिना बात के जाने नहीं दूंगा।’ हेमंत ने अधिकारपूर्वक टोका तो रमा ठिठक गई। 
‘हाय, कैसे हो? ये तुम्हारी पत्नी रीना है न?’ रमा ने झेंप मिटाते हुए हेमंत से पूछा। 
‘हां, यह रीना है। पहले तुम यह बताओ कि तुम कैसी हो, कहां रहती हो और क्या कर रही हो?’ हेमंत ने एक सांस में ढेरों सवाल पूछ डाले। 
‘देखो हेमंत, तुम अपना नंबर दे दो। मैं किसी दिन फोन करके तुमसे मुलाकात कर लूंगी। तब फुरसत में ढेर सारी बातें होंगीं। फिलहाल, अगर मैं पांच मिनट भी तुम्हारे साथ रुकी तो बस छुट जाएगी।’ रमा ने कहा। 
‘बस की चिंता मत करो। आज बिना सुने तुम्हें जाने नहीं दूंगा। हम लोग तुम्हें तुम्हारे घर तक छोड़ देंगे।’ हेमंत ने कहा। 
‘फिर भी मैं नहीं रुक सकती। मां बीमार चल रही हैं। अगर मुझे जाने में देर होगी तो घर के सारे लोग परेशान हो जाएंगे। मां को समय पर दवा नहीं मिल पाएगी।’ रमा के चेहरे पर मजबूरी और बेचैनी के भाव तैर रहे थे। 
‘तो ठीक है, हम और रीना तुम्हें नहीं रोकेंगे। लेकिन, आज हम तुम्हारे घर तक अपनी गाड़ी में चलेंगे और रास्ते में बातें भी हो जाएंगीं।’ हेमंत के इस प्रस्ताव का रीना ने भी समर्थन किया तो रमा मजबूर हो गई। 
‘रूपनगर चौराहे पर छोड़ दो।’ रमा ने हेमंत से कहा। 
गाड़ी चल पड़ी। रमा हेमंत की बजाय रीना से बातों में लग गई। हेमंत बीच में कूछ पूछने की कोशिश भी करता तो रमा गौर नहीं करती। रमा और रीना बातों में ऐसे उलझी रहीं जैसे बचपन की सहेली हों। हेमंत अब कुछ-कुछ समझने लगा था। रूपनगर चौराहा! रमा के यहां रहने की कल्पना भी हेमंत नहीं कर सकता था। वह जानता था कि रमा उस मध्यमवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखती है जो इस इलाके में रहना पसंद नहीं करेगा। यहीं से तो इस महानगर के विशाल झुग्गी-झोपड़ियों का साम्राज्य शुरू होता है। नशेड़ी, जुआरी व जरायमपेशा लोगों का इलाका। क्या रमा अब यहीं रहती है? हेमंत के दिमाग में यह बातें कौंध रहीं थीं। आखिरकार रूपनगर चौराहा भी आ गया। हेमंत ने गाड़ी रोकी और पीछे मुड़कर देखा तो रमा ने कहा-
 ‘देखा, समय का पता ही नहीं चला। अच्छा रीना, फिर मिल मिलते हैं।’ 
‘यहीं रहती हो?’ हेमंत ने पूछा।
‘नहीं, अंदर की बस्ती में।’ 
‘बस्ती में?’
‘हां।’
‘क्यों? कब से?’
‘बहुत लंबी कहानी है हेमंत, फिर किसी दिन बताऊंगी। अभी अगर यहां मुझे लोग तुम्हारे साथ देख लेंगे तो बहुत गजब हो जाएगा। इस इलाके के बारे में तुम भी जानते हो। फिलहाल तुम जाओ। फिर मिलेंगे।’
‘मैं तब तक नहीं जाऊंगा जब तक तुम फिर जल्द मिलने का वादा न कर देती। एक बात और, अगर तुम इस सप्ताह के अंदर नहीं मिली तो रविवार से मैं रोजाना शाम को यहां चौराहे पर आऊंगा और तुम्हारा इंतजार करूंगा। रीना भी साथ होगी। इसे कतई मजाक मत समझना।’
‘हां, बाबा जरूर मिलूंगी। अपना फोन नंबर देते जाओ।’
***
आज हेमंत बहुत खुश था। यहां फूलदान लगाओ। वहां पोंछा मारो। रंगोली ठीक से बनाओ। ड्राइंग रूम में कहीं भी जाले नहीं दिखने चाहिए। मालती तुम...हां तुम, जब मेम साब आएं तो उनकी आरती उतारना। अरे नहीं, तुम छोड़ो। रीना, क्या तुम आरती उतारोगी? हां, यही ठीक रहेगा। उसे अपनापन महसूस होगा। तुमने देखा था न कितनी अच्छी लड़की है। तुम्हारी तो सहेली बन गई। दरबान को बुलाओ। नहीं मैं ही चला जाता हूं। देखो दरबान, रमा मेमसाब जब कोई नाम बताए तो उन्हें बहुत ही सम्मान से अंदर ले आना। अरे, वह भी न, बहुत जिद्दी है। कहा था कार भेज दूंगा, लेकिन नहीं मानी। खैर, उसकी जिद के आगे तो कोई जीत सकता नहीं। रीना, देखे रमा आ गई है। आरती की थाली लाओ। 
‘हेमंत, ये सब क्या है? आरती-वारती का क्या मतलब?’ रमा ने टोका। 
‘नहीं यार, तुम पहली बार घर आई हो। यह तो हमारी संस्कृति है।’ हेमंत ने चहकते हुए कहा। 
‘रीना, चलो पानी पिलवाओ और फिर सीधे खाना खा लेते हैं। इसके बाद बातचीत करते रहेंगे। पता है रमा, रीना ने सारा खाना खुद ही बनाया है। अमूमन यह खाना बनाने से परहेज करती है।’ हेमंत ने कहा। 
‘हां, बहुत अच्छा बना है। हेल्दी भी है।’ रमा ने तारीफ की। 
‘लेकिन, मुझे अब तक समझ में नहीं आया कि तुम वहां रूपनगर कैसे पहुंची?’ हेमंत ने पूछा। 
रमा ने कहा-मैं जानती थी कि तुम यह जाने बगैर मानोगे नहीं और अगर तुम चौराहे पर आने लगे तो पता है मेरा जीना बस्ती में और मुश्किल हो जाएगा। इसलिए न चाहते हुए भी यहां आना पड़ा। अब तुम सुनना ही चाहते हो तो सुनो:- 
ग्रेजुएशन के बाद हिन्दी से पीजी की पढ़ाई की बजाय मैंने एमबीए की तैयारी शुरू कर दी थी। कैट में मेरा नंबर भी अच्छा आ गया। अच्छे इंस्टीट्यूट में दाखिला मिला। अंतिम सेमेस्टर की परीक्षाएं आने वाली थीं। तभी पापा को हार्टअटैक हो गया। 20 दिनों तक अस्पताल में पड़े रहे। मां ने उनके इलाज में कोई कसर नहीं छोड़ी। घर में जितने पैसे थे, लगा दिये गये। ऑफिस वालों ने लोन भी कर दिये। विदेश से विशेषज्ञ बुलाये गये, लेकिन वह बच नहीं पाए। पापा की मौत के बाद पूरा परिवार आर्थिक व मानसिक दोनों ही रूपों से टूट गया। ऑफिस ने लोन की वसूली के लिए नोटिस दे दिया। इधर, मेरी परीक्षा सिर पर थी। नतीजतन, मां ने घर बेचने का फैसला किया। शास्त्रीनगर का घर बेच दिया गया और हम किराये के मकान में आ गए। पापा के ऑफिस और रिश्तेदारों के कर्ज उतार दिये गये। मेरी परीक्षा हुई और रिजल्ट से पहले ही मल्टीनेशनल कंपनी ने मेरा कैंपस सलेक्शन कर लिया। पैकेज भी अच्छा था। लगा, अब बुरे दिन बीतने वाले हैं। रिजल्ट आया। मैं अव्वल नंबर से पास हो गई थी। कंपनी की तरफ से ज्वाइनिंग लेटर मिल गया। मां की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। पापा की मौत के बाद मां भी संभलने लगी थीं। भाई-बहन की पढ़ाई फिर से शुरू हो गई। अपने शहर में नौकरी पाकर मैं भी खुश थी। पहली सैलरी मिली तो मैंने अपनी मां के हाथों में लाकर रख दी। छह महीने का प्रोवेशन था और मैं नहीं चाहती थी कि किसी भी कारण से मेरी पहली नौकरी पर कोई दाग लगे। इसलिए, जीतोड़ मेहनत करती। इस बीच न तो बॉस की तरफ से कोई शाबाशी मिली, न ही डांट-फटकार। यह बात मुझे खलती थी, लेकिन यह सोचकर मन को मना लेती कि काम की कोई बुराई तो नहीं करता। 
चौथे महीने मेरे सीनियर ने अपनी केबिन में मुझे बुलाया। इससे पहले मैं कभी उसकी केबिन में नहीं गई थी। मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ। समझ में नहीं आ रहा था कि कोई गलती हुई है या काम से खुश होकर शाबाशी के लिए बुलाया है। खैर, वहां सीनियर ने बताया कि कंपनी मंदी की चपेट में आ गई है। प्रबंधन की ओर से तय किया गया है कि 10 प्रतिशत कर्मचारियों की कटौती की जाये। कर्मचारियों की जो लिस्ट बनी है उसमें मेरा भी नाम है। यह सुनकर मैं सन्न रह गई। लग रहा था कि चक्कर खाकर केबिन में ही गिर जाऊंगी। मैं वापस अपनी सीट पर जाने लगी थी कि सीनियर ने आवाज दी। कहा, ‘अभी तुरंत कुछ नहीं हो रहा है। कुछ कोशिश करो तो नौकरी बच भी सकती है।’ मैंने नौकरी बचाने के ऊपाय पूछे तो उसने बाद में बात करने को कहा।  
किसी प्रकार काम को निपटाने लगी। शाम हुई तो स्टाफ कागज समेटकर घर जाने की तैयारी करने लगे, लेकिन मुझे कोई जल्दी नहीं थी। बस एक ही बात दिमाग में चल रही थी, किसी प्रकार नौकरी बच जाती। इसकी मुझे बहुत जरूरत थी। मां, भाई व बहन की जिम्मेवारी मुझ पर ही थी। सारे स्टाफ चले गए तो मेरा सीनियर अपनी केबिन से निकला। मैं उससे ऊपाय पूछना चाहती थी, लेकिन पहल से बच रही थी। वह खुद ही मेरी सीट पर आया।
‘अभी तक काम कर रही हो। घर जाओ।’
‘हां, सर। बस थोड़ा सा काम रह गया है।’
‘कहां रहती हो? चलो मैं तुम्हे घर छोड़ दूं।’
‘नहीं सर, आप परेशान न हों। मैं खुद ही चली जाऊंगी। वैसे मैं शास्त्रीनगर में रहती हूं।’
‘अच्छा कोई बात नहीं। वैसे मुझे कोई दिक्कत नहीं होती। मैं भी उधर ही रहता हूं।’
‘अच्छा सर, मैं भी आपके साथ हो लेती हूं।’
‘घर में कौन-कौन है?’ सीनियर ने कार स्टार्ट करते हुए पूछा।
‘मैं, मेरी छोटी बहन, भाई और मां। पिताजी की मौत पिछले साल हो गई थी।’
‘पिताजी के न रहते तो सारी जिम्मेवारी तुम पर ही आ गई होगी?’
‘हां सर! घर में और कोई कमाने वाला है भी नहीं।’
‘फिर तो बहुत मुश्किल होती होगी। चलो देखो, मैं तुम्हारी नौकरी बचाने की कोशिश करता हूं।’
रास्ते में उसने गियर बदलते हुए उसका हाथ मेरी जांघ को छू गया। उसने तत्काल सॉरी बोलते हुए हाथ हटा लिया। मैंने इट्स ओके कहा तो उसके चेहरे के भाव बदलने लगे। उसके स्वर में दृढ़ता आने लगी। कहने लगा-‘देखो रमा मल्टीनेशनल कंपनियों में काम करना तलवार की धार पर चलने जैसा है। यह कॉरपोरेट है न, बहुत कुत्ती चीज होती है। यहां काम करने वाले लोग कंपनी से ज्यादा खुद का फायदा देखते हैं। मीटिंग्स में, सेमिनार में और डिस्कशन में तो कंपनी के फायदे की बातें होती हैं, लेकिन हकीकत में यहां हर कोई बस अपना ही उल्लू सीधा करता है। लोग सरकारी तंत्र पर भ्रष्टाचार और हीलाहवाली के आरोप लगाते हैं, किंतु सबसे बड़ी सच्चाई यह है कि जितना करप्शन कॉरपोरेट में है, उतना कहीं नहीं। हो सकता है कि सरकारी व्यवस्था में थोड़ी-बहुत लोकतांत्रिक प्रकिया बची हो, पर यहां तो इसकी गुंजाइश रत्ती भर भी नहीं है। कॉरपोरेट में नौकरी करने का एक ही मंत्र है-बॉस इज ऑलवेज राइट। बॉस नेता नहीं, तनाशाह होता है। वह चाहे जिसकी नौकरी बख्श दे और चाहे जिसकी ले ले। सीनियर के बारे में की गई शिकायत को कोई भी सीनियर सुनना पसंद नहीं करता। कारण है कि वह तमाम प्रक्रियाओं को जानता है। जूनियर की शिकायत सुनने का मतलब है बॉसगिरी में फूट पड़ना। ऐसा कोई भी सीनियर नहीं चाहता। इसी एकता को बचाये रखने के लिए बॉस हमेशा सीनियर की बातें सुनते हैं और कार्रवाई हमेशा जूनियर पर होती है। वास्तव में कॉरपोरेट बिरबल की खिचड़ी है। बॉस अकबर के दीपक की तरह है, जिसके मद्धिम प्रकाश में भी जूनियर को स्वादिष्ट और पूरी तरह पकी हुई खिचड़ी बनानी होती है। जिसकी खिचड़ी पक जाती है वह बच जाता है और जो ऐसा नहीं करता, उस  पर कार्रवाई का चाबुक चलता है। तुम नई हो और मैं ऐसा सीनियर नहीं हूं। इसलिए तुम्हें ये सारी बातें समझा रहा हूं। तुम चिंता मत करना कोशिश करूंगा कि तुम्हारी नौकरी बच जाए।... शास्त्रीनगर कौन से फेज में रहती हो?’ 
‘वन में और आप?’
‘मैं फेज दो में रहता हूं। कल संडे है। ये रहा मेरा फोन नंबर। फुर्सत हो तो कल घर पर आओ। ऑफिस की और भी बातें करेंगे।’
‘देखती हूं सर। फुर्सत मिली तो फोन कर लूंगी।’
रात भर मैं अपने सीनियर के बारे में सोचती रही। कभी मन कह रहा था कि वह ईमानदार है और कभी कह रहा था कि कहीं उसकी यह साफगोई ढकोसला न हो। भोर में नंद भी आई, लेकिन सुबह सात बजते-बजते तक फिर खुल गई। नौकरी पर खतरे और सीनियर की सहानुभूति के बारे में मैंने अपनी मां या भाई-बहन को नहीं बताया था और खुद के चहरे पर भी चिंता की कोई पेशानी आए, यह मैं नहीं चाहती थी। चाय-वाय के बाद मैंने नौ बजे नाश्ता किया और अपने कमरे में चली गई। लैपटॉप पर कुछ-कुछ करने की कोशिश करने लगी, लेकिन दिल हौंकनी की तरह चल रहा था। नौकरी की चिंता, सीनियर की बातें और उसके निमंत्रण के बीच बहुत बुरी तरह उलझ गई। तमाम कोशिशों के बावजूद दिल की धौंकनी कम नहीं हो रही थी। सोचा चलो सीनियर को फोन करके देखते हैं। उसने पूछा कि कब आ रही हो। अभी तक मैंने जाने की सोचा भी नहीं था, लेकिन मना भी नहीं कर सकी। फोन काटने के बाद तैयार हुई और मीटिंग का हवाला देकर घर से निकल गई। बताये हुए पते पर पहुंची। दरवाजा सीनियर ने खोला। ड्राइंग रूम देखकर ही लग जाता था कि घर में सीनियर अकेला रहता है। फिर भी तसल्ली के लिए पूछा-‘फैमिली कहां रहती है?’
‘साथ नहीं रहती।’ सीनियर ने पानी का ग्लास मेरी तरफ बढ़ाते हुए कहा। 
पानी पीने के बाद उसने खुद ही बताना शुरू कर दिया। वह पहले मुंबई में रहता था। वहीं उसने मराठी लड़की से प्रेम विवाह किया। चार वर्षों तक वह उसके साथ मुंबई में रहा। शादी के बाद औपचारिक तौर पर उसने अपने बॉस को खाने पर घर पर बुलाया। घर पहुंचने पर बॉस की गंदी नजरें उसकी बीवी पर टिक गईं। इसके बाद तो बॉस किसी न किसी बहाने घर आने लगा। कभी-कभी तो उसकी गैरमौजूदगी में भी उसका बॉस उसके घर आ जाया करता था। बाद में उसकी बीवी और बॉस के बीच रिश्ते कायम हो गये। उसका बॉस उसे जबरन बाहर की टूर पर भेज दिया करता। एक दिन सीनियर टूर से एक दिन पहले ही घर लौट आया। घर की डुप्लिकेट चाबी उसके पास थी। दरावाजा खोलकर जब वह अंदर घुसा तो देखता है कि उसका बॉस और उसकी बीवी बेडरूम में एक-दूसरे की बाहों में थे। अचानक उसे देखकर बॉस घबरा गया और कपड़े पहनकर चलता बना। बीवी रोने-धोने लगी। खोखली दलीलें देने लगी। नौकरी और परिवार की दुहाई देने लगी। हालांकि, सच सीनियर जान चुका था। उसने अपनी बीवी के खिलाफ कोर्ट में तलाक की अर्जी दे दी। बीवी भी इसके लिए राजी हो गई। लेकिन, बदले में जिस फ्लैट में वे लोग रहते थे, वह और 25 लाख रुपये की डिमांड कर दी। सीनियर ने यह समझौता कर लिया। उसने मुंबई की नौकरी छोड़ दी और यहां चला आया। इतना कहते-कहते सीनियर की आंखें डबडबा गईं। वह खुद किचेन में चला गया और शराब की ग्लास लेकर वापस ड्राइंग रूम में आ गया। सॉरी कहते हुए उसने मेरे सामने ही शराब पीनी शुरू कर दी। मुझे अटपटा लगा। मैं सोफे से उठने लगी तो उसने हाथ पकड़ कर बैठा लिया। मिन्नते करने लगा कि कुछ देर और रुक जाऊं। मजबूरन मैं बैठ गई। थोड़ी ही देर में सीनियर शराब पीते-पीते बेहोश सा हो गया। मैंने उसे सहारा देते हुए उसके बेडरूम में पहुंचाया और वापस घर आ गई। 
दूसरे दिन ऑफिस में सबकुछ सामान्य रहा। शाम को जब घर लौटने लगी तो सीनियर ने जोर देकर अपनी कार में बैठा लिया। कल के वाकये के लिए सॉरी कहने लगा। हालांकि, मैंने अपनी तरफ से कोई जवाब नहीं दिया। थोड़ी देर बाद उसने कहा कि बॉस से उसकी बात हो गई है। कोशिश की जा रही है कि छंटनी की लिस्ट से मेरा नाम हटा दिया जाए। मैं खुश हो गई। अब तो सीनियर की कार से ही आना-जाना होने लगा। रविवार को फिर उसने घर पर आने का आमंत्रण दिया। इस बार उसने शराब नहीं पी। उसने मॉल में घूमने का ऑफर किया। दोपहर का खाना हमने मॉल में ही खाया और शाम को लौटते समय उसने एक महंगी कलम उसने मुझे गिफ्ट की। मैं कलम लेना तो नहीं चाहती थी, लेकिन उसके दबाव में लेना ही पड़ा। नौकरी के मामले में उसकी कवायद के दावे को मैं भी धीरे-धीरे एहसान मानने लगी थी। इसलिए उसके प्रस्तावों को ठुकरा नहीं पाती। रविवार को तो उसके घर पर चली ही जाती, कभी-कभी ऑफिस से लौटते वक्त भी सीधे वह मुझे घर पर लिये जाता। 
उस दिन ऑफिस से लौटते वक्त सीनियर ने बताया कि आज उसका जन्मदिन है। मैंने उसे बधाई दी। वह काफी खुश था। कार शास्त्रीनगर फेज वन पहुंची, लेकिन रुकी नहीं तो मैंने टोका। कहने लगा कि घर पर केक काटकर वह मुझे वापस पहुंचा देगा। जब उसके घर पर पहुंची तो उसने कमरे में एक पैकेट दिखाया और कहा कि मैं रिटर्न गिफ्ट समझकर स्वीकार कर लूं। उसे खोला तो पाया कि मेरे लिए कपड़े खरीद रखे थे। उसने अधिकार जताते हुए कहा कि जल्दी से चेंज कर लो बाजार जाकर केक लाना है और कुछ खाने-पीने का सामान भी। केक के साथ उसने अपने लिए शराब खरीदी और फ्रूट बीयर भी। घर आकर केक काटा और सबसे पहले उसने मुझे खिलाया। इसके बाद माफी मांगते हुए वह दो ग्लास, शराब और फ्रूट बीयर लेकर आ गया। उसने अपना पेग बनाते हुए मुझे भी फ्रूट बीयर पीने को राजी करने लगा। मैंने साफ मना कर दिया। लेकिन, वह समझाने लगा कि फ्रूट बीयर से कुछ नहीं होता। उसने इतने तर्क दिये कि मैं फ्रूट बीयर पर राजी हो गई। एक बोतल फ्रूट बीयर पीने के बाद मैं थोड़ा नर्वस फील करने लगी। उसने ही सुझाया कि घर फोन करके बता दूं कि आज ऑफिस के काम में थोड़ी देर होगी। मैंने वैसा ही किया। दो घंटे बाद भी असर कम नहीं हुआ। उसने कहा कि आज यहीं रुक जाओ। वैसे फ्रूट बीयर चढ़ती नहीं है, लेकिन पता नहीं क्यों तुम्हें चढ़ रही है। घर इस हालत में जाओगी तो खामख्वाह बखेड़ा खड़ा होगा। घर में बता दो कि आज रातभर काम करना होगा। इसलिए सुबह घर जाओगी। कल छुट्टी कर लेना। मैं बॉस को बता दूंगा। मैंने पहले नानुकूर किया लेकिन बाद में राजी हो गई। घर फोन करके मां को वैसा ही बता दिया। 
जब खाना का दौर शुरू हुआ तो भी वह शराब पी रहा था। एक फ्रूटबीयर बच रही थी। उसने कहा कि आज जब घर नहीं जाना है तो पूरा इंज्वाय करो। मैं मना करने लगी, लेकिन हकीकत यही था कि अब मेरी हालत समझौते वाली हो गई थी। उसके तर्कों और मान-मनौव्वल के आगे मैं टिक नहीं पाई। दूसरी फ्रूट बीयर पीने के बाद नशा और भी गहरा हो गया। मैं सोफे पर ही बोझिल होने लगी। मेरी हालत को मेरा सीनियर भांप चुका था। उसने मौके का फायदा उठाते हुए मुझे प्रोपोज कर दिया। बदल में मैंने उसे क्या कहा, यह मुझे अभी तक पता नहीं चल पाया है। हां, सुबह जब मेरी आंख खुली तो मेरा सीनियर मुझसे चिपक कर सो रहा था। मेरे सारे कपड़े इधर-उधर पड़े हुए थे। शरीर में जैसे बिजली दौड़ गई। चादर हटाते हुए भी भय लग रहा था। किसी प्रकार उठी और कपड़े समेटते हुए बाथरूम की ओर भागी। शराब के नशे में शारीरिक पीड़ा भले ही महसूस नहीं हुई हो, लेकिन नशा टूटने के बाद शारीरिक और मानसिक दोनों पीड़ा के मारे सिर फटने लगा था। जी करता था कि सोई हुई अवस्था में ही सीनियर का खून कर दूं, लेकिन ऐसा कर ने सकी। धीरे-धीरे क्रोध पिघलकर आंसू बन गया। मेरी रुलाई सुनकर सीनियर जाग गया। कपड़े समेटते हुए उसने चुप कराने की कोशिश की। मैंने उसे जमकर झाड़ा। जब तक बोलती रही तब तक वह चुप रहा। मेरे चुप होने के बाद वह दलील देने लगा कि मैं ही सबकुछ करना चाहती थी। उसने जबरदस्ती कुछ भी नहीं किया। वह मुझसे सच्चा प्यार करता है और शादी भी करेगा। न तो कोई परेशानी की बात है न ही चिंता की। मैं जिस समय कहूंगी, वह शादी कर लेगा। मैंने भी सोचा कि अब तो गरिमा लुट चुकी है। आखिर शादी किसी से तो करनी थी, इससे ही सही। विरोध करने से परिवार के बिखरने और मां के बेवजह परेशान होने का भी डर था। इसलिए इसे नियति मानकर चुप हो गई। 
दूसरे दिन की छुट्टी के बाद ऑफिस पहुंची तो सबकुछ सामान्य था। शाम को मैं देर तक अपनी सीट पर बैठी रही और सीनियर के निकलने का इंतजार करती रही। जब सीनियर अपनी केबिन से निकला तो उसके साथ हो ली। वास्तव में अब मन सीनियर पर अधिकार जताने लगा था। उसने भी गर्मजोशी से मेरा स्वागत किया। अब तो अक्सर ही उसके घर पर जाया करती। हालांकि, यह कोशिश हमेशा रहती कि जो कुछ भी उस रात में हुआ वह दोबारा न हो। कुछ ही दिनों में गिफ्टों का सिलसिला तेज हो गया। जैसे मैं अब सीनियर पर हक जताने लगी थी, वैसे ही सीनियर भी अब मुझ पर हक जताने लगा था। उसके हक जताने का सिलसिला अब सिर्फ काम और व्यवहार तक सीमित नहीं था, बल्कि शरीर पर भी हक जताने की कोशिश करता। विरोध करने पर तरह-तरह की बातें समझाता। नाराजा हो जाता और कभी-कभी गुस्सा भी। थोड़े दिनों बाद सेक्स के मुद्दे पर दोनों में कई-कई दिनों तक बातचीत भी बंद रहती। वह उदाहरण देता कि शहरों में तो दस-दस साल लिव-इन रिलेशन के बाद लोग शादियां करते हैं। अगर हम मर्यादा में रहते हुए थोड़ा और करीब हो लें तो इसमें क्या हर्ज है। जब वह बातचीत बंद कर देता तो मैं अंदर से डर जाती। पहली बार ऐसा होने पर मैंने ही बातचीत की पहल की थी और उसकी मनमानी के आगे हथियार डाल दिया था। इसके बाद तो वह मजबूरी को समझ गया था। उसकी मांगें और बढ़ने लगी थीं।   
शनिवार की शाम थी। दफ्तर से उसके साथ लौट रही थी। शास्त्रीनगर फेज-1 आया, लेकिन उसने कार नहीं रोकी। मैंने जब उसकी तरफ देखा तो कहा कि आज घर चलते हैं। थोड़ी बातचीत करने का मन है। ऐसा चूंकि अक्सर होता था, इसलिए मुझे कोई शक नहीं हुआ। उसके घर पहुंचने पर मैं किचेन में चाय बनाने चली गई और वह फ्रेश होने बाथरूम में चला गया। थोड़ी देर में वह कपड़े चेंज करके ड्राइंग रूम में पहुंचा। तब तक मैं भी वहां चाय लेकर पहुंच गई थी। चाय पीते हुए फिर उसने वही कहानी शुरू कर दी। पत्नी और बेवफाई वाली। चाय खत्म होने के बाद वह करीब आकर बैठ गया और धीरे-धीरे आगोश में सिर रख दिया। किस्से सुनाने के साथ ही वह बीच-बीच में बच्चों की तरह सुबकने भी लगा। मैं घर लौटना चाहती थी, लेकिन संबंध के इतना आगे बढ़ने के बाद ऐसे मोड़ पर उसे छोड़ नहीं सकी। वक्त बीतता जा रहा था और मेरी चिंता बढ़ती ही जा रही थी। शाम करीब सात बजे जब वह चुप हुआ तो मैंने दिलाशा देते हुए घर जाने की बात कही। लेकिन, वह बच्चों की तरह दुपट्टा पकड़कर लटक गया। आज मत जाओ, मम्मी को मना कर दो। बता दो कि ऑफिस में देर तक काम करना है। सुबह ही आना हो पाएगा। चिंता की कोई बात नहीं है। मैं समझ गई कि अब वह मुझसे क्या चाहता है। मैंने घर जाने की बहुत जिद्द की, लेकिन वह एक भी दलील सुनने को तैयार नहीं था। मेरे पास एक ही चारा रह जाता था कि उससे लड़ाई करके घर लौट जाऊं, लेकिन इसका परिणाम ठीक नहीं होता। यह सोचकर मैंने वैसा ही किया जैसा वह चाहता था। इससे पहले भी ऐसी ही अवस्था में कई बार उसके घर पर रुक चुकी थी। जब यह तय हो गया कि मैं रुक रही हूं तो उसने बाहर चलने और लंच करने का प्लान किया। मैं खुद को दिलाशा दे रही थी कि शायद आज गनीमत है, लेकिन बाजार जाने और घूमने के बाद उसने रेस्तरां में खाने के बजाय खाना पैक करवा लिया। मैं समझ गई कि आगे क्या होने वाला है। 
टीवी ऑन था और शराब का दौर चल रहा था। मैं भी फ्रूट बीयर पीने को मजबूर थी। धीरे-धीरे नशा छाने लगा था। फ्रूट बीयर की कितनी मात्रा पीने के बाद मैं सुरूर में आ जाती थी, इसकी जानकारी अब सीनियर को पूरी तरह हो चुकी थी। उसने खाना परोसना शुरू कर दिया। खाना खाते समय ही उसने दूसरी बोतल भी मुझे दे दी। खाना खत्म करने के बाद हम लोग बेडरूम में चले गए। मैं रूम लॉक करना चाहती थी, लेकिन उसने मुझे बेड पर खींच लिया। यहां तक कि लाइट भी ऑफ नहीं की। इसके बाद कमरे में तूफान आ गया। जब तूफान थमा तो क्या देखती हूं कि मेरा बॉस कमरे दरवाजे पर खड़ा था। उसके चेहरे पर गुस्सा था। मैं कपड़े लेकर बाथरूम में भागी। चेंज करने के बाद दरवाजा खोलने की हिम्मत नहीं हो रही थी। थोड़ी देर बाद मेरा सीनियर दरवाजा पीटने लगा। चुप रही तो उसने दरवाजा तोड़ने की बात कही और धक्के देने लगा। शायद वह डर गया था कि कहीं मैं खुदकुशी न कर बैठूं। बाहर से ही वह कहने लगा कि कुछ नहीं होगा। उसने बॉस से बात कर ली है। न तो नौकरी जाएगी, न ही किसी को इस मामले का पता चलेगा। डरते हुए मैंने दरवाजा खोल दिया। 
बॉस आगे के कमरे में चला गया था। सीनियर कमरे ही सीगरेट फूंकने लगा। जब मैं सामने आई तो उसने हाथ पकड़ते हुए बेड पर बैठाया। चेहरे पर हाथ फेरते हुए कहने लगा कि उसकी बात हो गई है। बॉस कुछ नहीं करेगा। मैं चाहूं तो सबकुछ ठीक हो सकता है। बॉस की एक शर्त है। वह भी मुझे चाहने लगा है। सीनियर की यह बात सुनकर मैं पूरी तरह हिल गई। मैं अब समझने लगी थी कि बॉस और सीनियर के बीच बनाये गये जाल में फंस गई थी। 
मैंने अपने सीनियर को टटोलने की कोशिश करते हुए पूछा, ‘तुम क्या चाहते हो?’ 
‘इज्जत बचाने के लिए तो समझौता करना पड़ेगा।’ सीनियर ने कहा। 
‘ठीक है जब तुम कहते हो तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन इससे पहले तुम्हें मुझसे शादी करनी होगी। वह भी कानूनी तौर पर।’ मैंने शर्त रख दी। 
सीनियर के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं, लेकिन सधे हुए खिलाड़ी की तरह उसने कहा, ‘शादी तो जब तुम कहो कर लूंगा, लेकिन इसके बाद तुम्हारे परिवार को कौन चलाएगा?’ 
सीनियर की इस खोखली दलील और उसके चेहरे की भंगिमाओं ने हकीकत को मेरे सामने खोलकर रख दिया। मेरे शरीर और इज्जत के साथ मेरे सीनियर ने जो किया वह मेरी भावनात्मक कमजोरी का ही एक नतीजा था, लेकिन आज अगर मैं बॉस की शर्तों पर समझौता कर लेती हूं तो वह मेरा नैतिक और चारित्रिक पतन होगा। इसके बाद लिबास में लिपटे होने के बावजूद मैं नंगी होऊंगी और सभ्य लोगों के बीच रहते हुए भी अपनी नजर में किसी कॉलगर्ल से ज्यादा खुद को नहीं पाऊंगी। आज मैं अपनी नजर में गिरना नहीं चाहती थी। अपनी तरफ से इस भावनात्मक रिश्ते को स्वीकृति देने और उसके बाद छले जाने से धधक भी रही थी। इसलिए विद्रोह की भवना उग्र होने लगी थी। 
‘तुम हो न। पहले सिर्फ मैं घर को चलाती थी। मेरी शादी के बाद घर को एक बेटा मिल जाएगा। मेरी और तुम्हारी दोनों की सैलरी से घर खूब मजे में चलेगा।’ मैंने कहा। 
अब मेरे सीनियर का चेहरा देखने लायक हो गया था। मानो काटो तो खून नहीं। कोई दलील नहीं सूझने पर उसने बेतूकी बातें शुरू कर दी, ‘मैं घर जमाई नहीं बनना चाहता।’ 
‘हां, कोई बात नहीं। हमलोग अलग इसी जगह पर रहेंगे। मेरी मां और भाई-बहन जहां रहते हैं वहां रहा करेंगे। हम केवल उन्हें खर्च दिया करेंगे।’ मैंने प्रस्ताव दिया। 
‘मैं क्यों तुम्हारे घरवालों को खर्च चलाने को पैसे दूंगा।’ सीनियर अब अपनी औकात पर आने लगा था। 
‘क्यों, अगर यह स्थिति तुम्हारे परिवार वालों के साथ होती तो क्या मैं सहयोग नहीं करती?’ मैंने उससे पूछा। 
मेरी दलील पर वह झल्ला गया। कहने लगा, ‘इस परेशानी में भी तुम्हे शादी की सूझ रही है। इस समस्या का हल कैसे निकाला जाए, पहले तो यह सोचना है। तुम्हे बॉस का प्रस्ताव मंजूर है या नहीं।’ 
मैं क्रोध से कांपने लगी थी। खून खौलने लगा था। सीनियर के गाल पर तमाचा जड़ते हुए बहुत तेजी से दरवाजे की तरफ गई और खोलकर लगभग चिल्लाते हुए कहा, ‘अब तुम लोगों को जो भी करना हो कर लो। पीछा किया तो पुलिस के पास जाऊंगी। रिपोर्ट दर्ज कराऊंगी।’ इसके बाद सरपट रोड पर आ गई। टैक्सी लेकर घर पहुंची। 
***
रात के 11 बज गए थे। कॉलबेल बजते ही मां ने दरवाजा खोल दिया। शायद वह दरवाजे के पास ही मेरा इंतजार कर रही थी। लड़खड़ाते कदमों को देखकर उसने सहारा दिया। मैं समझ रही थी कि मां को कुछ शक हो रहा है, लेकिन यह भी जानती थी कि जो मेरे साथ हुआ है उसका वह कल्पना भी नहीं कर सकती। मैं कमरे में पहुंचते ही बेड पर गिरी और सो गई। सुबह उठी तो पांव में जूते नहीं थे। जुराब भी नहीं। शायद मां ने उतार दिये होंगे। मां थोड़ी अनमनी थी, लेकिन उसने कोई सवाल नहीं किया। मेरा सिर फटा जा रहा था। शराब का हैंगओवर इतना कभी नहीं हुआ। रात में मेरे साथ जो हुआ था वह भी कभी नहीं हुआ। रात के दृश्य लगातार मेरे दिमाग में तैर रहे थे। अंदर ही अंदर में जल रही थी, लेकिन मेरे जलने की आंच मेरे परिवार पर न आए, इसकी भी चिंता मुझे ही करनी थी। मैंने सोच लिया था कि अब ऑफिस नहीं जाना है। अभी मैं प्रोवेशन पीरियड में थी, इसलिए नोटिस की जरूरत नहीं थी। घर से ही इस्तीफा ई-मेल कर दिया और वेतन की बाकी रकम को खाते में डालने का आग्रह भी किया। मुझे पता था इस्तीफा मंजूर हो जाएगा, सो हो गया। एचआर से फोन आया कि सप्ताह भर के भीतर हिसाब करके आपका बकाया रकम खाते में डाल दिया जाएगा। लोग इस्तीफे का कारण भी पूछ रहे थे, लेकिन मैंने उन्हें व्यक्तिगत बातते हुए टाल दिया। अब मेरी मुश्किलें और भी ज्यादा हो गई थीं। सुबह ऑफिस जाने के टाइम पर घर से नहीं निकलती तो मां परेशान हो जातीं और अगर घर से निकलतीं तो पूरा दिन कहां बीताती। खैर, मैंने तय किया कि दिनचर्या में कोई बदलवा नहीं आने दूंगी। सुबह नौ बजे घर से निकलती और जाकर किसी पार्क या लाइब्रेरी में बैठ जाती। अखबार पढ़ती और उसमें नौकरी के कॉलम से अपने लायक अवसर तलाशती। बायोडाटा पोस्ट करने के बजाय खुद ऑफिस तक जाती तो समय भी कट जाता। सप्ताह भर के भीतर घर के फोन की घंटियां बजने लग्ीं। इससे मां की चिंता भी बढ़ने लगी। बाहर से लौटने के बाद वह बताती कि इस दफ्तर से फोन आया था, वहां से चिट्ठी आई है। एक दिन उसने पूछा कि क्या मैंने नौकरी छोड़ दी है। पहले तो मैं सकपका गई, लेकिन तत्काल ही कहा कि मैं नौकरी बदलना चाह रही हूं। इसलिए कहीं-कहीं अप्लाई कर रखा है। 
महीने बीतने तक पुराने दफ्तर से हिसाब के पैसे मिल गए। इसलिए मैंने उन्हें लाकर मां के हाथों में रख दिये। लेकिन, अब अगले महीने की चिंता सताने लगी। जहां-जहां से बुलावा आया था वहां भी मेरा दुर्भाग्य काम कर रहा था। जहां मैंने अपने काम का अनुभव छह महीना बताया था, वहां साक्षात्कार लेने वाले पूछते कि इतनी जल्दी नौकरी क्यों बदलना चाहती हूं। जहां खुद को फ्रेशर बताती वहां यह सवाल उठता कि डिग्री मिलने के छह महीने बाद भी नौकरी क्यों नहीं मिली। छोटे संस्थानों में तो स्थिति और भी विचित्र थी। वहां तो मालिक से लेकर कर्मचारी तक ऐसे देखते जैसे मैं नौकरी मांगने नहीं बल्कि धंधा करने आई हूं। देखते-देखते महीना गुजर गया, लेकिन नौकरी की गुंजाइश नहीं बन पाई। स्थिति यह आ गई कि कलम, लाइटर और ट्रॉर्च जैसी सामग्री को खरीदकर ऐतिहासिक धरोहरों के पास पर्यटकों को बेचने लगी। मेरी गलती काया और फटेहाल कपड़ों को देखकर मां चीजों को समझने की कोशिश कर रही थी, लेकिन उसने कभी पूछने की कोशिश नहीं की। मैं भी अब महसूस करने लगी थी कि मां को धीरे-धीरे शक होने लगा है। खैर बचे हुए दिनों में मेहनत करके महीने के आखिरी तक तो मैंने इतने रुपये इकट्ठा कर लिये कि परिवार की दाल-रोटी चल जाती, लेकिन किराया चुकाने के पैसे फिर भी कम पड़ गए। बड़ी हिम्मत करके मैंने उपलब्ध रुपये मां के हाथों में रखे। मेरे महीने की सैलरी से काफी कम थे। फिर भी मां ने नहीं पूछा कि कम क्यों हैं। 
एक ऐसे ही दिन मैं घर लौटी तो चाय देने के बाद मां मेरे सिर पर हाथ फेरने लगी। मैंने उससे पूछा तो कहने लगी कि काफी दिनों से कुछ बात करना चाहती है, लेकिन समय नहीं मिल पा रहा था। मैं चुप रही। फिर मां कहने लगी, ‘ंमैं जानती हूं बेटी कि तुम जिस कंपनी में काम करती थी, वहां अब तेरा आना-जाना नहीं रहा। मैं यह जानना भी नहीं चाहती कि क्या हुआ, लेकिन अब जो तुम कर रही हो उससे तुम्हारे शरीर पर असर पड़ रहा है। चेहरा मलिन होता जा रहा है। अखिर तुम क्या करती हो बेटी?’ मां की बात सुनकर मन किया कि जी भरकर रोऊं, लेकिन ऐसा नहीं कर सकती थी। अभी आई कहकर मैं बाथरूम में घुस गई और वहां जीभकर रोई। थोड़ी देर बाद मुंह धोकर बाहर निकली तो मां को बताया कि अब मैं ऑफिस में ड्यूटी नहीं करती, बल्कि मार्केटिंग का काम मेरे जिम्मे आ गया है। फिर मां कुछ नहीं बोली। आगे बरसात के दिन आने वाले थे। पर्यटकों का आनाजाना न के बराबर हो गया था। इसके कारण आमदनी भी कम हो गई थी। ऐसा लगाता था जैसे इस महीने तो रोटी के बराबर भी पैसे नहीं निकल पाएंगे। इसी चिंता में घुली जा रही थी। परेशानी इतनी बढ़ गई थी कि किसी की याद तक नहीं आती। नाते-रिश्तेदार, दोस्त, शुभचिंतक कोई नहीं। यही लगता कि सब अनजान हैं और मुझे समझने वाला कोई नहीं। 
उस दिन बारिश हो रही थी। इसलिए घर थोड़ा पहले लौट आई। दरवाजे पर भाई-बहन मिले। वो खेलने जा रहे थे। अंदर आई तो देखा कि ड्राइंग रूम में भल्ला अंकल बैठे हैं। वे मेरे पिता के दोस्त थे। पापा की मौत के बाद पहली बार मेरे घर में कोई बाहर का व्यक्ति आया था। थोड़ी की खुशी हुई कि चलो इतने दिनों बाद ही सही कोई तो सुध लेने आया। मां के साथ मैंने भी खुशी जाहिर की और चाय-नाश्ता कराया। घर-गृस्थी, खर्च, परेशानी, मजबूरियां...वगरह-वगरह के मुद्दे पर बातें होती रहीं। कुछ देर रुकने के बाद भल्ला अंकल चले गये। धीरे-धीरे भल्ला अंकल का आना-जाना ज्यादा होने लगा। अक्सर मैं जब काम से लौटती को भल्ला अंकल घर पर मौजूद रहते। मेरे रुपये कम देने के बावजूद घर आराम से चल रहा था। यहां तक कि मकान मालिक का तगादा तक नहीं आ रहा था। एक दिन मैंने पूछा-‘इतने कम पैसे में घर कैसे चला ले रही हो मां?’
‘भल्लाजी थोड़ी मदद करदे रहे हैं बेटी। वैसे उनसे मदद नहीं लेती, लेकिन एक तो वह तुम्हारे पापा के सबसे करीबी दोस्त ठहरे और दूसरे तुम्हे और ज्यादा परेशान नहीं देखना चाहती।’ यह कहते हुए मां मुझसे नजरें नहीं मिला पा रही थी।
वैसे यह एक सामान्य बात थी, लेकिन मुझे अनिष्ट की आशंका होने लगी थी। मन में सवाल उठने लगे थे कि पापी की मौत के करीब एक साल बाद आखिर भल्ला अंकल की मेहरबानियां क्योंकर नसीब होने लगे हैं। चार महीने हो गये थे और मुझे अब तक नौकरी नहीं मिली थी। मुझे टॉर्च बेचकर ही काम चलाने पड़ रहा था। एक शाम जब मैं घर लौटी तो मां को सुहागिनों के जोड़े में और भल्ला अंकल को शेरवानी पहने घर में देखा। मेरे पैरों से जमीन खिसक गई। लगा कि चक्कर खाकर गिर जाऊंगी। मां मुझे संभालते हुए कमरे में ले गई। मेरे सिर पर हाथ फिराते हुए कहा- ‘मजबूरी को समझो बेटी। शादी मेरी शारीरिक जरूरत नहीं है। किस्मत तुम्हारा भी साथ नहीं दे रहा है। तुम्हारे भाई-बहनों का पालन-पोषण, पढ़ाई-लिखाई और घर का खर्च कैसे उठा पाती। भल्लाजी को भी बच्चों ने घर से निकाल दिया है। पत्नी दो साल पहले ही गुजर चुकी है। उन्हें भी सहारे की जरूरत है। एक-दूसरे का सहारा बनेंगे तो वक्त आसानी से कट जाएगा।’
मैं कुछ नहीं बोली। मां की बातें बिलकुल समझ में नहीं आ रही थीं। दिख रही थी तो मां की कृतघ्नता और भल्ला अंकल की स्वार्थपरता। रात भर नींद आंखों से गायब रही। सुबह होते ही घर से निकल गई। मेरे साथ जो भी टॉर्च वगरह बेचते थे, रूपनगर बस्ती में ही रहते थे। दोपहर तक ही उन्होंने मेरे लिए कमरे की व्यवस्था कर दी। मां रोकती रही, लेकिन जरूरी सामान लेकर मैं रूपनगर बस्ती में अपने कमरे पर शिफ्ट हो गई। 
रूपनगर बस्ती शास्त्रीनगर के मुकाबले नर्क के समान था। शराबखोरी, चोरी-चमारी, जुआ, लड़ाई-झगड़ा, गाली-गलौंच, बजबजाती नालियां, सड़क पर बहता पानी, वगरह-वगरह...यही इस जगह की पहचान बन गये थे। पहली रात तो डर के मारे लगा कि यहां रह ही नहीं पऊंगी, लेकिन मां के प्रति अथाह गुस्से ने मुझमें शक्ति भर दी। सुबह चार बजे बर्तनों की खनखनाहट से नींद खुली। मकान मालकिन ने बताया कि पानी फफर लूं, वर्ना फिर शाम में ही सप्लाई आएगी। मैं समझ गई थी कि समझौते की यह कहानी अभी यहीं खत्म नहीं होने वाली। मेरे पास अगली समस्या खाने की थी। कुछ दिनों तक बस्ती के बाहर ही कहीं-कहीं खाना होता रहा। सुबह कमरे से निकलती तो वापस रात का खाना खाने के बाद ही लौटती। जीवन की दुश्वारियों ने अब तक मझे इतना मजबूत बना दिया था कि मां, भाई और बहन की याद तक नहीं आती। 
***
रमन! वह हम में से ही एक था। हमारा ही काम करता था और हमारी ही बस्ती में रहता भी था। सामान्य शारीरिक बनावट वाले इस इंसान ने शायद वक्त से होड़ पाल रखी थी। इस बंगाली युवक का पूरा परिवार सड़क हादसे में गुजर चुका था। धन-संपत्ति की लालच में एक रिश्तेदार ने कुछ दिनों तक पनाह दी, लेकिन जैसे ही पता चला कि रमन के पापा की संपत्ति उनके बैंक के लोन की तुलना में काफी कम रह गई है तो उसने तत्काल चलता कर दिया। किताबें तो मां-पिता के साथ ही जमींदोज हो गई थीं। पल्ले शेष बची थी तो बस दुनियादारी। इसमें वह परांगत था। शिक्षा कम होने के बावजूद दुनियादारी में परांगत होने के कारण वह गुणों की खान बन गया था। खुद्दारी और परोपकार, उसके आचरण के सबसे मजबूत पहलू थे। बहुत दिनों तक उससे मेरी कोई बात नहीं हुई। वह पहला युवक था, जिसने मुझसे बात करने की  कोशिश भी नहीं की। इसलिए मेरी उसमें दिलचस्पी होने लगी थी। 
मैं बीमार पड़ गई। बुखार से तप रही थी। कमरे से बाहर जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी। दो दिनों तक जब काम पर नहीं गई तो जूही कमरे पर आ धमकी। मेरी हालत देख वह तुरंत वापस लौटी और रमन को साथ लेकर 10 मिनट के भीतर दोबारा कमरे पर आ गई। कहने लगी कि रमन पास में ही रहता है। जूही मुझसे बात करने लगी और रमन कहीं निकल गया। थोड़ी देर बाद कमरे के बाहर एक ऑटो रुका। जूही कहने लगी, रमन होगा। अब तुम्हें डॉक्टर के पास जाना ही होगा। जबरदस्ती दोनों मुझे डॉक्टर के पास ले गये। जांच रिपोर्ट में टायफायड की पुष्टि हुई। समस्या गहरा गई। कमरे पर लौटी तो और भी कुछ साथी वहां आ गये थे। सब कहने लगे कि किसी रिश्तेदार को बुला या घर चली जाओ। मैं चुप रही। कुछ समझ में नहीं आ रहा था, क्या जवाब दूं। 
‘मैं कुछ कहूं?’ रमन पहली बार इतना ही बोलकर चुप हो गया। जैसे उसे किसी के जवाब का इंतजार था। फिर बिना किसी सहमति का इंतजार किये कहने लगा-‘वैसे घर जाने या किसी रिश्तेदार को बुलाने की इतनी भी जरूरत नहीं है। हम सब हैं न। हो सकता है तुम लोगों के और काम हों और मजबूरियां भी। जिम्मेवारियां भी कई हो सकती हैं, लेकिन मैं पूरी तरह मुक्त हूं। अगर रमा को कई आपत्ति न हो तो मैं उसका ध्यान रख सकता हूं।’
‘लेकिन, तुम्हारा काम?’ सबने एक साथ रमन से पूछा।
‘मरे पास अभी इतने पैसे हैं कि महीने का खर्च और रमा के इलाज में दिक्कत नहीं आने वाली। बाद की बाद में दखेंगे।’ रमन ने बेफिक्री से कहा तो सब मेरी तरफ सवालिया निगाहों से देखने लगे। मैं चुप रही, लेकिन जूही ने पहल की, ‘यह सही रहेगा। रमन दिन में रमा की देखरेख करेगा और रात में मैं उसके साथ सोने आ जाया करूंगी।’ अब ऐसा ही होने लगा था, जैसा तय हुआ था। रमन मेरी सेवा में एक पैर पर खड़ा रहने लगा। अपनी रसोई के सामान मेरे यहां लेकर आ गया। तीनों टाइम का खाना बनाना, दूध, फल, दवाएं, सब्जी, राशन...सारी जिम्मेवारियां खुद ओढ़ लीं। मेरा स्वाभिमान मुझे चिढ़ा रहा था, परंतु जिस हाल में थी, वहां कोई दूसरा रास्ता बचा भी नहीं था। रमन काम सब करता था, लेकिन बोलता कुछ भी नहीं था। थर्मामीटर हाथ में लेकर वह जब हंसता तो मैं समझ जाती कि बुखार मापने का समय हो गया है। मैं मुंह खोल देती और वह थर्मामीटर रख देता। पांच मिनट तक छत के पत्थर गिरने के बाद वह मेरी तरफ देखता और मुस्कुरा देता। मैं समझ जाती कि वह मुंह से थर्मामीटर निकालने वाला है। दवा खिलाता और कमरे की दूसरी तरफ चटाई बिछाकर लेट जाता। कभी अखबार पढ़ता तो कभी किस्सा बत्तीसी। दस दिनों बाद जब शरीर में जान लौटने लगी तो मैंने पानी ऊबालने के लिए खुद ही स्टोव जलाने की कोशिश की। वह शांत खड़ा देखता रहा। कमजोरी इतनी हो गई थी कि पंप भी मारने में दिक्कत हो रही थी। अचानक रमन ने पीछे से मेरे दोनों हाथ पकड़े और अधिकारपूर्वक कहने लगा, ‘अभी कुछ दिनों तक और आराम कर लो। शरीर में शक्ति आ जाएगी तो स्टोव जलाना भी सीखा दूंगा।’ मैं झेंप गई और वह सहारा देते हुए मुझे मेरे बेड तक ले आया। 
दो सप्ताह में मैं खुद से चलने लगी थी। बुखार आना भी बंद हो गया था। दिन में रमन और रात में जूही की ड्यूटी पहले की तरह जारी थी। एक दिन मैंने जूही से कहा कि अब मैं ठीक हो गई हूं। तुम रमन से कह दो कि अब उसकी यहां जरूरत नहीं है। जूही मेरी तरफ इस तरह देखी, जैसे कह रही हो कि किस मिट्टी की बनी हो तुम। जिस आदमी ने दिन-रात एक करके तुम्हें नई जिंदगी दी, उसे ऐसा कहना उचित रहेगा। पैर के अंगूठे से जमीन कूरेदते हुए बोली- ‘तुम्हीं कह देना। मुझसे नहीं कहा जाएगा।’ 
***
मेरी बीमारी के तीन सप्ताह बीत गये। एक शाम रमन खाना बना रहा था। मैं साथ देने के हिसाब से कुछ-कुछ करने लगी। उसने टोका नहीं। मैंने ही उसे टोका, ‘अब मैं ठीक हो गई हूं।’
‘हां, मैं भी सोच रहा हूं कि कल से काम पर जाना शुरू कर दूं।’ रमन ने कहा। 
अगले दिन से रमन काम पर जाने लगा। उसके जाने के बाद मेरी धुकधुकी बढ़ गई। डर लगने लगा कि कहीं मैंने कुछ गलत तो नहीं कह दिया। जाने रनम शाम में मेरे पास आएगा या नहीं। किताब पढ़ते, गाना सुनते और यहां तक कि सोते हुए भी एक अजीब सी बेचैनी रही। शाम में जूही आई, लेकिन रमन का कुछ पता नहीं था। शर्म के मारे मैंने जूही से कल शाम वाली बात की चर्चा भी नहीं की। जूही अब रात में अपने घर पर ही सोती थी। थोड़ी देर रुककर वह भी अपने घर लौट गई। रमन को लेकर मेरी चिंता बढ़ती ही जा रही थी। मैं अधीर होकर अब कमरे की खिड़की पर आ बैठी। वहां से सामने की सड़क साफ दिखती थी। कुछ देर बाद रमन आता दिखाई दिया। मेरी उत्कंठा और तेज हो गई। रमन जब मेरे घर के सामने से निकल गया तो सन्न रह गई। धीरे-धीरे मेरे मन से मेरा काबू हटने लगा था। सोच रही थी कि मैं ही क्यों न उसके कमरे तक चली जाऊं। अभी तैयार होना शुरू हुई थी कि रमन आ गया। सब्जी और फल के थैले रखते हुए कहने लगा कि आज वह एक टूरिस्ट के साथ दूर निकल गया था। वह सब्जियां काटने लगा तो मैंने आंटा निकालकर गूंथने का प्रयास किया। वह देख रहा था। बोला- ‘एकदम से पानी मत डाल देना। थोड़ा-थोड़ा और जरूरत के मुताबिक ही पानी डालना।’ खाना बनने के बाद हमने हमेशा की तरह साथ ही खाय। आज जी कर रहा था कि रमन को वापस न जाने दूं, लेकिन कह न सकी। वह चला गया। सुबह उसके आने से पहले ही मैंने चाय बना दी थी। चाय पीते हुए आज उसने पहली बार बात की शुरुआत की, ‘तुम हमारे जैसी नहीं हो, यह हम सब जानते हैं। फिर भी पूछना चाहता हूं कि कहां तक पढ़ी हो।’ रमन ने जब यह सवाल किया कि सोचने लगी कि सच बताऊंगी तो कहीं वह मजाक न समझ बैठे और एक बार झूठ बोल दी तो आगे कई बार झूठ बोलने पड़ेगा। मैंने कहा- ‘एमबीए।’ उसने कोई जवाब नहीं दिया। उठकर टोकरी से सब्जियां निकाली और काटने लगा। उसकी यह हरकत मुझे भयभीत कर गई। मैं समझ नहीं पाई कि उसने क्या सोचा। अपना डर दूर करने के लिए मैंने उससे कहा, ‘क्या आगे कुछ और नहीं पूछोगे?’
‘नहीं उसकी जरूरत नहीं।’  
‘क्यों?’
‘क्योंकि, मैं जानता हूं कि फिलहाल मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता। परिवार के खत्म होने और रिश्तेदार के घर से निकाले जाने के बाद मेरी किताबों से वास्ता खत्म हो गया। उसकी का नतीजा है कि आज यहां इस अवस्था में हूं। लेकिन, तुम्हारा तो किताबों से संबंध काफी दूर तक रहा। इसके बावजूद तुम हम लोगों के साथ हो, तो जरूर कोई गहरा जख्म रहा होगा। मैं उन्हें कुरेदना नहीं चाहता।’ 
रमन कहता चला गया और मैं उसे देखती रही। उसे देखकर यह महसूस होने लगा था कि ज्ञान के लिए किताबी जानकारी भर होना काफी नहीं है। बल्कि, एक अच्छा दिल और सकारात्मक सोच वाले दिमाग का होना, उससे सहीं ज्यादा जरूरी है। परिवार को खोने के बाद जैसे उसने ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ को आत्मसात कर लिया था। जूही ने बताया था कि रमन का यह समर्पण सिर्फ मेरे प्रति नहीं है, वरन् सभी साथियों के सुख-दुख में वह ऐसे ही खड़ा होता है। और तो और अगर कोई असहाय उससे कुछ मांग दे तो वह अपनी कमाई लूटाने से जरा भी पीछे नहीं हटता। 
करीब महीने भर बाद मैं भी काम पर जाने लगी। हालांकि, रमन की दिनचर्या में अब भी कोई अंतर नहीं आया। आठ बजते-बजते वह नहाकर मेरे कमरे पर आ जाता। वहीं साथ चाय पीते, रमन खाना बनाता, मैं मदद करती और फिर साथ ही काम पर निकल जाते। एक दिन सुबह जब हम खाना बना रहे थे, तब रमन ने पूछा, ‘क्या पूरी जिंदगी टॉर्च ही बेचती रहोगी?’
‘नहीं। लेकिन, मेरे पास कोई विकल्प नहीं है।’ मैंने कहा। 
‘और ऐसे टॉर्च बेचते-बेचते विकल्प तो मिलने से रहा।’ रमन ने अपने चेहरे पर दृढ़ता लाते हुए कहा। 
‘फिर क्या कहना चाहिए?’
‘तुम्हारा जो लक्ष्य है, उसके पीछे भागो। उसे पकड़ो। उसे अपनाओ। यह टॉर्च बेचने की जिंदगी तुम्हारे लिए नहीं बनी।’ उसने उत्साहित करते हुए कहा।
‘हां, रहने-खाने की चिंता न होती तो नौकरी खोजने का काम हो सकता था। फिलहाल, दोनों चिंताओं को एक साथ नहीं झेल सकती।’ मैंने छत की तरफ देखते हुए कहा। 
‘चलो, एक चिंता तुम मुझे दे सकती हो। तुम्हारे रहने-खाने की जिम्मेदारी मेरी। मैं जानता हूं कि तुम इसे स्वीकार नहीं करोगी, मगर यह फ्री में नहीं होगा। नौकरी लगने के बाद किस्तवार खर्च चुकाना होगा। मेरी तरफ से सिर्फ ब्याज की छूट होगी। अगर मेरी शर्त मंजूर हो तो आज से ही हाफ डे के बाद नौकरी ढूंढ़ने में जुट जाओ।’ पहली बार ऐसा महसूस हुआ जैसे रमन अधिकारपूर्वक मुझे यह प्रस्ताव दे रहा हो। मैंने कहा, ‘देखेंगे।’
खाना खाकर काम पर साथ निकल गये। करीब दो बजे अचानक रमन आया और पूछने लगा कि सुबह के प्रस्ताव के बारे में मैंने क्या सोचा? और मैं वाकाई सोच में पड़ गई। उस समय जवाब नहीं दे सकी। रमन चला गया। मैं थोड़ा पहले ही कमरे पर लौट आई। मन बिलकुल बेचैन था। रमन का प्रस्ताव एक बार फिर से मुझमें जीने की तमन्ना पैदा करने लगा था। वह कामयाबीके सपने दिखाने लगा था। यही सब सोचते-सोचते न जाने कब झपकी आ गई। आंखें तब खुली जब किसी ने दरवाजे पर दस्तक दी। रमन ही था। उसने मेरी तबीयत के बारे में पूछा। मैंने कहा कि सब ठीक है। बस थोड़ी नींद लग गई थी। मैं चाय बनाने चली गई। रमन वहीं चटाई पर पालथी लगाकर बैठ गया। सब्जी काटते हुए उसने कहा कि नौकरी वाली प्रस्ताव पर वह गंभीर है। मुझे चाहे जैसे भी हो, नौकरी पानी चाहिए और बस्ती से बाहर अपनी दुनिया में लौट जाना चाहिए। मैं सिर्फ सुनती रही। जब तक वह खाना बनाता रहा और जब तक हम दोने खाते रहे, बात नौकरी की ही होती रही। तरह-तरह के तर्क, मान-मनौव्वल, तरक्की के किस्से, गरीबी की दुहाई और शिक्षा की ताकत आदि, रमन जितना समझा सकता था, उसमें कोई कसर नहीं छोड़ना चाहता था। मैं भी उसे बोलने का पूरा मौका देना चाहती थी। 
खाना खाकर वह अपने कमरे पर चला गया। मेरे अंदर की कस्मसाहट और बढ़ गई। छज्जे से अटैची उतारी। सर्टिफिकेट वाली फाइल दुरुस्त की और बायोडाटा ठीक करने लगी। रात एक बज गये थे, लेकिन नींद मेरी आंखों से कोसों दूर थी। पुरानी बातें, मौजूदा हालात और आगे की संभावनाएं, सब मन में उमड़-घुमड़ रहे थे। सुबह आठ बजे नींद तब खुली, जब रमन ने दस्तक दी। रमन खुद आज चाय बनाने में लग गया। मैं फ्रेश होने चली गई। आधे घंटे में लौटी तो रमन नमकीन के साथ चाय पी रहा था। मेरी चाय ढंकी हुई थी। मैंने उठाई तो अभी तक गर्म थी। चाय पीते हुए मैंने खाने की तैयारी शुरू कर दी। रमन ने आज नौकरी की चर्चा भी नहीं की। खाना खाने के बाद जब काम के लिए निकले तो रमन मेरे हाथ में फाइल देखकर चहक उठा। दो बजे तक टॉर्च वगर बेचती और उसके बाद कंपनियों, ऑफिसों तथा संस्थानों में अपना बायोडाटा छोड़ने जाती। मैसेज के लिए रमन का पेजर नंबर दे रखा था। तकरीबन 15 दिनों बाद एक प्लेसमेंट एजेंसी का मैसेज रमन को पेजर पर मिला। वह भागता हुआ मेरे कमरे पर आया। उस दिन हम काम पर नहीं गये। रमन मेरे साथ प्लेसमेंट एजेंसी गया। वहां पता चला कि इस एजेंसी को कोई अमेरिकन ऑर्डर मिला है। काफी लोगों की जरूरत है। जिसे लेगा उससे तीन साल का कॉंट्रैक्ट साइन करवाएगा। उसी दिन इंटरव्यू हुआ। रिजल्ट बाद में बताने के लिए कहा गया। हम वापस लौटे। आज हम दोनों खुश थे। जी चाहता था कि रमन के गले लग जाऊं। तीन दिनों बाद रमन को मेरी नौकरी का ऑफर पेजर पर मिला। हम एजेंसी में गये। सैलरी प्रोवोशन तक 10 हजार प्रतिमाह और उसके बाद 12 हजार का ऑफर था। मैं तैयार थी। उसी दिन ज्वाइनिंग करवाई गई और अगले ही दिन से काम पर जाने लगी। 
अब रमन सुबह सात बजे ही घर पर तैयार होकर आ जाता। खाना बनाता। लंच पैक करता और बस पर चढ़ाने भी साथ आता। शाम को वह मेरा इंतजार करता। आज सैलरी मिलने वाली थी और मैं बहुत खुश थी। तय कर रखा था कि सैलरी रमन के हाथों पर रख दूंगी। फिर चाहे कोई भी कुछ भी समझे। शाम में लौटते हुए मैंने ऑटो कर लिया। कमरे पर आई तो जूही इंतजार कर रही थी। थोड़ी-थोड़ी देर पर बस्ती के सारे साथी आते गये। रमन नहीं आया। अब मुझे प्यार की जगह गुस्सा आने लगा था। करीब नौ बजे रमन अपने एक अन्य दोस्त के साथ कमरे पर आया। दोनों के हाथों में दो बड़े-बड़े पॉलीथिन थे। रमन एक पॉलीथिन से एक मिठाई का डिब्बा निकाला और सबको देने लगा। आखिर में मेरे पास लाया। मन तो करता था कि मना कर दूं, लेकिन सबके सामने ऐसा नहीं कर सकी। फिर तो खाने के पैकेट और कोल्ड ड्रिंक्स निकलते गये और लोगों के सामने परोसे जाने लो। जूही ने कान में कहा- ‘खाना-पीना, तुम्हें नौकरी मिलने की खुशी में।’ मैं पिघलती गई। पार्टी के बाद रमन भी सभी दोस्तों के साथ लौटने लगा। मुझसे रहा नहीं गया। 
‘रमन तुम थोड़ी देर और नहीं रुक सकते।’ मैंने जाते हुए उसे टोका।
किसी ने कुछ भी नहीं कहा। सब चुपचाप अपने घरों को लौट गये और रमन मेरे कमरे की ओर लौटने लगा। कमरे में प्रवेश करने के बाद चुपचाप चटाई पर बैठ गया। थोड़ी देर हम दोनों जमीन को देखते रहे। मैं कमरे में रखी अटैची खोली और उसमें से सैलरी का पैसा निकालकर रमन के हाथों में रख दिया। रमन कुछ समझा नहीं। प्रश्नसूचक नजरों से मेरी ओर देखने लगा। मैंने कहा- ‘यह मेरी पहली सैलरी है। इसके हकदार तुम ही हो।’ 
रमन के चेहरे पर खुशी दौड़ गई। पैसे लौटाते हुए कहने लगा, ‘नहीं रमा। इसकी हकदार सिर्फ तुम हो। बल्कि, तुम इससे ज्यादा की हकदार हो। वह तो वक्त-वक्त की बात है कि तुम्हें यहां इतने दिन गुजारने पड़े। अब तुम अपनी दुनिया में लौट जाओ। यह दुनिया तुम्हारे लिये नहीं बनी हुई है।’
‘और तुम?’
‘मेरी दुनिया तो यहीं बस गई है। अरसा बीत गये। यहां से निकला ही नहीं। आगे न तो कोई रिश्तेदार बचा है न ही ऑफिस वगरह का चक्कर है। इसलिए मैं यहां बिलकुल सुकून से हूं। हां, कल से तुम्हारे लिए जवाहरनगर में फ्लैट ढूंढ़ने की कोशिश शुरू कर दूंगा। बहुत जल्दी मिल जाएगा।’ उसने पहली बार मेरे चेहरे से चेहरा मिलाकर भावुकतापूर्वक यह बातें कहीं। 
‘नहीं रमन, अब मैं ऐसा नहीं कर सकती। तुम लोगों ने यहां पर इतना कुछ मेरे लिये किया है कि अब सबकुछ छोड़कर अलग दुनिया बसाना मेरे लिए न तो संभव है न ही मुनासिब। सबसे अहम बात यह है कि मेरी नौकरी का सपना तुमने देखा था। हम दोनों ने मिलकर कोशिश की थी और अब मैं अकेले इसका सुख अकेले भोगूं तो मुझसे ज्यादा कमजर्फ कोई हो नहीं सकता।’ बोलते हुए मेरी आवाज रुंध रही थी। 
‘ऐसा नहीं सोचते रमा। जरा इसे दूसरे तरीके से देखो। तुम तो जानती हो कि यह बस्ती नहीं, बल्कि गरीबी का समंदर है। यहां का रास्ता अब तक वनवे था। यहां लोग बुरे वक्त में पनाह लेने के लिए आते हैं, लेकिन वह बुरा वक्त खत्म तभी होता है जब उसके शरीर से रूह निकल जाती है। तुम पहली हो जो जीते जी यहां से निकल रही हो। यह हम लोगों के लिए गर्व की बात है। बल्कि, यूं कहें कि तुम बस्तीवासियों के लिए उदाहरण हो। तुम यहां रह रहे हजारों लोगों की उम्मीद बन चुकी हो। तुम्हें उनकी उम्मीदों को तोड़ने का हक नहीं। मेरे-तेरे के चक्कर में फंसी रहोगी तो निश्चित तौर पर यहां के लोगों की उम्मीदें टूट जाएंगीं। हां, वक्त ने चाहा और किस्मत ने साथ दिया तो तुम्हारी तरक्की के रास्ते पर और भी लोग चलने लगेंगे। जहां तक मेरा सवाल है, मैं अभी तुम्हारे साथ नहीं जा सकता। मैं यहां रहते हुए परेशानी में कई लोगों के काम आ जाता हूं। खासकर अकेले रहने वाले लोगों की मैं उम्मीद हूं। जब तक मेरे जैसा कोई यहां खड़ा नहीं हो जाता, मैं कहीं नहीं जा सकता।’
मैं समझ चुकी थी कि रमन ने मेरे लिए जो कुछ तय कर दिया था वह लोगों की भावनाओं के साथ जुड़ गया है। यह भी समझ चुकी थी कि बस्ती के अच्छे लोग तो अच्छे हैं ही, जुआरी, शराबी और हुड़दंगाइयों के सीने में भी एक ऐसा दिल है जो दूसरों की तरक्की पर जलता नहीं, उसमें अपनी परेशानियों की समाप्ति का लौ ढूंढ़ता है।
सप्ताह भर के भीतर जवाहरनगर में कमरा मिल गया। रमन ने बिना मुझसे कुछ कहे उसमें जरूरत की चीजें लाकर रख दीं और वह दिन भी आ ही गया जब मुझे विदा करने के लिए बस्तीवासी उमड़ पड़े। इनमें से ज्यादातर चेहरे ऐसे थे, जिन्हें मैं निश्चित तौर पर नहीं जानती थी। महिलाएं मुझे आशाभरी निगाहों से देख रही थीं। जब ऑटो में सवार होकर निकलने लगी तो बच्चों ने हाथ हिलाते हुए कहा-आती रहना दीदी। करीब सप्ताह भर तक रमन काम के बाद सात बजे तक मेरे कमरे पर चला आता। वहीं दोनों खाना खाते और फिर वह बस्ती लौट जाता। सच तो यह था कि अब रमन को आने में देर होती तो मेरी बेचैनी बढ़ जाती थी। एक-दूसरे के प्रति समर्पण का यह भाव अब तक शब्द रूप नहीं ले सका था। मैं देना भी नहीं चाहती थी। शायद रमन भी ऐसा ही चाहता था। 
सप्ताह भर बाद रमन ने एक दिन अचनाक कहा, ‘अब तो तुम खाना बनाना जान गई हो। तुम जिस समाज का अब हिस्सा हो, वहां अकेली लड़की के यहां किसी युवक का आना-जाना लोग बुरा मानते हैं। मैं जब सीढ़ियां चढ़ता हूं, तब तुम्हारे पड़ोसी अजीब नजरों से देखते हैं। अगर यही सिलसिला जारी रहा तो संभव है कुछ दिनों में लोग तुम्हें ताने भी मारने लगें। इसलिए अब कभी-कभी आया करूंगा।’ 
इसके बाद वह यदाकदा मेरे फ्लैट के नीचे आता। बेल बजाकर वह इंतजार करता। हम पार्क में जाते। बाहर ही खाना खाते और मैं अपने कमरे पर लौट जाती। रमन अपनी बस्ती का रुख कर लेता। रमन के दूर होने का एहसास अब ज्यादा सताने लगा था। अकेला घर काटने को दौड़ता। ऑफिस में भी काम का आनंद नहीं आ पाता। रमन से मुलाकात किये हुए करीब 10 दिन हो गये थे। 
***
उस दिन ऑफिस की तरफ से टर्मएंड पार्टी दी गई थी। दोपहर बाद कुछ काम नहीं होने वाला था। पार्टी में चेहरा दिखाकर मैं वहां से खिसक ली। करीब दो बज रहे थे। अमूमन बस स्टैंड पर कोई न कोई बस्तीवाला मिल ही जाता था, लेकिन आज वहां कोई नहीं था। मैंने ऑटो लिया और सीधे बस्ती पहुंच गई। ऑटो से उतरते ही बच्चों ने घेर लिया। काफी दिनों बाद आई हो दीदी। मैंने टॉफियां ले रखी थीं। बच्चों में बांट दी। मैं रमन के कमरे की तरफ बढ़ चली। दरवाजा भीतर से बंद था। कई बार खटखटाने पर दरवाजा खुला तो मुंह से जैसे चीख निकल गई। रमन का चेहरा एकदम काला पड़ गया था। शरीर बेजान हो गया था। चेहरे पर जबरदस्ती मुस्कान लाने की कोशिश करते हुए रमन ने कहा-‘अंदर आ जाओ।’ बिना कुछ जवाब दिये अंदर चली गई और वहां पड़े मोढ़े पर बैठ गई। 
‘चिंता की कोई बात नहीं। टायफायड है। डॉक्टर को दिखा दिया है। जल्दी ठीक हो जाऊंगा। तुम परेशान हो जाती, इसलिए किसी ने तुम्हें सूचना नहीं दी। मैं सोच रहा था कि ठीक होकर खुद ही तुम्हें बता दूंगा। बस्तीवाले बहुत ही अच्छी तरह देखभाल कर रहे हैं। जूही के यहां से खाना आ जाता है। दवाएं वगरह अन्य दोस्त दे जाते हैं। तुम बताओ, कैसी हो?’ 
रमन ने धीमी-धीमी आवाज में बातें खत्म की तो वह हांफ रहा था। मेरा गुस्सा चरम पर था। चिंता का ठेका जैसे इसी ने ले रखा था। मैं बीमार थी तो इसने काम छोड़ दिया था और खुद बीमार पड़ा तो बताने से भी लोगों को मना कर दिया। क्या मैं इतना खुदगर्ज हूं? क्या हमारे संबंधों के डोर को रमन इतना कमजोर समझता है? गुस्सा और सवाल इतने थे कि मुंह से बोली तक नहीं निकल रही थी। मेरी आंखें भर आई थीं। इसलिए अपना चेहरा दूसरी दीवार की तरफ कर ली। रमन इस बात को समझ गया। वह कुछ न बोला। दीवार के सहारे बैठा रहा। थोड़ी देर बाद जब गुस्सा शांत हुआ तो हाथ लगाकर मैंने ही उसका बुखार देखा। शरीर गर्म था। उससे डॉक्टर की पर्ची ली। दवाएं अभी थीं। रसोई गंदी पड़ी थी। बिस्तर भी गंदे थे। लगता था रमन ने कई दिनों से कपड़ा तक नहीं बदला था। मैंने उसकी दराज से कपड़े निकालते हुए उसे थमाया और बदलने के लिए कहा। बेडशीट निकालकर बदल दिया। कमरे को थोड़ा व्यवस्थित करते हुए रसोई को ठीकठाक कर दिया। इसके बाद दुकान पर गई और राशन-पानी की व्यवस्था कर लौटी। जूस व दूध भी साथ ले आई। जिद करके रमन को पिलाया। जूही समेत कुछ और दोस्त तब तक कमरे पर आ चुके थे। रात का खाना बनाई और रमन को खिलाया। खुद खाकर जब थाली रसोई में रख आई तो रमन ने पूछा-‘लौटने में परेशानी होगी न? ऐसा करो आज तुम जूही के साथ रुक लो।’
‘नहीं मुझे कोई परेशानी नहीं होगी। जूही मेरी दोस्त है। उसके घर पर रुकने के लिए तुम्हारे कहने की जरूरत नहीं है, लेकिन जब तक तुम ठीक नहीं होते मैं कहीं नहीं जा रही। यहीं रहूंगी, तुम्हारे साथ। किसी को कोई आपत्ति तो नहीं?’ मैंने दृढ़तापूर्वक रमन से आंखें मिलाते हुए जब यह बात कही तो सब ने हां में हां मिलाई। दो सप्ताह तक मैं अपने फ्लैट पर नहीं गई। सुबह खाना बनाकर ऑफिस जाती और शाम में लौटते हुए जरूरत की चीजें लेकर आ जाती थी। धीरे-धीरे रमन ठीक हो गया। काम पर भी जाने लगा। एक दिन खाना खाकर मैं सोने की उपक्रम में थी तो रमन ने कहा-‘आज मैं तुम्हारे कमरे पर गया था। पता चला पिछले पंद्रह दिनों में वहां सिर्फ एक दिन तुम गई हो और बिना किसी को कुछ बताये बैग लेकर लौट आई हो। तुम्हारी मकान-मालिकिन परेशान हैं। कम से कम तुम्हें उनको बता देना चाहिए था कि तुम यहां हो।’ 
‘हां, जरूर बता दूंगी।’ मैंने कहा और चादर तान कर सो गई। इस बीच बस्ती में मकान मालिक से मैंने रमन के ऊपरवाला कमरा किराये पर ले लिया था। दो दिनों बाद मैंने जवाहरनगर वाली मकानमालकिन से हिसाब किया और खुद ही सामान लदवाकर रमन के कमरे पर चली आई। उस समय वह घर पर नहीं था। सामान उतरवाकर अपने कमरे में रख दिये। उसके रसोई का सामान भी अपने किचेन में लेती चली गई। वहीं जाकर खाना बनाने लगी। शाम को जब रमन काम से लौटा तो मेरे कमरे पर आ गया। खुद ही बोतल से पानी पिया और चुपचाप मोढ़े पर बैठ गया। कहने लगा यह मैंने ठीक नहीं किया। मुझसे बस्तीवालों की कितनी उम्मीदें थीं और मैंने उन्हें सहज ही तोड़ दी। इसके बाद वह कुछ नहीं बोला। चुपचाप बैठा रहा। रोजाना सुबह-शाम खाने के लिए आ जाता। मैं कुछ पूछती तो सही से जवाब भी नहीं देता। इस बीच मैंने उसे खुश करने की एक तरकीब निकाली। 
***
बस्ती में कोई स्कूल नहीं था। बच्चे जब छह-सात साल के हो जाते तो उनका दाखिला दो किलोमीटर दूर खैराती स्कूल में कोई-कोई करवा देता। जब वह दस-बारह साल के होते तो खुद को स्कूल जाने के झंझट से मुक्त कर लेते और परिजनों की जिम्मेवारियों में हाथ बंटाते। कुछ दिनों तक गैराज, ठेले, चाय दुकान आदि पर काम करते और बाद में किसी अन्य पेशे में घुस जाते। बस्ती में घुसते ही एक प्लॉट खाली पड़ा था। वहां लोग कचरे डालते थे। मैंने लोगों की सहायता से उस जमीन को साफ करवा दिया। वहां पर ऐसी व्यवस्था कर दी कि दरी बिछाकर बैठा जा सकता था। उस जगह पर मैंने पाठशाला चलाने की घोषणा कर दी। रविवार को उसका उद्घाटन होने वाला था। रमन से मैंने वहां आने की गुजारिश की। उद्घाटन के मौके पर वह आया भी। कुछ बल्लियां गड़ीं थीं और उस पर पताके लहरा रहे थे। दो बल्लियों पर फीता लगा हुआ था। सब बात करने लगे कि फीता कौन काटेगा। रमन पर नजर पड़ते ही सबने एक स्वर में कहा कि फीता वह काटे। थोड़ी सी नानुकुर के बाद उसने फीता काट दिया। 
स्कूल में मैं सुबह-शाम दो-दो घंटे बच्चों को पढ़ाने लगी। इससे उत्साहित बस्तीवासियों ने उस जमीन को कटींले तार से घिरवा दिया। वहां तंबू लगा दिया। लोग उस स्कूल को मंदिर और मस्जिद मानते हैं। बच्चा हो या बूढ़ा जो भी वहां से गुजरता है उसका सिर अपने-आप सम्मान में झुक जाता है। बच्चे मुझे दीदी कहते हैं, बूढ़े बिटिया और हमउम्र बहन कहकर बुलाते हैं। मेरी एक छींक पर लोग परेशान हो जाते हैं। ...अच्छा, हेमंत अब मैं चलती हूं। जब तक बस्ती पहुंचूंगी स्कूल का टाइम हो जाएगा। 
रमा की कहानी सुनते-सुनते हेमंत और उसकी पत्नी रीना मानो किसी सपने की दुनिया में खो गये थे। रमा को सोफे से उठता देख सकपका कर उठे। हेमंत काफी भावुक हो गया था। उसका वश चलता तो रमा को जाने ही नहीं देता, लेकिन जानता था कि वह रोके न रुकेगी। वह कुछ ऐसी बात भी नहीं करना चाहता था, जिससे रमा के स्वाभिमान को ठेस लगे। इसलिए वह चुपचाप रमा के पीछे हो लिया। तीनों जब दरवाजे पर पहुंचे तो रीना ने रमा से कहा, 
‘देखो, बुरा मत मानना। मेरी तरफ से एक प्रस्ताव है। तुम अगर चाहो तो तुम्हारी बस्ती के बच्चों के स्कूल को हेमंत पक्का करवा देंगे। इससे उन्हें सुविधा होगी।’
‘धन्यवाद रीना। मैं जानती हूं कि तुम और हेमंत मेरे सच्चे हितैषी हो, लेकिन इस मामले में मेरा विचार थोड़ा अलग है। बस्ती की दुनिया कभी हमारी न थी, लेकिन जब मैं वहां पहुंची तो इतना प्यार मिला कि गरीबी के उस समंदर का हिस्सा बन गई। जितनी मदद तुम लोग करना चाहते हो उतनी तो वोट के नाम पर कोई भी नेता वहां के लोगों की कर देगा, लेकिन सवाल यही है कि बस्तीवासी कब तक खैरात की जिंदगी जीते रहेंगे। नेताओं, अमीरों और कथित धार्मिक लोगों ने वहां के लोगों को अब तक अपने पैरों पर खड़ा ही नहीं होने दिया। बस्तीवासियों को दान देने के लिए सबके पास कोई न कोई योजना है लेकिन, उन्हें उनके पैरों पर खड़ा होने लायक बनाने की योजना किसी के पास नहीं। मैं नहीं कहती कि सिर्फ बच्चों को पढ़ाने या उनकी मदद करने से उनके अंदर स्वालंबन की भावना पैदा होगी, परंतु इतना जरूर जानती हूं कि तिनका-तिनका जोड़ने से घरौंदा बन जाता है। अभी गरीबों के उस घरौंदे का हम और रमन सिर्फ तिनका भर हैं। उसी बस्ती से जब हम जैसे कुछ और तिनके हमसे जुड़ जाएंगे तो निश्चित तौर पर वहां स्वालंबन की लहर चल पड़ेगी। खैर, तुम दोनों का बहुत-बहुत शुक्रिया। और हां, रमन तुमसे एक आग्रह है। उस बस्ती के पास कभी भूल से भी मुझे ढूंढ़ने मत पहुंचना। न ही किसी से मेरे बारे में जिक्र करना। पग-पग पर धोखा खाने वाले बस्तीवासियों के बीच बहुत मुश्किल से विश्वास जमा पाई हूं। अगर वो जान जाएंगे कि मैं तुम्हारे समाज का हिस्सा हूं तो वे फिर एक बार खुद को छला हुआ महसूस करेंगे। बाय....’ रमा तेजी से गेट से निकल गई। हेमंत और रीना दोनों उसे अपक देखते रहे। जब वह आंखों से ओझल हो गई तो हेमंत ने रीना से कहा...मुझे छोटी रमा चाहिए। उतनी ही आदर्शवादी...व्यावहारिक...धुनी और साहसी...। 


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चवन्नी की बादशाहत

उम्र करीब 11 साल। नन्ही-नन्ही आंखें। पतला चेहरा और दुबला शरीर। रंग साफ। बाल बिखरे हुए। शरीर पर नीलदार सफेद गंजी (बनियान) और नीचे हाफ पैंट। ऐं...जरा घुमना। ये क्या पैंट के पीछे पैबंद। नाम अभी रहने दीजिए। वैसे भी नाम में क्या रखा है। जिद्द करिएगा...तो चलिए पप्पू ही मान लीजिए।
आप यही सोच रहे होंगे न कि यह पप्पू कुल्फी वाले रिक्शे के पीछे गर्मी की चिलचिलाती दोपहर में रोजाना भला क्यों भागता है। मुहल्ले के ज्यादातर लोग भी यही सोचते हैं। एक-दो लोगों ने तो टोका भी। लेकिन...पोंं$$$...पों$$$...पों$$$...की आवाज जब उसकी कानों में पड़ती है तो जैसे उसे बेचैनी होने लगती है।
बीच दोपहर घर में सब सो रहे हैं। मुहल्ले में सन्नाटा पसरा हुआ है। बीच-बीच में आने-जाने वाले लोगों की साइकिल की घंटी सुनाई पड़ती या फिर उस सन्नाटे को कुल्फी वाले का भोंपू तोड़ता है।
मोहल्ले के बीच में पड़ने वाले बरगद के पेड़ के नीचे ठीक दो बजे कुल्फी वाला ठेली लगा देता है। इसके बाद पांच-दस मिनट के अंतराल पर पोंं$$$...पों$$$...पों$$$...। थोड़ी देरी बाद ही बच्चों का निकलना शुरू हो जाता है। चार आना (25 पैसे), आठ आना (50 पैसे), एक रुपये और दो रुपये...यही रेट हैं कुल्फी के। वैसे दो रुपये वाला बिस्कुटनुमा कप (कोण) वह कभी-कभी डेढ़ रुपये में भी दे देता है। भोंपू सुनते ही पप्पू की अकुलाहट बढ़ जाती। वह घर से बाहर निकलने की युक्ति ढूंढ़ने लगता। थोड़ी देर की कवायद के बाद जब उसे सफलता मिलती तो वह कमान से छूटे तीर की तरह भागकर कुल्फी की ठेली के पास पहुंच जाता।
Teenchauthai Stories 
सामान्यतौर पर जब पप्पू कुल्फी वाले के ठेले के पास पहुंचता तब कुल्फी वाले के सिवा वहां कोई नहीं होता। फिर शुरू हो जाती कुल्फी वाले के साथ गलचौरी (बतकही)। लाइट तो रहती ही नहीं है...फिर घाटी में लगता है कोई तार काट लिया है...गर्मी भी विकट पड़ रही है...बहुत सारा बच्चा सब तो गांव चला गया है...ज्यादा आदमी सब आम पर जोर दे रहा है...आदि...आदि...न जाने पप्पू कुल्फी वाले के साथ गलचौरी के कितने मुद्दे ढूंढ़ लेता। बातें तो इतनी होतीं कि खत्म होने का नाम नहीं लेतीं, लेकिन नजरें...हमेशा कुल्फी के उन कपों पर टिकी होतीं जो ठेली के ऊपर टिकी होती थीं।
साढ़े तीन-चार बजते-बजते मुहल्ले के बच्चों का ठेली के पास आना शुरू हो जाता। अनुपम, अटल, रवींद्र, पंकज, राजेश के लिए तो कुल्फी खाना दिनचर्या का हिस्सा सा बन गया था। कोई चार आने वाली तो कोई आठ आने वाली तो कोई एक रुपये वाली कुल्फी करीब-करीब रोज ही खाता। और पप्पू...उन्हें खाता देखने मात्र से खुश हो जाता...। हालांकि, दूसरे को खाता देख खुश होने के लिए पप्पू के पास वजह भी थी।
बोहनी (धंधे की शुरुआत) और मंगनी (अच्छी बिक्री पर बच्चों को खुश करने के लिए दिये जाने वाला बहुत ही छोटा हिस्सा) शब्द का मतलब और उपयोग पप्पू बहुत करीने से जानता था। जब ग्राहकों की संख्या बढ़ने लगती तो पप्पू के चहरे की चमक तेज होने लगती। एक औसत बिक्री तक पहुंचने के बाद पप्पू कहता ‘अरे! मंगनी नहीं दीजिएगा क्या?’ बिक्री से खुश कुल्फी वाला भी थोड़ी सी कुल्फी उसके हाथ पर रख देता। और ये गप्प...पप्पू बिना इधर-उधर देखे कुल्फी गटक जाता।
वैसे पप्पू को भी पता था कि मंगनी वाली बात की जानकारी अगर पापा-मम्मी को हो गई तो खैर नहीं। वह यह भी जानता था कि यह जानकारी देर-सवेर पापा-मम्मी को होनी ही थी। अनुमपन नहीं तो अटल, नहीं तो पंकज, नहीं तो रवींद्र, कोई न कोई तो किसी न किसी दिन बता ही देगा। लेकिन, लड़कपन की लालच पर वह लगाम नहीं लगा पाता। अब इससे आगे पप्पू से ही सुनिये उसकी कहानी :-
मुझे तो कुछ याद नहीं, लेकिन लोगों को कहते सुना है। तब मैं बहुत छोटा था। उसी समय पापा-मम्मी (पालनहार) मेरे पापा-मम्मी (जन्मदाता) से मांगकर लाये थे। इसके बाद से परवरिश यही पापा-मम्मी कर रहे हैं। इनके बेटे और बेटियां भी हैं, लेकिन प्यार मेरे हिस्से में भी बराबर ही आता है। मेरे ये पालनहार बड़े विशाल हृदय वाले हैं। वर्ना, आज के दौर में पराये बच्चे की परवरिश किनता असहज है, आप तो जानते ही ही हैं। मामूली सरकारी नौकरी के बूते अपने आधा दर्जन बच्चों की परवरिश और शादी-विवाह के बीच मेरी पढ़ाई, खाना-पीना और कपड़ा-लत्ता का खर्च मेरे पालनहार कैसे उठाते हैं, कभी-कभी मैं उनके माथे पर बनी चिंता की लकीरों से महसूस करने की कोशिश करता हूं। पालनहार मानते हैं कि बड़ी दीदी काफी होशियार हैं। इसलिए उनकी बातों को भी मानते हैं।
मैं बेंच वाले स्कूल में पढ़ता था। तब बड़ी दीदी ने पापा से कहा- झूठमूठ का पैसा बर्बाद हो रहा है। सभी स्कूलों में एक जैसी पढ़ाई होती है। और बेंच वाले स्कूल को हमने अलविदा कह दिया। नया सरकारी स्कूल थोड़ा अजीब था। बैठने के लिए बोरा (खाली कट्टा) साथ ले जाना पड़ता था। वैसे कोई नई बात नहीं है। मुहल्ले के ज्यादातर बच्चे उसी स्कूल में पढ़ते हैं। हां, बड़ी दीदी की बेटी जो मेरी उम्र की ही है, वह बेंच वाले स्कूल में पढ़ने जाती है। उसके पापा भी सरकारी नौकरी करते हैं। शायद इसीलिए।
मेरे जन्म देने वाले पापा किसान हैं। ज्यादातर किसान गरीब होते हैं, आप इसे मानेंगे ही। मेरे पापा भी इन्हीं गरीब किसानों में से एक हैं। लेकिन, मुझे इसका कोई मलाल नहीं। उनके गंदे कपड़े हमेशा मुझे सम्मोहित करते हैं। उनके पैरों की बिवाई में गजब का आकर्षण है। ...और उनके चेहरे का लावण्य, वह तो मुझे वरदान में मिला है। मैं अंतर नहीं कर पाता कि दोनों पापा (जन्मदाता और पालनहार) में से मैं किससे ज्यादा प्यार करता हूं। दोनों का त्याग विरल है।
बड़ी दीदी की बेटी है न, वह भी लगभग रोज ही कुल्फी खाती है। मम्मी (पालनहार) कहती हैं कि उसके पापा ने उन्हें पैसे दे रखे हैं। अब उसके पापा ने पैसे दे रखे हैं। मुझे भी इसका कोई मलाल नहीं कि वह रोज ही कुल्फी खाती है। इसमें भी मेरा हित है। जब-कभी वह भी अपनी कुल्फी से थोड़ा बहुत मुझे दे ही देती है। कई बार डांट भी देती है- क्या टुकूर-टुकूर देखते रहते हो। बुरा तो लगता है लेकिन, उससे पंगा लेने से कोई फायदा भी तो नहीं है। हालांकि, एक बार तो मैंने पूछ भी दिया था- कभी खुद ही बुलाकर कुल्फी देती हो और कभी डांट देती हो। मामा के साथ कहीं कोई ऐसा व्यवहार करता है। और वह बस हंस देती...हा...हा...हा...
वैसे बड़ी दीदी की बेटी यानी मेरी भांजी अकेली नहीं जो मुझे कुल्फी खिलाती है, अनुपम और पंकज भी कभी-कभी अपनी कुल्फी में से थोड़ा बहुत मुझे दे देते थे। कभी-कभी मुझे भी चार आने मिल जाते हैं। उस दिन तो याचक से अचानक मैं बादशाह बन जाता हूं। लेकिन, इस चवन्नी की बादशाहत के बीच भी मैं होश नहीं खोता। मुझे पता है कि इस चवन्नी की बादशाहत तो महीने में कभी-कभी आती है, बाकी दिनों में तो अपने संगी-साथी ही काम आएंगे। इसलिए चवन्नी में उनकी भी हिस्सेदारी बराबर का रखता। यकीन मानिए, वह चवन्नी वाला दिन मेरे लिए बहुत ही महत्वपूर्ण होता है। सारी जहालत उतर जाती है। आखिर कोई कितने दिनों तक एहसान पर जी सकता है। मुझे पता है कि रोजाना के एहसान का बदला एक दिन में नहीं उतारा जा सकता। फिर भी दिल को थोड़ी तसल्ली मिल जाती है।
एक दिन अनुपम ने पूछा-
‘तुम्हे पैसे क्यों नहीं मिलते?’
‘मैं मांगता ही नहीं।’
‘फिर दूसरे से कुल्फी मांगते अच्छा लगता है?’
‘मैंने कभी किसे से कुल्फी नहीं मांगी।’
‘लेकिन, लोग देते हैं तो मना भी तो नहीं करते।’
‘क्यों मना करूं। बागीचे से अमरूद तोड़कर भी तो तुम लोगों को देता हूं। शरीफा नहीं खाते मेरे बाग का।’
हालांकि, मेरा दिल जानता है कि अनुपम से कही गई सारी बातें सच्चाई से भरी हुई महज खोखली दलीलें ही तो हैं। लेकिन, जिन लोगों के बीच रहना है, उसके सामने मजबूर और बेचारा बनकर मैं रहना नहीं चहता। महसूस करता हूं कि मजबूरी और बेचारगी समझकर समाज के लोग सहानुभूति भर रख सकते हैं, वह भी थोड़ी देर भर के लिए। ...और मुझे तो समाज से बराबरी का हक चाहिए। मैं समाज के हर उस व्यक्ति की आंखों में आंखें डालकर बातें करना चाहता हूं, जिसकी समाज में पूछ है। और इसके लिए मेरे पास बातों, दलीलों और तर्कों के सिवा कुछ भी नहीं। इन बातों, दलीलों और तर्कों ने मेरे चरित्र और स्वभाव को और दृढ़ बना दिया।
दृढ़ता इतनी कि महीने में एक-आधा बार चवन्नी पाने वाला मैं लगभग रोज ही साथियों को धौंस देता। ‘देखना जिस दिन मेरे पास डेढ़ रुपये होंगे न, उस दिन बिस्कुट वाली कुल्फी खरीदूंगा और सबको खिलाऊंगा।’
साथी पूछते-लेकिन, वह होगा कब?
‘बहुत जल्द।’
‘बिस्कुट वाली कुल्फी तो दो रुपये में मिलती है न।’
‘हां। लेकिन, कुल्फी वाले से मेरी दोस्ती हो गई है। वह कहता है कि डेढ़ रुपये में ही दे देगा।’
‘अच्छा। चलो देखेंगे।’
मई महीन के 15 दिन बीत चुके हैं। दिन के करीब 12 बजे थे। मैं बाजार से लौटा हूं। दीदी की बेटी के लिए कुछ सामान ले कर। सामने की खाट पर पापा (जन्मदाता) को बैठा पाया। गांव से आये हैं। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। दो-तीन महीने बाद उनसे मिला हूं। पैर छूआ और मां के बारे में पूछा। सब ठीक हैं, उन्होंने बताया। ...फिर इधर-उधर की बातें। पापा के साथ ही खाना खाया। पाहलनहार कहीं गए हुए हैं। इसलिए पापा से उनकी भेंट नहीं हो सकी।
खाना खाने के बाद पापा चलने को हुए तो मैं भी उनके साथ हो लिया। रास्ते में पों$$$ की आवाज सुनाई दी तो मैं ठिठक गया। पापा आपके पास कितने रुपये हैं?
‘पांच रुपये। क्या बात है?’ पापा ने मेरी तरफ देखते हुए पूछा।
‘कुछ नहीं। बस यूं ही।’ मैंने कहा।
‘नहीं-नहीं, बताओ क्या बात है?’ पापा ने जोर देते हुए कहा।
‘कुछ नहीं, कुल्फी खानी थी। लेकिन, रहने दीजिए।’ मैंने कहा।
‘क्यों?’ पापा ने आश्चर्यमिश्रित भाव से पूछा।
‘वह डेढ़ रुपये की मिलती है और आपके पास किराये के पैसे कम पड़ जाएंगे।’ मैंने कहा।
पापा चुप हो गये...बिलकुल चुप...। थोड़ी देर खड़े रहे। फिर, अपने हाथों में मेरा हाथ लेकर हल्की-हल्की थपकियां देने लगे और चेहरा आसमान की ओर कर लिया। थोड़ी देर तक हम दोनों उस बरगद के पेड़ के नीचे यूं ही खड़े रहे। फिर, पापा ने अपना चेहरा मेरी ओर किया। उनकी आंखें लाल थीं और नम भी। कुछ देर तक मुझे अपलक निहारते रहे। जैसे वे मुझसे कुछ कहना चाहते हों और शब्दों में रिक्तता आ गई हो...
पों$$$ कुल्फी वाली ठेली बिलकुल करीब आ गई थी। आवाज सुन पाया जैसे जागे। कुर्ते की जेब में बाईं हाथ डाला और बिस्कुट का पैकेट निकालकर दिया...मां ने भेजा है। मैं खुशी से उनकी कमर को पकड़ लिया। पापा ने वादा किया, अगली बार आएंगे तो कुल्फी के पैसे बचाकर लाएंगे। मैं वहीं रुक गया। पापा आगे बढ़ने लगे। मुहल्ले के मोड़ तक पहुंचते-पहुंचते उन्होंने न जाने कई बार मुड़कर मुझे देखा। उस दिन दोस्तों के बीच मैं मेजबान था। एक-एक, दो-दो बिस्कुट सबके हिस्से में आए। लेकिन, बिस्कुट खत्म होते ही दोस्तों का वही सवाल:-
‘डेढ़ रुपये नहीं मिले क्या?’
मेरा भी वही जवाब, ‘मैंने मांगा ही नहीं...’







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