जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जा रही थी, दशहरे के मायने और उससे आने वाली खुशियों में भी फर्क आने लगा था। उस वक्त हम पांचवी क्लास में पढ़ते थे। कस्बे के सरकारी स्कूल में सभी वर्ग के बच्चे पढ़ते थे। लेकिन, उनमें कोई फर्क नहीं था। जिन छोटी कक्षाओं में बच्चे जमीन पर टाट-पट्टी डालकर बैठते थे वहां सभी वर्ग के बच्चे वैसा ही करते और जिस क्लास में बेंच उपलब्ध थीं वह सबके लिए। पहले आओ और पहले पाओ की तर्ज पर बैठने के लिए सीटों का भी आरक्षण होता था।
इस कक्षा में एक नए लड़के ने दाखिला लिया था। उसका नाम था शरीफ। उसके घर की माली हालत मैं नही जानता था लेकिन उसने बताया कि मदरसे से पढ़ाई छुड़वाकर अम्मी-अब्बा ने मीडिल स्कूल में अच्छी तालीम के लिए भेजा है। स्कूल में नया होने के कारण वह काफी सहमा हुआ रहता। सिर्फ अपने मुहल्ले के लड़कों के साथ। दूसरे मुहल्ले के लड़के या गांव से आने वाले बच्चे उससे दोस्ती करने की कोशिश करते तो भी वह किनारा कर लेता था। एक दिन जगदीश मासाब आए और त्रिकोणमिती के बारे में पढ़ाने लगे। पिछली बेंच पर बैठे शरीफ से वे अचानक पूछ बैठे- अब तक क्लास में क्या पढ़ाई हुई?
शरीफ की सकपका गया। बोला, मासाब याद नहीं। इसके बाद वह मुर्गा बन गया। आगे बेंच पर बैठे होने के कारण हम सीधे मासाब की नजर में आए और उन्होंने वही सवाल दुहरा दिया। हम उसका उत्तर देने में सफल रहे। इसके बाद तो शरीफ को लगने लगा कि जैसे मेरे कारण ही वह मुर्गा बना हो।
खाली कक्षा में हम घर से लाए हुए गेंद से पिट्टमपिट्टौव्वल खेलते। क्लास के ही एक ढीठ बच्चा (जिसका घर स्कूल के नजदीक था और जिससे क्लास के सारे छात्र डरते थे) ने खेल में शामिल न होने पर भी शरीफ की तरफ गेंद दे मारी। गेंद उसकी आंख पर लगी और वह रोने लगा।
मारे डर के सारे लड़के भाग गए और मैं उसकी मदद करने लगा। इस बीच रामेश्वर सर आए और बिना कुछ पूछे मेरी पिटाई करने लगे। कारण था कि स्कूल के शरारती बच्चों में से मैं भी एक था। शरीफ ने मेरा बचाव किया।
जमाना बदल गया |
स्कूल से घर दूर होने के कारण शरीफ टिफिन में खाना खाने नहीं जा पाता था जबकि, हम खाना खाकर स्कूल लौट आते थे। एक दिन घर से 25 पैसे मुझे मिले थे। हमने घर में कह दिया था कि आज टिफिन में खाना खाने नहीं आऊंगा।
दोपहर में टिफिन की घंटी बजते ही हम स्कूल से बाहर निकल गए। मुहल्ले के लड़के घर जाने लगे लेकिन तो तो लंगड़ मियां की दुकान की तरफ जा रहे थे। वहां देखते हैं कि शरीफ भी बैठा हुआ है। तब 10 पैसे में आलू के मसालेदार 5 पीस मिला करते थे। हमने दस पैसे का इस्तेमाल इसी काम में किया। धीरे-धीरे जायका लेते हुए आलू के पीस खा रहे थे और शराफत से बैठे शरीफ को भी देख रहे थे। एक अजीब सी कसमसाहट थी उसके चेहरे पर। थोड़ी लालच भी। वह ग्लास उठाकर पानी पीने लगा। हमने दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए उससे आलू खाने के लिए कहा। लेकिन, उसने मना कर दिया। अजीबोगरीब स्थित पैदा हो गई। थोड़ी देर रुक कर, हमने उससे कहा कि तुम्हारे पास जब पैसे आएं तो मुझे खिला देना। इस पर वह मान गया। आलू खाकर हम लौटे तो क्लास में कोई नहीं था। घर के बारे में पूछने पर शरीफ ने बताया कि उसके पापा कपड़े का काम करते हैं। कभी-कभी छु्ट्टी में वह भी उनके साथ जाता है। हमारी दोसती पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ा।
फिर तो कई बार हम और शरीफ दोनों दोपहर में खाना खाने हमारे ही घर चले जाते। माई, को बुरा लगा होगा लेकिन, वह खाने के लिए किसी को मना नहीं करती थीं। इसलिए, शरीफ को भी मना नहीं कर पाती थीं।
मतांतर के बीच भी हमारे कस्बे की खासियत थी कि उस पर सभी धर्मों के त्योहार का रंग जरा जल्दी ही चढ़ जाता था। चाहे वह ईद हो, दीपावली हो, करमा हो, विश्वकर्मा पूजा हो, अनंत हो, छठ हो, मुहर्रम हो या फिर बड़ा दिन। सभी धर्म के लोग दिल खोलकर एक साथ त्योहार मनाते थे। इसका कारण था कि कोई भी बाहरी व्यक्ति यह नहीं कह सकता था कि वह हिंदुओं के इलाके में है या फिर मुसलमानों के। सड़क के एक किनारे जहां हिंदू समुदाय के लोग रहते थे वहीं दूसरी तरफ मुसलमानों का बसेरा था। कोई भी जुलूस निकलता तो सभी धर्म के लोग अपने आप ही उसमें शामिल होते जाते। ईद पर चंदा दीदी (जो मेरी मंझली दीदी की सहेली रहीं) की सेवइयां खाता तो मुहर्रम पर मलीदा। शरीफ और हमने लगातार दो वर्षों तक सभी त्योहार साथ-साथ मनाए।
तब हम सातवीं कक्षा में पढ़ते थे। अचानक शहर की फिजां थोड़ी कड़वी होने लगी थी। जिन मुसलमानों के दरवाजे हमारी गली की तरफ खुलते थे उन्होंने बंद करवा करके दूसरी तरफ खुलवाना शुरू कर दिया। दुकान पर जब नजरूल और कमरूजमा चाचा मिलते तो पहले जैसी गर्मजोशी नहीं होती। सुना था कि श्याम सुंदर भाई और नजरूल हसन में बातचीत बंद हो गई है। श्यामसुंदर भाई की गाय को नजरूल ने डंडा मार दिया। इसे लेकर ही उनके बीच जमकर लड़ाई हुई। हमारे मुहल्ले में हमारी पट्टी के लोगों की जमात शाम को गोला बनाकर मीटिंग करती। वह भी बहुत धीमी-धीमी आवाज में। सुबह-सुबह अखबार पहुंचने का इंतजार सबको कुछ ज्यादा ही रहता। पहले मुहल्ले भर में सिर्फ हमारे पापा बीबीसी न्यूज सुनते थे और लोग सिबाका टॉप। लेकिन, आजकल बीबीसी सुनने वाले लोगों की संख्या यकायक बढ़ गई। तब ये बातें मेरी समझ में नहीं आईं।
दशहरा आने वाला था और इस बार कस्बे में रामलीला के मंचन नहीं होने वाला था। बल्कि, इस बार पर्दा लगाकर रात के नौ से 12 बजे तक रामायण और उसके बाद कूली, दो आंखें 12 हाथ आदि फिल्में दिखाई जाने वाली थीं। हम काफी उत्साहित थे। सोच रहा था कि 8 बजे ही घर से निकल जाएंगे और फिर शरीफ को घर से लेते हुए मेला देखेंगे और फिर रामायण और फिर सिनेमा।
हमने अपनी प्लानिंग दोस्त शरीफ को बताई। लेकिन वह उत्साहित नहीं हुआ। कई बार पूछने की कोशिश की लेकिन वह बात को टाल जाता था। इस बीच कई बार टिफिन में खाने के लिए उसे घर ले जाना चाहा लेकिन बहाना बनाते हुए वह टाल जाता। एक दिन हमने उसे अपनी कसम दे दी।
शरीफ कहने लगा- इस बार वह दशहरे के मेले में नहीं आ पाएगा। अम्मी बता रही थीं कि किसी दूसरे देश में कुछ लोगों ने मंदिर तोड़ दिया था। उसके बदले हिंदुओं ने उनकी मस्जिद तोड़ दी। फिर मारकाट हुई। कई जानें गईं। इहां भी तुम्हारे हिंदू लोग सुबह-सुबह तलवारबाजी सीखने लगे हैं। मस्जिद से भी इस्लाम खतरे में है का ऐलान होने लगा है। अम्मी कहती हैं कि दशहरे में कहीं राइट हो गया तो गजब हो जाएगा।
शरीफ इ राइट क्या होता है भाई? हमने सकुचाते हुए कहा।
पता नहीं भाई। लगता है कोई लड़ाई-झगड़े का नाम होगा। शरीफ ने झिझकते हुए कहा।
घर लौटे तो पापा ने सबके सामने एक ऐलान कर दिया- इस बार हम लोग दशहरा गांव पर मनाएंगे।
फिर न तो किसी ने कोई सवाल किया न ही उन्होंने किसी से कोई राय ली। हमें भी कोई शिकायत नहीं थी। सोच रहा था कि कस्बे में रहेंगे और शरीफ के साथ मेला भी नहीं घूम पाएंगे, पर्दे पर रामायण नहीं देख पाएंगे और फिल्में भी नहीं देख पाएंगे तो दशहरे की छुट्टी में यहां रहने का क्या फायदा।