मेरी मां
जमाने भर की नजरों से बचाया तुमने खुद के दम पर
सही क्या है और गलत क्या, अब तक बताती हो।
सिखाया तूने ही हुनर जीने का जमाने में अनहद
मुश्किलों के तूफां में तुम्हीं तो लौ दिखाती हो।
तुमसे दूर हैं, मजबूर हैं, लेकिन यकी मानो
मेरे उर के अंतर में तुम वास करती हो।
साल का एक दिन तुम्हारे नाम का क्या करना
ऐ मां, मेरे हर सांस में तुम्हीं तो जान भरती हो।
***********************************************
साथी! तुम जिंदा रहोगे...
साथी! तुम जिंदा रहोगे,
तब तक..., जब तक

रोहित वेमुला की याद में
कवि मन / कुणाल देव
तुम्हारी चिता की आग
मुद्दा बनकर लोगों
के जेहन में कौंधती रहेगी.
तब तक..., जब तक
प्राइम टाइम के लिए
कोई दूसरा और श्रेयस्कर
मुद्दा नहीं मिल जाता.
तब तक..., जब तक
तुम्हारी लाश पर
पैर रखते हुए कोई
सियासतबाज सत्ता
के गलियारे तक नहीं पहुंच जाता.
तब तक..., जब तक
तुम्हारा कोई दोस्त
तुम्हारी मौत के बदले
सुकून व सम्मान की
जिंदगी नहीं पा लेता.
और शायद तब तक...
जब तक तुम्हारी याद
तुम्हारे माता-पिता
के दिल में
हूक बनकर उठती रहेगी.
लेकिन, यकीन मानो साथी
माता-पिता की हूक से
मुझे या दुनिया को
कोई वास्ता नहीं.
मेरे लिए तुम कविता का
विषय भर हो
और दुनिया के लिए
मुद्दा भर.
यहां रहते जो बातें
तुम जान न सके
समझ न सके
पहचान न सके,
उन्हें शायद अब
समझ पाते
होगे हमसे बेहतर.
तुम समझ रहे होगे
उन दोस्तों की हकीकत
जो मौत के बाद सबसे
करीबी बने हुए हैं तुम्हारे,
जो तुम्हें सदमे के
दौर में, नहीं दे सके दिलाशा
समझा न सके
जिंदगी का मतलब.
यहां तक कि
तुम्हारे हित में
किसी काउंसलर, साइकैट्रिस्ट
की नहीं ले सके मदद.
साथी! तुम जिंदा रहोगे
तब तक..., जब तक
छात्र सियासी मौत
मरते रहेंगे...संदर्भ के रूप में.
*********
एक अनाथ की मां से बातचीत
जमाने भर की नजरों से बचाया तुमने खुद के दम पर
सही क्या है और गलत क्या, अब तक बताती हो।
सिखाया तूने ही हुनर जीने का जमाने में अनहद
मुश्किलों के तूफां में तुम्हीं तो लौ दिखाती हो।
तुमसे दूर हैं, मजबूर हैं, लेकिन यकी मानो
मेरे उर के अंतर में तुम वास करती हो।
साल का एक दिन तुम्हारे नाम का क्या करना
ऐ मां, मेरे हर सांस में तुम्हीं तो जान भरती हो।
***********************************************
साथी! तुम जिंदा रहोगे...
साथी! तुम जिंदा रहोगे,
तब तक..., जब तक
![]() |
रोहित वेमुला की याद मेंकवि मन / कुणाल देव |
तुम्हारी चिता की आग
मुद्दा बनकर लोगों
के जेहन में कौंधती रहेगी.
तब तक..., जब तक
प्राइम टाइम के लिए
कोई दूसरा और श्रेयस्कर
मुद्दा नहीं मिल जाता.
तब तक..., जब तक
तुम्हारी लाश पर
पैर रखते हुए कोई
सियासतबाज सत्ता
के गलियारे तक नहीं पहुंच जाता.
तब तक..., जब तक
तुम्हारा कोई दोस्त
तुम्हारी मौत के बदले
सुकून व सम्मान की
जिंदगी नहीं पा लेता.
और शायद तब तक...
जब तक तुम्हारी याद
तुम्हारे माता-पिता
के दिल में
हूक बनकर उठती रहेगी.
लेकिन, यकीन मानो साथी
माता-पिता की हूक से
मुझे या दुनिया को
कोई वास्ता नहीं.
मेरे लिए तुम कविता का
विषय भर हो
और दुनिया के लिए
मुद्दा भर.
यहां रहते जो बातें
तुम जान न सके
समझ न सके
पहचान न सके,
उन्हें शायद अब
समझ पाते
होगे हमसे बेहतर.
तुम समझ रहे होगे
उन दोस्तों की हकीकत
जो मौत के बाद सबसे
करीबी बने हुए हैं तुम्हारे,
जो तुम्हें सदमे के
दौर में, नहीं दे सके दिलाशा
समझा न सके
जिंदगी का मतलब.
यहां तक कि
तुम्हारे हित में
किसी काउंसलर, साइकैट्रिस्ट
की नहीं ले सके मदद.
साथी! तुम जिंदा रहोगे
तब तक..., जब तक
छात्र सियासी मौत
मरते रहेंगे...संदर्भ के रूप में.
*********
एक अनाथ की मां से बातचीत
हे मां,
तुम कुमाता
नहीं हो सकती
लेकिन,
मैं अनाथ क्यों
हूं
बड़े-बड़े और
संख्या में विपुल
अनाथालय
क्यों हैं?
खड़ा करते हैं
ये सवाल
तेरे वजूद पर,
पैदा करते हैं
जननी और मां
के बीच विभेद।
माना अनाथालय में
सब अनाथ
नहीं होते,
कुछ होते हैं
आश्रयहीन भी।
नर्सिंगहोम और
अल्ट्रसाउंड केंद्रों को
लग गया है
भ्रूणहत्या का कोढ़
लेकिन,
तुम्हारी चुप्पी को
एक अजन्मा
आखिर समझे भी
तो क्या?
मां यशोदा, धाया पन्ना
या मां मरियम
की श्रेणी में
नहीं आता
कुंती का जिक्र,
शायद,
कर्ण की उपेक्षा का
जमाना
मांग रहा है
हिसाब।
मेरी नजरों में
स्वर्ग एक
मिथक है
लेकिन,
जननी-जन्मभूमि
साकार।
जननी
जिसे देखा ही नहीं
कैसे मान लूं
उसे
स्वर्ग से महान?
मातृत्व
सबसे बड़ा सुख है
तो
क्यों कर लिया
ममत्व से
समझौता?
जमाने के झंझावातों
और सवाल
पूछती निगाहों
के सामने खड़ा
भयभीत
जानने की
चाह में,
महान मां
से पैदा
मैं अभिशाप क्यों हूं?
************************
************************
बस यूं ही...
कितना अजीब है कि खामोश लिखने के लिए हर्फ की जरूरत होती है.न जाने लोग क्यों कहते हैं, शब्द बेजान हो गये.
गजल
![]() |
कुणाल देव युवा कवि, कथाकार और पत्रकार Mob. 08969394348 |
गरीबी और गरीबों पर चर्चा होती रहती है।
मगर मेरी मुफलिसी, तनिक भी कम नहीं होती।।
जरा देखो मेरे घर में, दीपक भी नहीं जलता।
और उनके महलों की, रोशनी बढ़ती जाती है।।
वो साहेब हैं, बिना मतलब पसीना भी नहीं देते।
हमारा खून पानी सा, बेमतलब पीते रहते हैं।।
सियासी शराफत का अजब है हाल, मत पूछो।
अमीरी बढ़ती जाती है, गरीबी खत्म नहीं होती।।
तेरी शोहरत और सोहबत का, हर बंदा सवाली है।
वो जिसका जिश्म नंगा है, वो जिसका पेट खाली है।।
मैं बेबस हूं मेरे मालिक, तुझे क्या फर्क पड़ता है।
तेरे हिस्से तरक्की है, मेरे जिम्मे बस ताली है।।
मगर मेरा यकीं मानो, ये हरदम है नहीं चलना।
हम हैं फूल बगिया के, तू केवल एक माली है।।
सनद रखना, कयामत की मुकद्दस रात आएगी।
तेरा दिल बहुत काला और तेरी रुह काली है।।
*************************************
परशुराम की प्रतीक्षा
![]() |
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर |
गरदन पर किसका पाप वीर ! ढोते हो ?
शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो ?
उनका, जिनमें कारुण्य असीम तरल था,
तारुण्य-ताप था नहीं, न रंच गरल था;
सस्ती सुकीर्ति पा कर जो फूल गये थे,
निर्वीर्य कल्पनाओं में भूल गये थे;
गीता में जो त्रिपिटक-निकाय पढ़ते हैं,
तलवार गला कर जो तकली गढ़ते हैं;
शीतल करते हैं अनल प्रबुद्ध प्रजा का,
शेरों को सिखलाते हैं धर्म अजा का;
सारी वसुन्धरा में गुरु-पद पाने को,
प्यासी धरती के लिए अमृत लाने को
जो सन्त लोग सीधे पाताल चले थे,
(अच्छे हैं अब:; पहले भी बहुत भले थे।)
हम उसी धर्म की लाश यहाँ ढोते हैं,
शोणित से सन्तों का कलंक धोते हैं।
हे वीर बन्धु ! दायी है कौन विपद का ?
हम दोषी किसको कहें तुम्हारे वध का ?
यह गहन प्रश्न; कैसे रहस्य समझायें ?
दस-बीस अधिक हों तो हम नाम गिनायें।
पर, कदम-कदम पर यहाँ खड़ा पातक है,
हर तरफ लगाये घात खड़ा घातक है।
घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है,
लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है,
जिस पापी को गुण नहीं; गोत्र प्यारा है,
समझो, उसने ही हमें यहाँ मारा है।
जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है,
या किसी लोभ के विवश मूक रहता है,
उस कुटिल राजतन्त्री कदर्य को धिक् है,
यह मूक सत्यहन्ता कम नहीं वधिक है।
चोरों के हैं जो हितू, ठगों के बल हैं,
जिनके प्रताप से पलते पाप सकल हैं,
जो छल-प्रपंच, सब को प्रश्रय देते हैं,
या चाटुकार जन से सेवा लेते हैं;
यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है,
भारत अपने घर में ही हार गया है।
है कौन यहाँ, कारण जो नहीं विपद् का ?
किस पर जिम्मा है नहीं हमारे वध का ?
जो चरम पाप है, हमें उसी की लत है,
दैहिक बल को रहता यह देश ग़लत है।
नेता निमग्न दिन-रात शान्ति-चिन्तन में,
कवि-कलाकार ऊपर उड़ रहे गगन में।
यज्ञाग्नि हिन्द में समिध नहीं पाती है,
पौरुष की ज्वाला रोज बुझी जाती है।
ओ बदनसीब अन्धो ! कमजोर अभागो ?
अब भी तो खोलो नयन, नींद से जागो।
वह अघी, बाहुबल का जो अपलापी है,
जिसकी ज्वाला बुझ गयी, वही पापी है।
जब तक प्रसन्न यह अनल, सुगुण हँसते है;
है जहाँ खड्ग, सब पुण्य वहीं बसते हैं।
वीरता जहाँ पर नहीं, पुण्य का क्षय है,
वीरता जहाँ पर नहीं, स्वार्थ की जय है।
तलवार पुण्य की सखी, धर्मपालक है,
लालच पर अंकुश कठिन, लोभ-सालक है।
असि छोड़, भीरु बन जहाँ धर्म सोता है,
पातक प्रचण्डतम वहीं प्रकट होता है।
तलवारें सोतीं जहाँ बन्द म्यानों में,
किस्मतें वहाँ सड़ती है तहखानों में।
बलिवेदी पर बालियाँ-नथें चढ़ती हैं,
सोने की ईंटें, मगर, नहीं कढ़ती हैं।
पूछो कुबेर से, कब सुवर्ण वे देंगे ?
यदि आज नहीं तो सुयश और कब लेंगे ?
तूफान उठेगा, प्रलय-वाण छूटेगा,
है जहाँ स्वर्ण, बम वहीं, स्यात्, फूटेगा।
जो करें, किन्तु, कंचन यह नहीं बचेगा,
शायद, सुवर्ण पर ही संहार मचेगा।
हम पर अपने पापों का बोझ न डालें,
कह दो सब से, अपना दायित्व सँभालें।
कह दो प्रपंचकारी, कपटी, जाली से,
आलसी, अकर्मठ, काहिल, हड़ताली से,
सी लें जबान, चुपचाप काम पर जायें,
हम यहाँ रक्त, वे घर में स्वेद बहायें।
हम दें उस को विजय, हमें तुम बल दो,
दो शस्त्र और अपना संकल्प अटल दो।
हों खड़े लोग कटिबद्ध वहाँ यदि घर में,
है कौन हमें जीते जो यहाँ समर में ?
हो जहाँ कहीं भी अनय, उसे रोको रे !
जो करें पाप शशि-सूर्य, उन्हें टोको रे !
जा कहो, पुण्य यदि बढ़ा नहीं शासन में,
या आग सुलगती रही प्रजा के मन में;
तामस बढ़ता यदि गया ढकेल प्रभा को,
निर्बन्ध पन्थ यदि मिला नहीं प्रतिभा को,
रिपु नहीं, यही अन्याय हमें मारेगा,
अपने घर में ही फिर स्वदेश हारेगा।
किरिचों पर कोई नया स्वप्न ढोते हो ?
किस नयी फसल के बीज वीर ! बोते हो ?
दुर्दान्त दस्यु को सेल हूलते हैं हम;
यम की दंष्ट्रा से खेल झूलते हैं हम।
वैसे तो कोई बात नहीं कहने को,
हम टूट रहे केवल स्वतंत्र रहने को।
सामने देश माता का भव्य चरण है,
जिह्वा पर जलता हुआ एक, बस प्रण है,
काटेंगे अरि का मुण्ड कि स्वयं कटेंगे,
पीछे, परन्तु, सीमा से नहीं हटेंगे।
फूटेंगी खर निर्झरी तप्त कुण्डों से,
भर जायेगा नागराज रुण्ड-मुण्डों से।
माँगेगी जो रणचण्डी भेंट, चढ़ेगी।
लाशों पर चढ़ कर आगे फौज बढ़ेगी।
पहली आहुति है अभी, यज्ञ चलने दो,
दो हवा, देश की आज जरा जलने दो।
जब हृदय-हृदय पावक से भर जायेगा,
भारत का पूरा पाप उतर जायेगा;
देखोगे, कैसा प्रलय चण्ड होता है !
असिवन्त हिन्द कितना प्रचण्ड होता है !
बाँहों से हम अम्बुधि अगाध थाहेंगे,
धँस जायेगी यह धरा, अगर चाहेंगे।
तूफान हमारे इंगित पर ठहरेंगे,
हम जहाँ कहेंगे, मेघ वहीं घहरेंगे।
जो असुर, हमें सुर समझ, आज हँसते हैं,
वंचक श्रृगाल भूँकते, साँप डँसते हैं,
कल यही कृपा के लिए हाथ जोडेंगे,
भृकुटी विलोक दुष्टता-द्वन्द्व छोड़ेंगे।
गरजो, अम्बर की भरो रणोच्चारों से,
क्रोधान्ध रोर, हाँकों से, हुंकारों से।
यह आग मात्र सीमा की नहीं लपट है,
मूढ़ो ! स्वतंत्रता पर ही यह संकट है।
जातीय गर्व पर क्रूर प्रहार हुआ है,
माँ के किरीट पर ही यह वार हुआ है।
अब जो सिर पर आ पड़े, नहीं डरना है,
जनमे हैं तो दो बार नहीं मरना है।
कुत्सित कलंक का बोध नहीं छोड़ेंगे,
हम बिना लिये प्रतिशोध नहीं छोड़ेंगे,
अरि का विरोध-अवरोध नहीं छोड़ेंगे,
जब तक जीवित है, क्रोध नहीं छोड़ेंगे।
गरजो हिमाद्रि के शिखर, तुंग पाटों पर,
गुलमार्ग, विन्ध्य, पश्चिमी, पूर्व घाटों पर,
भारत-समुद्र की लहर, ज्वार-भाटों पर,
गरजो, गरजो मीनार और लाटों पर।
खँडहरों, भग्न कोटों में, प्राचीरों में,
जाह्नवी, नर्मदा, यमुना के तीरों में,
कृष्णा-कछार में, कावेरी-कूलों में,
चित्तौड़-सिंहगढ़ के समीप धूलों में-
सोये हैं जो रणबली, उन्हें टेरो रे !
नूतन पर अपनी शिखा प्रत्न फेरो रे !
झकझोरो, झकझोरो महान् सुप्तों को,
टेरो, टेरो चाणक्य-चन्द्रगुप्तों को;
विक्रमी तेज, असि की उद्दाम प्रभा को,
राणा प्रताप, गोविन्द, शिवा, सरजा को;
वैराग्यवीर, बन्दा फकीर भाई को,
टेरो, टेरो माता लक्ष्मीबाई को।
आजन्मा सहा जिसने न व्यंग्य थोड़ा था,
आजिज आ कर जिसने स्वदेश को छोड़ा था,
हम हाय, आज तक, जिसको गुहराते हैं,
‘नेताजी अब आते हैं, अब आते हैं;
साहसी, शूर-रस के उस मतवाले को,
टेरो, टेरो आज़ाद हिन्दवाले को।
खोजो, टीपू सुलतान कहाँ सोये हैं ?
अशफ़ाक़ और उसमान कहाँ सोये हैं ?
बमवाले वीर जवान कहाँ सोये हैं ?
वे भगतसिंह बलवान कहाँ सोये हैं ?
जा कहो, करें अब कृपा, नहीं रूठें वे,
बम उठा बाज़ के सदृश व्यग्र टूटें वे।
हम मान गये, जब क्रान्तिकाल होता है,
सारी लपटों का रंग लाल होता है।
जाग्रत पौरुष प्रज्वलित ज्वाल होता हैं,
शूरत्व नहीं कोमल, कराल होता है।
शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो ?
उनका, जिनमें कारुण्य असीम तरल था,
तारुण्य-ताप था नहीं, न रंच गरल था;
सस्ती सुकीर्ति पा कर जो फूल गये थे,
निर्वीर्य कल्पनाओं में भूल गये थे;
गीता में जो त्रिपिटक-निकाय पढ़ते हैं,
तलवार गला कर जो तकली गढ़ते हैं;
शीतल करते हैं अनल प्रबुद्ध प्रजा का,
शेरों को सिखलाते हैं धर्म अजा का;
सारी वसुन्धरा में गुरु-पद पाने को,
प्यासी धरती के लिए अमृत लाने को
जो सन्त लोग सीधे पाताल चले थे,
(अच्छे हैं अब:; पहले भी बहुत भले थे।)
हम उसी धर्म की लाश यहाँ ढोते हैं,
शोणित से सन्तों का कलंक धोते हैं।
हे वीर बन्धु ! दायी है कौन विपद का ?
हम दोषी किसको कहें तुम्हारे वध का ?
यह गहन प्रश्न; कैसे रहस्य समझायें ?
दस-बीस अधिक हों तो हम नाम गिनायें।
पर, कदम-कदम पर यहाँ खड़ा पातक है,
हर तरफ लगाये घात खड़ा घातक है।
घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है,
लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है,
जिस पापी को गुण नहीं; गोत्र प्यारा है,
समझो, उसने ही हमें यहाँ मारा है।
जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है,
या किसी लोभ के विवश मूक रहता है,
उस कुटिल राजतन्त्री कदर्य को धिक् है,
यह मूक सत्यहन्ता कम नहीं वधिक है।
चोरों के हैं जो हितू, ठगों के बल हैं,
जिनके प्रताप से पलते पाप सकल हैं,
जो छल-प्रपंच, सब को प्रश्रय देते हैं,
या चाटुकार जन से सेवा लेते हैं;
यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है,
भारत अपने घर में ही हार गया है।
है कौन यहाँ, कारण जो नहीं विपद् का ?
किस पर जिम्मा है नहीं हमारे वध का ?
जो चरम पाप है, हमें उसी की लत है,
दैहिक बल को रहता यह देश ग़लत है।
नेता निमग्न दिन-रात शान्ति-चिन्तन में,
कवि-कलाकार ऊपर उड़ रहे गगन में।
यज्ञाग्नि हिन्द में समिध नहीं पाती है,
पौरुष की ज्वाला रोज बुझी जाती है।
ओ बदनसीब अन्धो ! कमजोर अभागो ?
अब भी तो खोलो नयन, नींद से जागो।
वह अघी, बाहुबल का जो अपलापी है,
जिसकी ज्वाला बुझ गयी, वही पापी है।
जब तक प्रसन्न यह अनल, सुगुण हँसते है;
है जहाँ खड्ग, सब पुण्य वहीं बसते हैं।
वीरता जहाँ पर नहीं, पुण्य का क्षय है,
वीरता जहाँ पर नहीं, स्वार्थ की जय है।
तलवार पुण्य की सखी, धर्मपालक है,
लालच पर अंकुश कठिन, लोभ-सालक है।
असि छोड़, भीरु बन जहाँ धर्म सोता है,
पातक प्रचण्डतम वहीं प्रकट होता है।
तलवारें सोतीं जहाँ बन्द म्यानों में,
किस्मतें वहाँ सड़ती है तहखानों में।
बलिवेदी पर बालियाँ-नथें चढ़ती हैं,
सोने की ईंटें, मगर, नहीं कढ़ती हैं।
पूछो कुबेर से, कब सुवर्ण वे देंगे ?
यदि आज नहीं तो सुयश और कब लेंगे ?
तूफान उठेगा, प्रलय-वाण छूटेगा,
है जहाँ स्वर्ण, बम वहीं, स्यात्, फूटेगा।
जो करें, किन्तु, कंचन यह नहीं बचेगा,
शायद, सुवर्ण पर ही संहार मचेगा।
हम पर अपने पापों का बोझ न डालें,
कह दो सब से, अपना दायित्व सँभालें।
कह दो प्रपंचकारी, कपटी, जाली से,
आलसी, अकर्मठ, काहिल, हड़ताली से,
सी लें जबान, चुपचाप काम पर जायें,
हम यहाँ रक्त, वे घर में स्वेद बहायें।
हम दें उस को विजय, हमें तुम बल दो,
दो शस्त्र और अपना संकल्प अटल दो।
हों खड़े लोग कटिबद्ध वहाँ यदि घर में,
है कौन हमें जीते जो यहाँ समर में ?
हो जहाँ कहीं भी अनय, उसे रोको रे !
जो करें पाप शशि-सूर्य, उन्हें टोको रे !
जा कहो, पुण्य यदि बढ़ा नहीं शासन में,
या आग सुलगती रही प्रजा के मन में;
तामस बढ़ता यदि गया ढकेल प्रभा को,
निर्बन्ध पन्थ यदि मिला नहीं प्रतिभा को,
रिपु नहीं, यही अन्याय हमें मारेगा,
अपने घर में ही फिर स्वदेश हारेगा।
किरिचों पर कोई नया स्वप्न ढोते हो ?
किस नयी फसल के बीज वीर ! बोते हो ?
दुर्दान्त दस्यु को सेल हूलते हैं हम;
यम की दंष्ट्रा से खेल झूलते हैं हम।
वैसे तो कोई बात नहीं कहने को,
हम टूट रहे केवल स्वतंत्र रहने को।
सामने देश माता का भव्य चरण है,
जिह्वा पर जलता हुआ एक, बस प्रण है,
काटेंगे अरि का मुण्ड कि स्वयं कटेंगे,
पीछे, परन्तु, सीमा से नहीं हटेंगे।
फूटेंगी खर निर्झरी तप्त कुण्डों से,
भर जायेगा नागराज रुण्ड-मुण्डों से।
माँगेगी जो रणचण्डी भेंट, चढ़ेगी।
लाशों पर चढ़ कर आगे फौज बढ़ेगी।
पहली आहुति है अभी, यज्ञ चलने दो,
दो हवा, देश की आज जरा जलने दो।
जब हृदय-हृदय पावक से भर जायेगा,
भारत का पूरा पाप उतर जायेगा;
देखोगे, कैसा प्रलय चण्ड होता है !
असिवन्त हिन्द कितना प्रचण्ड होता है !
बाँहों से हम अम्बुधि अगाध थाहेंगे,
धँस जायेगी यह धरा, अगर चाहेंगे।
तूफान हमारे इंगित पर ठहरेंगे,
हम जहाँ कहेंगे, मेघ वहीं घहरेंगे।
जो असुर, हमें सुर समझ, आज हँसते हैं,
वंचक श्रृगाल भूँकते, साँप डँसते हैं,
कल यही कृपा के लिए हाथ जोडेंगे,
भृकुटी विलोक दुष्टता-द्वन्द्व छोड़ेंगे।
गरजो, अम्बर की भरो रणोच्चारों से,
क्रोधान्ध रोर, हाँकों से, हुंकारों से।
यह आग मात्र सीमा की नहीं लपट है,
मूढ़ो ! स्वतंत्रता पर ही यह संकट है।
जातीय गर्व पर क्रूर प्रहार हुआ है,
माँ के किरीट पर ही यह वार हुआ है।
अब जो सिर पर आ पड़े, नहीं डरना है,
जनमे हैं तो दो बार नहीं मरना है।
कुत्सित कलंक का बोध नहीं छोड़ेंगे,
हम बिना लिये प्रतिशोध नहीं छोड़ेंगे,
अरि का विरोध-अवरोध नहीं छोड़ेंगे,
जब तक जीवित है, क्रोध नहीं छोड़ेंगे।
गरजो हिमाद्रि के शिखर, तुंग पाटों पर,
गुलमार्ग, विन्ध्य, पश्चिमी, पूर्व घाटों पर,
भारत-समुद्र की लहर, ज्वार-भाटों पर,
गरजो, गरजो मीनार और लाटों पर।
खँडहरों, भग्न कोटों में, प्राचीरों में,
जाह्नवी, नर्मदा, यमुना के तीरों में,
कृष्णा-कछार में, कावेरी-कूलों में,
चित्तौड़-सिंहगढ़ के समीप धूलों में-
सोये हैं जो रणबली, उन्हें टेरो रे !
नूतन पर अपनी शिखा प्रत्न फेरो रे !
झकझोरो, झकझोरो महान् सुप्तों को,
टेरो, टेरो चाणक्य-चन्द्रगुप्तों को;
विक्रमी तेज, असि की उद्दाम प्रभा को,
राणा प्रताप, गोविन्द, शिवा, सरजा को;
वैराग्यवीर, बन्दा फकीर भाई को,
टेरो, टेरो माता लक्ष्मीबाई को।
आजन्मा सहा जिसने न व्यंग्य थोड़ा था,
आजिज आ कर जिसने स्वदेश को छोड़ा था,
हम हाय, आज तक, जिसको गुहराते हैं,
‘नेताजी अब आते हैं, अब आते हैं;
साहसी, शूर-रस के उस मतवाले को,
टेरो, टेरो आज़ाद हिन्दवाले को।
खोजो, टीपू सुलतान कहाँ सोये हैं ?
अशफ़ाक़ और उसमान कहाँ सोये हैं ?
बमवाले वीर जवान कहाँ सोये हैं ?
वे भगतसिंह बलवान कहाँ सोये हैं ?
जा कहो, करें अब कृपा, नहीं रूठें वे,
बम उठा बाज़ के सदृश व्यग्र टूटें वे।
हम मान गये, जब क्रान्तिकाल होता है,
सारी लपटों का रंग लाल होता है।
जाग्रत पौरुष प्रज्वलित ज्वाल होता हैं,
शूरत्व नहीं कोमल, कराल होता है।
*****************************************
होली मुबारक!

मन का दाग रहे न बाकी, चाहे जिसे लगाऊं।
मन से हटे तिमिर का डेरा, उदित हो नव सवेरा।
पापी ही पातक को मारे, दीन-दुखियन का भाग्य संवारे।
मोह-माया के तोड़ के बंधन, दूर करे वह सबका क्रंदन।
लोभ-लालच का हटे बसेरा, ऐसी होली गाऊं।
जी करता है इस होली में एक ऐसा रंग बनाऊं,
मन का दाग रहे न बाकी, चाहे जिसे लगाऊं।
दानव को भी देव बनाये, रूठे को गले लगाये।
जीवन पथ पर बने वह साथी, जैसे दिया और बाती।
दावानल में हिमशिखर बन, शीतल करे सबका मन।
आलोकित हो जीवन-पथ, ऐसा छंद सुनाऊं।
जी करता है इस होली में एक ऐसा रंग बनाऊं,
मन का दाग रहे न बाकी, चाहे जिसे लगाऊं।
ऊंच-नीच का भेद मिटाये, सबके लिए राह बनाये।
अविरल हो नदियों की धारा, प्रकृति को मिले सहारा।
सबको मिले पूरा जल, दाने का न रहे विकल।
दूध-दही की बहे धारा, ऐसी जुगत भिड़ाऊं।
जी करता है इस होली में एक ऐसा रंग बनाऊं,
मन का दाग रहे न बाकी, चाहे जिसे लगाऊं।
खाई और ददल को पाटे, निर्धन जन में खुशियां बांटे।
दुखी जनों की पीड़ा हर ले, नैराश्य में जीवन भर दे।
सफलता की द्वार खोले, बातों में अमृतरस घोले।
भगीरथ का रूप बन, गांगा को साफ बनाऊं।
जी करता है इस होली में एक ऐसा रंग बनाऊं,
मन का दाग रहे न बाकी, चाहे जिसे लगाऊं।
*****************************************************
कैसे कहें नव वर्ष मंगलमय हो!
बिटिया को सुबह विदा करते जहां पिता का रूह कांपे
शाम तक अपशुकुन की आशंका रहे जहां चांपे
मर-मर कर जी रही हो जहां देश की आधी आबादी
लाठी-डंडे व पानी की बौछार खाते जहां फरियादी
जहां लगता हमेशा इज्जत जाने का भय हो
कैसे कह दें साथी, नव वर्ष मंगलमय हो।
किसान खाते हैं फांके जहां गुलजार रहते मयखाने
सड़ जाता अनाज जहां पर मयस्सर नहीं होते दाने
कागजों पर बंटता कंबल और कंपकंपाते हैं बुजुर्ग
हिमालय को टक्कर देता है जहां भ्रष्टाचार का दुर्ग
जहां ईमानदारी की कीमत मौत मय हो
कैसे कह दें साथी, नव वर्ष मंगलमय हो।
तंत्र बना तंतु जहां गण से खत्म हुआ विश्वास
व्यवस्था बेटरी जहां सिसकियां भर रहा समाज
सत्ता के हंटर से जहां समाज को हांका जाता है
लोलुपता और लिप्सा से नम्रता को मापा जाता है
जहां लूट-खसोट में इंसानियत का क्षय हो
कैसे कह दें साथी, नव वर्ष मंगलमय हो।
संघर्ष का भरोसा है दोस्तों रास्ता निकल जाएगा
आप और हम होंगे साथ तो जमाना बदल जाएगा
बदलाव की शुरुआत लेकिन भाई घर से ही हो
घर में पहले सम्मान मिले अपनी मां-बहनों को
समाज में न कोई संशय और न ही भय हो
तब हम कहेंगे दोस्त, नव वर्ष मंगलमय हो।
*****************************************************
*****************************************************
वे सुनते नहीं या समझ नहीं पाते
कुछ सवाल फिर जहन में हैं
सरकार को हम चुनते हैं
हमीं उनके भाग्य विधाता होते हैं।
सरकार भी यदाकदा मानती है
जनता की ताकत और उनके अधिकार को
जब जनता अपने ही अधिकार का
अपने ही हक का, चाहती है प्रयोग
अपनी सुरक्षा को लेकर है चिंतित
क्रोध धधक रहा है उसके सीने में
24 घंटे उनसे मांग रही दामिनी
खुद के दमन का हिसाब
तो सरकार के लोगों को
जनता अराजक, उत्पाती और उपद्रवी
क्यों नजर आने लगी है?
क्या इन अराजक, उत्पाती और उपद्रवियों में से
किसी ने नहीं दिया होगा उन्हें अपना मत
क्या सरकार के सही निर्णय पर कभी किसी ने
नहीं किया उसका समर्थन
क्या यह मान लिया जाए कि
समाज के लिए नहीं होती सरकार?
या
जनता के चुने हुए ये सेवक, दंभ और द्वंद्व के बीच
हो चुके हैं निरंकुश
पड़ चुका है उनके आंखों पर
सत्ता का स्याह पर्दा
क्या वह ‘जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा’
के सिद्धांत को कर चुके हैं दफन?
क्या
हर बार दामिनी को गुजरना होगा भेड़ियों के बीच से
जनता उतरेगी सड़कों पर
मांगेगी अपना हक और हिसाब
और
सरकार खरीदेगी सिर्फ उनके लिए कफन?
खैर, हम जानते हैं
जिसे शोर नहीं सुनाई देता
उसे
शब्दों का अनुनाद क्या महसूस होगा।
लेकिन, पढ़ा है किताबों में
रावण, हिटल, मुसोलिनी और ओसामा जैसों के
पराभव के किस्से
इसलिए
अभी जिंदा है उम्मीद
एक दिन जरूर मिलेगा दामिनी को दमन का
हिसाब
फिर शायद खत्म हो जाएंगे सवाल
लेकिन,
लिख जाएगा संघर्ष और ताप के ताये दिनों का एक
एक मोटा सा
किताब।
युद्ध
दिल और दिमाग के बीच
![]() |
कवि मन |
हमेशा
युद्ध चलता रहता है।
दिल पूछता है
इन अच्छे लोगों के साथ कभी
अच्छा क्यों नहीं होता?
दिमाग पूछता है
इसके लिए दोषी कौन है?
दिल पूछता है
किन-किन दोषियों का
नाम बतायें?
दिमाग पूछता है
इन दोषियों को क्यों अपनायें?
दिल कहता है
कितनों को कर देंगे
पदच्यूत?
दिमाग कहता है
कब तक पालेंगे अपने घर में
दोषियों का भूत?
दिल कहता है
अब रण हो जाये?
दिमाग कहता है
कहीं रण ही न फन हो जाये?
दिल अगाज की
बात करता है और
दिमाग अंजाम की?
चिंतन-मनन, अध्ययन,
तन और धन...कब तक...
आखिर कब तक?
तय करना होगा
दिल की सुनें कि दिमाग की।
विकल्प के लिए विकल्प
तैयार करने की रणनीति
अब बहुत हो चुकी।
अब रणनीति का
निष्कर्ष बताना होगा।
तोड़ना होगा भ्रम का
मायाजाल,
भेदना होगा भ्रष्टाचार का
चक्रव्यूह,
घर से हटाने होंगे
कमजोरी के जाले,
दिल से मिटाना होगा
स्वार्थ का अंधेरा।
मन में लगानी होगी
संकल्प की शिला,
दोस्तों,
तभी सच होगा विकसित
भारत का सपना,
तभी पूरा होगा
संकल्प अपना।
*****************************************************
कांव-कांव
बहुत दिनों से कोई अच्छी
![]() |
कवि मन |
खबर नहीं आई,
सुना है कौवों को
बीमारी खा रही है।
मुंडेर पर कौवे करते
कांव-कांव,
घर में बन जाता था
ज्यादा खाना।
जाया भी नहीं होता था
क्योंकि,
लगा रहता था
कौवों का जाना
और
मेहमानों का आना।
तब
कहां होते थे फोन और मोबाइल,
और पता ही चल जाता
जाता तो
बदल न जाता
अतिथि का मतलब।
फिर
कैसे पता चलता
घर के संस्कार और सरोकार का।
ऐेसे ही तो तय होते थे
रिश्ते,
पेट से होकर दिल तक
पहुंच जाता था रास्ता।
फिर हमने चुना
कौवों का विकल्प।
निर्धारित होने लगी
अतिथि के आने की
तिथि।
बजने लगीं फोन की घंटियां,
घनघनाने लगे मोबाइल।
चेहरे पर मुस्कान, नाश्ते में
छप्पन पकवान,
खाने में किसिम-किसिम
के व्यंजन,
खीर, सेवई, आइसक्रिम, चाय, कॉफी, पान,
मानो घर बन गया हो
होटल या मिठाई की दुकान।
कौवे भी खुश थे
ऊंचे-ऊंचे टावरों पर
बनाने लगे आशियाना,
शहराती भीड़भाड़ में
मिल गया
जंगल सा वीराना।
अचानक
बिखरने लगा कौवों का कुनबा,
धड़ाधड़ होने लगी मौत,
जांच रिपोर्ट तो आई
पर पक्षियों की भाषा
भला कौन था
जानता-समझता।
ऊंचे आशियनों का
छोड़ मोह,
कौवों ने ली जंगल
की टोह।
अब नहीं सुनाई देता
कांव-कांव
चाहे शहर हो
या गांव।
धरे रह जाते हैं, हलवा, पूरी
खीर और पंचामृत,
जाने कैसे होगी पितरों की आत्मा
तृप्त।
*****************************************************
*****************************************************
शहरों का शहर
मेहनतकशों का शहर। लोहे को लावा बनाने वालों का शहर। पठारों का शहर। जंगलों का शहर। झीलों का शहर। झरनों का शहर। कला का शहर। संस्कृति का शहर। संघर्ष का शहर। चुनौती का शहर। जीत का शहर। हारती जिंदगी के बीच उम्मीदों का शहर। विविधताओं के बीच एकता का शहर। महादेश और देश की खूबियों को समेटे हुए झांकियों का शहर।
![]() |
कवि मन |
सागवान के सबसे घने जंगल सारंडा का शहर। सात सौ पहाड़ियों के बीच बसा अरमानों का शहर। पाथेरपंचाली के विभूति बाबू का शहर। उड़ीसा के धालभूम राजाओं की विजय का शहर। समुद्र के नमकीन पानी और बिरसा की जवानी का शहर।
लिट्टी-चोखा और पुलाव का शहर। जलेबी और फाफड़े का शहर। इडली-सांभर और डोसे का शहर। पीठा और मलीदा का शहर। रसोगुल्ला और माछ-भात का शहर। पूरनपोली और मोदक का शहर। हाड़ी और माड़ी का शहर। हलवा-पूरी का शहर। चूरमा और खीर ख्वानी का शहर। छोले-भटूरे और राजमा-चावल का शहर। लाछा-पराठे और नानखताई का शहर।
रामभक्तों और खुदा के बंदों का शहर। वाहेगुरु और जीसस के अनुचरों का शहर। धरती आबा और बाहा-बोंगा के वीरों का शहर। दुर्गा और सरस्वती का शहर। लक्ष्मी और गणेश का शहर। काली और महादेव का शहर। ओणम और पोंगल का शहर। सरहुल और बा का शहर।
ओडिसी और कथककली का शहर। सरहुल नृत्य और शिव के तांडव का शहर। लावणी और सांबा नृत्य का शहर। रवींद्र संगीत और संथाली गीतों का शहर। बांसूरी की तान और मांदर की थाप का शहर। मृदंग का मतंग और ड्राम के उमंग का शहर।
टाटा के सपनों का शहर। जिंदल और वेदांता की उम्मीदों का शहर। साइरस के अरमानों का शहर। सियासी सूरमाओं की विरासत का शहर। झारखंड औऱ देश की तरक्की की केंद्रबिंदू का शहर। सचमुच अद्भुत है शहरों का शहर जमशेदपुर।
*****************************************************
संसद
देखी जो हाल शरीफों की, काफी घबरा गया।
हंगामे में खोई रोजी-रोटी की पुकार
सांसद भत्ता तालियों का समर्थन पा गया।
सीमा की सुरक्षा पर विपक्षी ने जो पूछा सवाल
सत्ता के गलियारे में भूचाल कोई आ गया।
फिक्र थी किसको भला भूखे-नंगे किसान की
देश के सरहद पर शहीद होते जवान की।
देख ड्रामा लोकतंत्र का मन ही मन पछता गया
बीहड़ में था अच्छा-भला, यहां क्यों आ गया।
*****************************************************![]() |
कवि मन |
जंगल में लोकतंत्र
बधाई हो ! जंगल में लोकतंत्र आ गया
शेर को पदच्युत कर बंदर सत्ता पा गया।
हाथी, हिरण, लंगूर, भेड़ सब मंत्री बने
संदेश आया, शेर सैनिक मेमने को खा गया।
बंदर ने दिखलाए तेवर शेर को तलब किया
लौटके प्यादा बताया एक और काम आ गया।
खात्मा-ए-शेर सौंप दी हाथी को कमान
मांद में सुनकर दहाड़ गजदल भी छितरा गया।
पोल खुलती देखकर बंदर भी बोला बहुत
धन्य है वह लाल जो देश के काम आ गया।
*****************************************************
*****************************************************
सौदागर
![]() |
कवि मन |
सियासी बाजार में सौदागर आने लगे हैं
खुली आंखों सपने दिखाने लगे हैं।
गरीब जानते हैं जनाब रुकेंगे चंद रोज
बस उनके सुर में सुर मिलाने लगे हैं।
सरपरस्ती में बीते दिन गरीबों के जिनके
वही देव अब सरपरस्त कहलाने लगे हैं।
मलिन बस्ती में सड़क है जो दलदल
अधूरा काम उसे साहब बताने लगे हैं।
चुनाव आते ही मुंह खुल गए खजाने के
गरीबों के वोट पर खुलकर धन बरसाने लगे हैं।
*****************************************************
पांच वर्ष
![]() |
कवि मन |
कलुआ अब बड़े काम का हो गया है,
धतूरा मत कहो उसे, बादाम हो गया है।
जब से चला है नेताजी के साथ-साथ,
लोगों के बीच उसका नाम हो गया है।
दो जून की रोटी को जो तरसता रहा पांच वर्ष,
अब बिरयानी भी उसके लिए आम हो गया है।
दीवाली-ईद पर भी जिसके बच्चे घूमे नंग-धड़ंग,
चुनाव की माया में तन को आराम हो गया है।
मजूरी के साथ-साथ अंग्रेजी पीता है जी भरके,
देसी-ताड़ी तो अब उसके लिए हराम हो गया है।
*****************************************************
फेंटो
फेंटो और फेंटो
खूब फेंटो
एक-एक पत्ते फेंट डालो
![]() |
कवि मन |
विश्वास नहीं है तुम पर
किसी पर भी नहीं।
विश्वास का आधार होता है कर्म
और कर्म का आधार होता है धर्म,
कई बार खोजता हूं खुद को
धर्म की पगडंडियों पर
कर्म के कुरुक्षेत्र में
लरजती आस्था के सहारे
भटकते आत्मबल को समेट कर
बिखरते अरमानों को संबल दे
...नहीं चाहिए गुलाम।
तुम बस फेंटो
और फेंटो
एक पत्ते को अलग-अलग कर दो
कोई लाग न रहे
फेंटो बस फेंटो।
आचरण और चरित्र कहां बिकता है
पता बता दो
खोज रहा हूं एक जमाने से
कई से मिला
रंगरेज से भी
अंग्रेज से भी
देखा कई बार
चोला उतारते और
कपड़े बदलते हुए
...बीवी किसने मांगी तुमसे?
फेंटो-फेंटो
और फेंटो
हर पत्ता अलग-अलग कर दो
कोई लाग न रहे
फेंटो बस फेंटे।
नीति के राज में
आज अनीति की नीति है
राजाओं के नौकर
अब नौकरों के राजा हैं
चोरी के चौसर पर
जनता हलाल है
लूट की छूट में
पहरुए मालामाल हैं
बीवी की शह पर
शुरू हो चुके इस खेल में
जो पीछे रह गया
वही आम आदमी है
कुढ़ता है, झुंझलाता है
कभी रोटी तो कभी
कपड़े में कटौती करता है
बच्चों को पढ़ता है
और उम्मीद करता है कि
उनके सहारे एक दिन वह भी
लूट की छूट में
मुकाम हासिल करेगा
...बादशाह देकर मेरी मजाक मत उड़ाओ।
फेंटो-फेंटो
और फेंटो
एक-एक पत्ता अलग-अलग कर दो
कोई लाग न रहे
फेंटो बस फेंटो।
कठिन तपस्या के बाद
बुद्ध ने यह मार्ग दिया
वीणा के तारों को ज्यादा मत कसो
ज्यादा ढीला मत छोड़ो
लेकिन, अरसे से वह
बस कसा ही जा रहा है
हर बार और बार-बार
बनती है सरकार
चेहरा बदल जाता है
मोहरा बदल जाता है
बदलती नहीं है तो
बस उसकी तकदीर
उसका कसा जाना
गांव की तराई में
बनी उसकी झोपड़ी की दीवारें
ठाकुर का कुआं
पांड़ेजी की पोथी
साहूकार का रवैया
शासन का बेगार
तीज-त्योहार
बंगले की बर्थडे पार्टी
बचे जूठन का भोग
जिंदगी का तानाबाना
बड़े शरीर की हरकत बचकाना
...डाल दिया न जोकर मेरे हिस्से में।
अब मत फेंटो
बिलकुल मत फेंटो।
मैं जानता हूं
जो हूं
वह तुम
रहने नहीं दोगे
सच कहने नहीं दोगे
गले की खखार से
जाती है तुम्हारी इज्जत
आजाद देश में
मुझे अब भी
नहीं मिली है
बोलने की आजादी
दुनिया चांद पर
जाती हो तो जाए
हम तो तुम्हारे घरों में
स्वर्ग साकार कर लेना है
तुम्हारे इस शास्त्रीय महाकाव्य में
नहीं हो सकता मैं धीरोद्धत नायक
सह नायक का भी
मुझमें नहीं है सामर्थ
इस शिष्ट समाज में
एक ही जगह है मेरे लिए
जहां तुम्हे कोई आपत्ति नहीं होगी
...जोकर...जोकर...जोकर....
अब मत फेंटो
बिलकुल मत फेंटो।
*****************************************************
*****************************************************
आंसू
![]() |
कवि मन |
गजब मजबूत है रिश्ता
मेरा और इन आंसुओं का।
सब छोड़ देते हैं साथ जब
उस वक्त भी यह
अपना फर्ज निभाता है।
अपनों की तलाश में
भटकता रहा दर-दर
अपने से बेखबर
न समझा
मेरे अपने नहीं कोई
अपना है तो बस आंसू।
यही है एक बस
जो हर वक्त चला आता है
बिना कहे
चाहे खुशी हो या गम।
बाकी बेकार हैं वे लोग
जिन्हें
हर बात की खबर करनी पड़ती है।
*****************************************************
रिश्ते
![]() |
कवि मन |
रिश्तों के बाजार में
बिकते थे
कुछ महंगे और
कुछ सस्ते रिश्ते
और साथ में बिकतीं थीं
कुछ योग्यताएं
और सौदा किया जाता था
कुछ अरमानों का।
कुछ आत्माएं
भटकतीं हैं हमेशा
उस बाजार के इर्दगिर्द
शरीर की तलाश में
और
कुछ सिसकियां
सुनाई देती हैं
आज भी
उस बाजार के आसपास।
*****************************************************
भूल
ऊब से
पैदा होती हैं
कुछ बातें।
कुछ दरकते रिश्तों के
बचाने की
तो
कुछ नए रिश्ते बनाने की।
नये रिश्ते की तलाश में
दुश्मन अनगिनत बनाते
हैं हम
और वर्षों तलक
रिश्तों की लाश ढोते
हैं हम
अपनी एक छोटी सी
भूल के कारण।
*****************************************************
उग्रता रहता था मैं कभी
अपनों से
अपनों के बीच घिरा हुआ।
क्योंकि,
सुनता था सबकी बातें
चुप रहकर,
चाहे वह सत्युक्त हों
या
सत्यरहित।
अब मैं अकेला हूं
क्योंकि
छोड़ दिया है
सुनना
उनकी झूठी बातों को,
करने लगा हूं
प्रतिरोध
अनैतिक, व्यभिचारी व्यवहारों का।
क्योंकि
उग्रता संस्कार में ही मिला है।
*****************************************************
*****************************************************
गजल
जैसे पर्वत पे कलियां नहीं खिलतीं,
खिलते हैं गुल वहां, जहां तासीर होती है,
खुशियां मिलतीं हैं उन्हें जिनके तकदीर होती हैं।
करके लाख जतन कोई प्यार नहीं पाता,
वफा करके भी जब वह वफा नहीं पाता,
उजड़ जाते हैं तब अमन के बाग,
लग जाती है तब चमन को आग।
गम कम होता है जब आग औरों की लगाई हो,
दिल ही जाने दर्द दगा जब अपनों से पाई हो,
उससे कहर का इबादत भी करता मगर,
उनके लुटने पर भी बर्बादी खुद की आती है नजर।
यूं ही हर पल दूर-दूर होता जाता हूं,
यकीनन, अपनों को भी गैर नजर आता हूं,
धूल गई आब में जैसे उनकी गैरत,
मत पूछो तनहा जीने की है कितनी शिद्दत।
कहतें हैं कुछ खोने पर आदमी कुछ पाता है,
खो रहा हूं मुसलसल, हासिल कुछ भी नजर नहीं आता है,
उनका क्या भरोसा जो मंझधार में हों,
न ही इस पार के ना उस पार के हों।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें