गुरुवार, 6 अक्टूबर 2011

दशहरे की छुट्टी-5

जमाना बदल गया 
देव शाम से ही चहलकदमी कर रहा था। कभी राजू से मेले की बात करता तो कभी छोटू से। उत्साह से वह एक ही बात को इतनी बार दुहरा देता कि राजू-छोटू भी झल्ला जाते। देव की उनसे कुट्टी हो जाती। लेकिन,  कब तक।
अपने उत्साह को वह छिपा सकता था नहीं और हमको बताने की उसे हिम्मत हो नहीं रही थी। अब ऐसे में राजू-छोटू ही तो थे जिनसे वह अपने दिल की इच्छा को बांट सकता था। मेले में अपनी खरीददारी की योजना को बता सकता था। इसलिए देखते ही देखते वह दोबारा राजू-छोटू की दोस्ती हो जाती।
इस बीच वह कभी-कभी हमसे भी पूछ बैठता कि हम ग्यारह बजे जा रहे हैं या साढ़े ग्यारह बजे। नौ बजे से ही उसने लोगों को तैयार होने के लिए कहना शुरू कर दिया। घर के लोग कई बार उसे डांट भी देते। और वह बेचारा अपना सा मुंह लिए बालकनी में चला जाता। जब उसे कोई मनाने नहीं जाता तो खुद ही थोड़ी देर में हॉल में लौटता और फिर शुरू हो जाता अपने मुद्दे पर। कब चलना है- ग्यारह बजे कि साढ़े ग्यारह बजे।
खैर, समय आ गया और लोग जाने के लिए तैयार होने लगे। करीब साढ़े ग्यारह बजे हम मां दुर्गा के दर्शन व मेला घूमने के लिए निकल पड़े। सबसे पहले भुइयांडीह पहुंचे और वहां लगे पंडालों में मां के दर्शन किए। इस बार यहां पंडाल को देवघर के मंदिरों का रूप दिया गया था। काफी आकर्षक लग रहे थे। लेकिन, देव के लिए आकर्षण के  केंद्र तो वहां लगाए गए झूले थे। पहले देव ने घोड़े की सवारी की और फिर वह बड़ी वाली चर्खी (झूले) पर चढ़ने की जिद्द करने लगा। तय हुआ कि हम,  छोटू और देव एक साथ चर्खी पर बैठेंगे। हम एक ही साथ बैठे। जब झूला धीमी रफ्तार में था तो हम दोनों को कुछ भी एहसास नहीं हुआ। लेकिन,  देव खुश था। जैसे-जैसे उसकी रफ्तार बढ़ती गई हमारी तो जान निकलने लगी लेकिन,  देव की खुशी दूनी होने लगी। यहां से निकलकर हम आगे पंडाल में गए। वहां भी झूले लगे हुए थे। हमें लगा था कि अब वह फिर से झूले पर चढ़ने को नहीं कहेगा लेकिन,  हम गलत थे। जैसे ही उसने झूले को देखा वह मचलने लगा। जिद्द करने लगा। हमारी तो बोलती बंद हो गई।
खो गए बचपन की यादों में। पहली बार जब झूले पर चढ़े थे। उत्साह तो काफी था लेकिन,  जब झूले की रफ्तार तेज हुई तो जान ही हाथ में आ गई। भगवान से मना रहा था कि जल्दी झूला रुके और जान बचे। तब यह तय किया था कभी जिंदगी में झूले पर नहीं चढ़ेंगे। लेकिन देव की जिद्द के आगे संकल्प टिक नहीं पाया। झूले पर चढ़ गए और महसूस किया बदलते हुए जमाने को। हम जब सात-आठ वर्ष की उम्र में थे शायद ही कोई साथी झूले पर बैठने की हिम्मत जुटा पाते थे लेकिन, कल देखा कि केवल देव ही नहीं बल्कि उसकी उम्र के कई बच्चे रोमांचित थे। पूछने पर देव कहता है- लाइफ में एडवेंचर नहीं तो कुछ भी नहीं।
हम कई पंडाल घूमे और लगातार घूमते रहे। जहां कहीं भी नया दिखता देव प्रश्न करता और हम लोगों को उत्तर देने ही पड़ते। रात साढ़े ग्यारह बजे से सुबह पांच बजे तक घूमने में देव बिलकुल थका नहीं। हमें याद आ रहा था जब अंतिम बार दशहरा का मेला घूमे थे। उस समय नौवीं कक्षा में पढ़ते थे। तब हमें उतना ही उत्साह रहता था जितना उस समय देव था। कई बार तो अब भी बच्चा हो जाते थे। फिर सतर्क हो जाते थे कि बच्चे साथ में हैं।
अरे हम तो पुरानी कहानी को आगे बढ़ाना ही भूल गए। तो केकई ने काल का सारथी बनकर रावण के वध के लिए राम, लक्ष्मण और सीता को जंगल भेज दिया। वहां रावण ने अपनी बहन सूर्पणखा के कहने पर सीता का हरण कर लिया। इसके बाद राम ने हनुमान, सग्रीव, बाली और रावण के भाई विभीषण के साथ मिलकर एक सेना बनाई। रावण को समझौते के लिए प्रस्ताव दिया। लेकिन, उसे मंजूर नहीं था। युद्ध हुआ। रावण के सभी सगे संबंधी मारे गए। अहंकारी रावण जिसका प्राण नाभी में था उसका भेदन करके राम ने त्रिलोक को भयमुक्त कर दिया। आश्विन मास की दसवीं तिथि ही थी जब रावण को राम ने मारा था। इसलिए इस तिथि को विजया दशमी भी कहते हैं। इसी दिन मां दुर्गा ने शिक्त के रूप में अवतार लेकर महिषासुर नामक राक्षस का वध किया था। इसिलए यह दिन दशहरा और विजया दशमी के नाम से जाना जाता है।
समाप्त