रुपये को खा गया विदेशी निवेश
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।। डॉ भरत झुनझुनवाला ।।
(अर्थशास्त्री) |
देश की अर्थव्यवस्था सुदृढ़ करने के लिए सरकार को खपत कम और निवेश अधिक करने होंगे. विदेशी निवेश से प्राप्त रकम का सदुपयोग हाइवे तथा इंटरनेट सुविधाओं के लिए किया जायेगा, तभी रुपया स्थिर होगा. रुपये में आयी गिरावट का मूल कारण हमारे नेताओं का विदेशी निवेश के प्रति मोह है. विदेशी निवेश को आकर्षित करके देश को रकम मिलती रही. देश की सरकार इस रकम का उपयोग मनरेगा या भोजन का अधिकार जैसी योजनाओं के लिए या फिर सरकारी कर्मियों को बढ़े वेतन देने के लिए करती रही, साथ ही भ्रष्टाचार के माध्यम से इसका रिसाव भी करती रही.
2002 से 2011 तक यह व्यवस्था चलती रही. मान लीजिए विदेशी निवेशकों ने 100 डॉलर भारत लाकर जमा किया. सरकार ने इससे गेहूं का आयात किया और भोजन के अधिकार की पूर्ति के लिए इसे वितरित किया. गेहूं खत्म हो गया, लेकिन ऋण खड़ा रहा. विदेशी निवेश हमारे ऊपर एक प्रकार का ऋण होता है. अपनी रकम विदेशी निवेशक कभी भी वापस ले जा सकते हैं.
जिस प्रकार उद्यमी बैंक से ऋण लेता है, उसी तरह देश भी विदेशी निवेशकों से ऋण लेता है. दस वर्षो तक विदेशी निवेश आता रहा और देश पर ऋण चढ़ता रहा. लेकिन कब तक? जैसे व्यक्ति शराब पीता ही जाये, तो एक क्षण ऐसा आता है जब वह बेहोश हो जाता है. इसी प्रकार विदेशी निवेश के बढ़ते ऋण से रुपया बेहोश हो गया है.
ऐसा लगता है कि सरकार को इस परिस्थिति का पूर्वाभास हो गया था. इसीलिए पिछले एक वर्ष से विदेशी निवेश को आकर्षित करने के विशेष प्रयास किये गये हैं. विदेशी निवेश दो प्रकार का होता है- प्रत्यक्ष एवं संस्थागत. प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) में निवेशक भारत में कारखाना लगाता है, जैसे फोर्ड ने चेन्नई में कार बनाने का कारखाना लगाया. अथवा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में भारतीय कंपनी को खरीदा जाता है.
जैसे जापानी निवेशक ने रेनबैक्सी को खरीद लिया. प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के आने में समय लगता है. इसके वापस जाने में भी समय लगता है, चूंकि निवेशक को अपनी फैक्ट्री आदि बेचनी पड़ती है. दूसरे प्रकार का विदेशी निवेश संस्थागत कहा जाता है. इसमें किसी विदेशी संस्था द्वारा भारत में शेयर बाजार में निवेश किया जाता है. यह रकम शीघ्र आवागमन कर सकती है, चूंकि शेयर को खरीदना एवं बेचना एक क्लिक से हो जाता है. सरकार चाहती है कि दोनों में से कोई भी विदेशी निवेश आये. शेयर बाजार में आनेवाले संस्थागत निवेश का सरकार पर वश नहीं चलता है, लेकिन प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए नीति बनायी जा सकती है. सरकार ने सोचा कि देश को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए खोल देंगे, तो निवेशक को भारत पर भरोसा बनेगा.
वे सोचेंगे कि विदेशी कंपनियों के आगमन से भारत की अर्थव्यवस्था कुशल हो जायेगी. अर्थव्यवस्था की इस कुशलता के चलते संस्थागत निवेश भी आता रहेगा. इस योजना को लागू करने के लिए गये बीते समय में सरकार ने रक्षा, टेलीकॉम तथा बीमा के क्षेत्र में विदेशी निवेश की सीमा में वृद्घि की है.
पहले रक्षा क्षेत्र में 25 प्रतिशत से अधिक मिल्कियत विदेशी कंपनी द्वारा हासिल नहीं की जा सकती थी. अब इससे ज्यादा की जा सकती है. टेलीकॉम क्षेत्र में पहले 74 प्रतिशत विदेशी निवेश किया जा सकता था. अब 100 प्रतिशत किया जा सकेगा. बीमा क्षेत्र में सीमा 25 प्रतिशत से बढ़ा कर 49 प्रतिशत कर दी गयी है. सोच थी कि इन सीमाओं को बढ़ाने से विदेशी निवेशकों की रुचि बढ़ेगी, ज्यादा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश आयेगा, पीछे-पीछे संस्थागत विदेशी निवेश भी आयेगा और भारत की अर्थव्यवस्था चल निकलेगी.
इन सुधारों के कारण अधिक मात्र में विदेशी निवेश आयेगा और यह अर्थव्यवस्था के वर्तमान संकट से हमें तारने का काम करेगा, इसमें मुङो संशय था. पहला कारण यह कि नयी फैक्ट्रियों को लगाने के लिए विदेशी निवेश आने में समय लगता है. मान लीजिए कोई टेलीकॉम कंपनी भारत में धंधा करना चाहती है.
इसके लिए सबसे पहले सर्वे करायी जायेगी, उसकी रिपोर्ट बनेगी, बैंकों से अनुबंध होगा, सरकार से लाइसेंस लिया जायेगा, इसके बाद 2-3 साल में रकम धीरे-धीरे भारत आयेगी. अत: इस सुधार से वर्तमान संकट में राहत मिलने की संभावना कम ही है. दूसरा कारण कि लाभांश प्रेषण का भार बढ़ रहा था.
भारत में पूर्व में किये गये विदेशी निवेश पर विदेशी कंपनियां लाभ कमाती हैं. समय क्रम में वे इस लाभ को अधिक मात्र में अपने मुख्यालय भेजना शुरू कर देती हैं. 2010 में 4 अरब डॉलर, 2011 में 8 अरब डॉलर और 2012 में 12 अरब डॉलर लाभांश वापसी के रूप में बाहर भेजे गये. इससे हमारी अर्थव्यवस्था ज्यादा दबाव में आती है. आयातों के साथ-साथ हमें लाभांश प्रेषण के लिए भी डॉलर कमाने पड़ते हैं.
आगामी समय में यह रकम तेजी से बढ़ेगी. विदेशी निवेश खोलने से हमें कुछ रकम मिले, तो भी बढ़ते लाभांश प्रेषण से यह कट जायेगी. रिटेल और उड्डयन में विदेशी निवेश पहले खोला जा चुका था, लेकिन आवक शून्य रही. टेलीकाम आदि क्षेत्रों में भी यही परिणाम रहा.
इस प्रकार नये प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को लगातार आकर्षित करने की मनमोहन सिंह की नीति फेल हो गयी, लेकिन पूर्व में आये विदेशी निवेश का भार यथावत रहा. विदेशी निवेशकों को दिखने लगा कि भारत सरकार ने ऋण लेकर घी पीने की नीति को अपना रखी है. पिछले माह वह बिंदु आया कि विदेशी निवेशकों ने अपना पैसा वापस ले जाना शुरू कर दिया और रुपया बेहोश होकर तेजी से टूटने लगा.
इसलिए मूल समस्या मनमोहन सरकार की ऋण लेकर घी पीने की नीति की है. सरकार की नीति कोलकाता की शारदा चिट फंड से भिन्न नहीं है. शारदा के मालिक नये धारकों से रकम जमा कराते रहे और पुराने की रकम अदा करते रहे. कंपनी घाटे में चल रही थी, परंतु यह तब तक नहीं दिखा, जब तक नयी रकम आती रही. इसी प्रकार जब तक विदेशी निवेश आता रहा, तब तक घाटे में चल रही भारत सरकार जश्न मनाती रही. अब गुब्बारा फूट चुका है और रुपया लुढ़क रहा है.
मेरा अनुमान है कि रुपया 70 रुपये प्रति डॉलर के नजदीक स्थिर हो जायेगा. लेकिन इससे अल्पकालिक राहत मिलेगी. देश की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए सरकार को खपत कम और निवेश अधिक करने होंगे. विदेशी निवेश से प्राप्त रकम का सदुपयोग हाइवे तथा इंटरनेट सुविधाओं के लिए किया जायेगा, तभी सही मायने में रुपया स्थिर होगा. साभार प्रभात खबर जमशेदपुर.
ऐसा लगता है कि सरकार को इस परिस्थिति का पूर्वाभास हो गया था. इसीलिए पिछले एक वर्ष से विदेशी निवेश को आकर्षित करने के विशेष प्रयास किये गये हैं. विदेशी निवेश दो प्रकार का होता है- प्रत्यक्ष एवं संस्थागत. प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) में निवेशक भारत में कारखाना लगाता है, जैसे फोर्ड ने चेन्नई में कार बनाने का कारखाना लगाया. अथवा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में भारतीय कंपनी को खरीदा जाता है.
जैसे जापानी निवेशक ने रेनबैक्सी को खरीद लिया. प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के आने में समय लगता है. इसके वापस जाने में भी समय लगता है, चूंकि निवेशक को अपनी फैक्ट्री आदि बेचनी पड़ती है. दूसरे प्रकार का विदेशी निवेश संस्थागत कहा जाता है. इसमें किसी विदेशी संस्था द्वारा भारत में शेयर बाजार में निवेश किया जाता है. यह रकम शीघ्र आवागमन कर सकती है, चूंकि शेयर को खरीदना एवं बेचना एक क्लिक से हो जाता है. सरकार चाहती है कि दोनों में से कोई भी विदेशी निवेश आये. शेयर बाजार में आनेवाले संस्थागत निवेश का सरकार पर वश नहीं चलता है, लेकिन प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए नीति बनायी जा सकती है. सरकार ने सोचा कि देश को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए खोल देंगे, तो निवेशक को भारत पर भरोसा बनेगा.
वे सोचेंगे कि विदेशी कंपनियों के आगमन से भारत की अर्थव्यवस्था कुशल हो जायेगी. अर्थव्यवस्था की इस कुशलता के चलते संस्थागत निवेश भी आता रहेगा. इस योजना को लागू करने के लिए गये बीते समय में सरकार ने रक्षा, टेलीकॉम तथा बीमा के क्षेत्र में विदेशी निवेश की सीमा में वृद्घि की है.
पहले रक्षा क्षेत्र में 25 प्रतिशत से अधिक मिल्कियत विदेशी कंपनी द्वारा हासिल नहीं की जा सकती थी. अब इससे ज्यादा की जा सकती है. टेलीकॉम क्षेत्र में पहले 74 प्रतिशत विदेशी निवेश किया जा सकता था. अब 100 प्रतिशत किया जा सकेगा. बीमा क्षेत्र में सीमा 25 प्रतिशत से बढ़ा कर 49 प्रतिशत कर दी गयी है. सोच थी कि इन सीमाओं को बढ़ाने से विदेशी निवेशकों की रुचि बढ़ेगी, ज्यादा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश आयेगा, पीछे-पीछे संस्थागत विदेशी निवेश भी आयेगा और भारत की अर्थव्यवस्था चल निकलेगी.
इन सुधारों के कारण अधिक मात्र में विदेशी निवेश आयेगा और यह अर्थव्यवस्था के वर्तमान संकट से हमें तारने का काम करेगा, इसमें मुङो संशय था. पहला कारण यह कि नयी फैक्ट्रियों को लगाने के लिए विदेशी निवेश आने में समय लगता है. मान लीजिए कोई टेलीकॉम कंपनी भारत में धंधा करना चाहती है.
इसके लिए सबसे पहले सर्वे करायी जायेगी, उसकी रिपोर्ट बनेगी, बैंकों से अनुबंध होगा, सरकार से लाइसेंस लिया जायेगा, इसके बाद 2-3 साल में रकम धीरे-धीरे भारत आयेगी. अत: इस सुधार से वर्तमान संकट में राहत मिलने की संभावना कम ही है. दूसरा कारण कि लाभांश प्रेषण का भार बढ़ रहा था.
भारत में पूर्व में किये गये विदेशी निवेश पर विदेशी कंपनियां लाभ कमाती हैं. समय क्रम में वे इस लाभ को अधिक मात्र में अपने मुख्यालय भेजना शुरू कर देती हैं. 2010 में 4 अरब डॉलर, 2011 में 8 अरब डॉलर और 2012 में 12 अरब डॉलर लाभांश वापसी के रूप में बाहर भेजे गये. इससे हमारी अर्थव्यवस्था ज्यादा दबाव में आती है. आयातों के साथ-साथ हमें लाभांश प्रेषण के लिए भी डॉलर कमाने पड़ते हैं.
आगामी समय में यह रकम तेजी से बढ़ेगी. विदेशी निवेश खोलने से हमें कुछ रकम मिले, तो भी बढ़ते लाभांश प्रेषण से यह कट जायेगी. रिटेल और उड्डयन में विदेशी निवेश पहले खोला जा चुका था, लेकिन आवक शून्य रही. टेलीकाम आदि क्षेत्रों में भी यही परिणाम रहा.
इस प्रकार नये प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को लगातार आकर्षित करने की मनमोहन सिंह की नीति फेल हो गयी, लेकिन पूर्व में आये विदेशी निवेश का भार यथावत रहा. विदेशी निवेशकों को दिखने लगा कि भारत सरकार ने ऋण लेकर घी पीने की नीति को अपना रखी है. पिछले माह वह बिंदु आया कि विदेशी निवेशकों ने अपना पैसा वापस ले जाना शुरू कर दिया और रुपया बेहोश होकर तेजी से टूटने लगा.
इसलिए मूल समस्या मनमोहन सरकार की ऋण लेकर घी पीने की नीति की है. सरकार की नीति कोलकाता की शारदा चिट फंड से भिन्न नहीं है. शारदा के मालिक नये धारकों से रकम जमा कराते रहे और पुराने की रकम अदा करते रहे. कंपनी घाटे में चल रही थी, परंतु यह तब तक नहीं दिखा, जब तक नयी रकम आती रही. इसी प्रकार जब तक विदेशी निवेश आता रहा, तब तक घाटे में चल रही भारत सरकार जश्न मनाती रही. अब गुब्बारा फूट चुका है और रुपया लुढ़क रहा है.
मेरा अनुमान है कि रुपया 70 रुपये प्रति डॉलर के नजदीक स्थिर हो जायेगा. लेकिन इससे अल्पकालिक राहत मिलेगी. देश की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए सरकार को खपत कम और निवेश अधिक करने होंगे. विदेशी निवेश से प्राप्त रकम का सदुपयोग हाइवे तथा इंटरनेट सुविधाओं के लिए किया जायेगा, तभी सही मायने में रुपया स्थिर होगा. साभार प्रभात खबर जमशेदपुर.
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बहुत दिलचस्प है भारतीय रेल के विकास की कहानी
16 अप्रैल को भारतीय रेल ने अपने 160 साल पूरे कर लिये हैं. 16 अप्रैल 1853 को पहली यात्री ट्रेन भारतीय उपमहाद्वीप में चली. इस ट्रेन ने अपने पहले सफर में 21 मील की दूरी तय की. इस सफर की शुरु आत बांबे से ठाणे के लिए हुई. इस ट्रेन को बोरीबंदर से 3:30 बजे दोपहर बाद ठाणे के लिए रवाना किया गया था. यह भारत के इतिहास की बेहद अहम व महत्वपूर्ण घटना थी. यात्री ट्रेन की पहली यात्रा के लिए भव्य समारोह आयोजित किया गया था. इस ट्रेन को 21 बंदूकों की सलामी दी गयी थी. ट्रेन में 14 डिब्बे थे, जिन्हें तीन लोकोमोटिव सुल्तान, सिंध और साहिब खींच रहे थे. इस ट्रेन को चलाने का श्रेय ग्रेट इंडियन पेनिनसुला रेलवे (जीआइपी रेलवे) को जाता है, जिसका स्वतंत्रता के बाद नाम बदल कर सेंट्रल रेलवे कर दिया गया. भारतीय रेलवे अपने 160 साल के सफर में कई महत्वपूर्ण बदलावों सेगुजरी है.
आज भारतीय रेल दुनिया की सबसे बड़ी रेल प्रणाली है, जो एक लाख 15 हजार किलोमीटर के ट्रैक, 65 हजार किलोमीटर के रूट और सात हजार पांच सौ स्टेशनों के बीच फैला हुआ है. भारतीय रेल दुनिया का नौवां सबसे बड.ा नियोक्ता है. इसके कर्मचारियों की संख्या लगभग 14 लाख है. आज भारतीय रेल के पास दो लाख 39 हजार दो सौ 81 फ्रेट वैगन, 59 हजार सात सौ 13 पैसेंजर कोच और नौ हजार पांच सौ 49 लोकोमोटिव इंजिन हैं. इनमें भाप से चलनेवाले 43, डीजल से चलनेवाले पांच हजार एक सौ 97 और बिजली से चलनेवाले चार हजार तीन सौ नौ इंजिन शामिल हैं.
क्या आप जानते हैं
- जंक्शन जहां से सबसे ज्यादा रूट शुरू होते हैं : मथुरा से सात रूट शुरू होते हैं. इसके बाद छह रूट बठिंडा, पांच रूट लखनऊ, गुंटकाल, कटनी, वारणसी, कानपुर, वेल्लुपुरम, दभाई और नागपुर हैं.
- सबसे ज्यादा सामानांतर ट्रैक/ एक स्टेशन पर तीन गेज : बांद्रा टर्मिनल और अंधेरी के बीच 10 किमी तक सात समानांतर ट्रैक हैं. सिलीगुड.ी स्टेशन में तीन गेज हैं.
- दो स्टेशन एक ही स्थान पर : महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में श्रीरामपुर और बेलापुर दो अलग-अलग स्टेशन हैं, लेकिन ये एक ही स्थान पर हैं.
- सबसे ताकतवर इंजन : इलेक्ट्रिक लोकोमोटिव डब्ल्यूएजी-9 भारतीय रेलवे का सबसे शक्तिशाली इंजन हैं. इसकी क्षमता 6,350 हार्स पॉवर है. यह 24 कोच को 150 से 160 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से दौड. सकता है.स्टेशनों के सबसे छोटे और सबसे बडे. नाम : अंगरेजी वर्तनी के हिसाब से सबसे छोटे स्टेशन का नाम इब है. यह ओड़ीशा के झारसुगुड़ा के पास और आणंद गुजरात के पास ओड है. सबसे लंबे रेलवे स्टेशन का नाम व्यंकटनर्सिम्हाराजूवारिपेटा है, जो चेत्रई के पास अरक्कोनाम-रेनीगुंटा सेक्शन पर है.भारत की सबसे तेज ट्रेन : नयी दिल्ली से भोपाल तक चलनेवाली शताब्दी एक्सप्रेस की अधिकतम गति 150 किमी प्रति घंटे है. यह ट्रेन 704 किमी की नयी दिल्ली और भोपाल के बीच की दूरी को 7 घंटे 50 मिनट में तय करती है।
- सबसे लंबी और कम दूरी तक चलनेवाली ट्रेन : विवेक एक्सप्रेस डिब्रूगढ. से कन्याकुमारी तक की 4,273 किमी की दूरी तय करती है. सबसे कम दूरी नागपुर और अजनी रेलवे स्टेशन के बीच की है, महज तीन किमी.
- सबसे लेट-लतीफ ट्रेन : समय के पालन में सबसे ढीलीढाली ट्रेनों में गुवाहाटी-त्रिवेद्रम का नाम शामिल है. इसकी यात्रा का समय 65 घंटे 5 मिनट है, लेकिन यह औसतन 10-12 घंटे देर से चलती है.
- भारतीय रेल का सबसे लंबा प्लेटफॉर्म खड.गपुर, पश्चिम बंगाल में स्थित है. इस प्लेटफॉर्म की लंबाई दो हजार सात सौ 33 फीट है.
- भारतीय रेलवे के छत्रपति शिवाजी टर्मिनल्स और द माउंटेन रेलवेज ऑफ इंडिया को यूनेस्को ने वर्ल्ड हेरिटेज साइट्स का दरजा दिया है.
- केरल स्थित वेंबानाद रेल ब्रिज भारतीय रेल का सबसे बड.ा रेल पुल है. इसकी लंबाई 4.62 किलोमीटर है.
- कोंकण रेलवे का कारब्यूड टनल भारतीय रेल का सबसे बड.ा टनल (सुरंग) है. इसकी लंबाई 6.5 किलोमीटर है.
- भारतीय रेल की पहली डबल डेकर ट्रेन पुणे से मुंबई तक चलनेवाली सिंहगड. एक्सप्रेस थी.
- 1851 में भारत का पहला स्टीम लोकोमोटिव थॉम्पसन का उपयोग रु ड.की में कंस्ट्रक्शन वर्क के लिए किया गया था. भाप से चलने वाले ये इंजन भारतीय रेल में एक शताब्दी तक बने रहे. 1972 के बाद इनका उत्पादन बंद किया गया.
- पहली इलेक्ट्रिक ट्रेन विक्टोरिया टर्मिनल से कुर्ला की बीच 1925 को शुरू की गयी थी।
- यात्री ट्रेनों में 1936 में एयर कंडीशनिंग सिस्टम शुरू किया गया था. नवंबर 2010 में भारतीय रेल ने धनबाद और हावड.ा स्टेशन के बीच चलनेवाली पहली डबल डेकर एसी ट्रेन शुरू की.
- पहली राजधानी एक्सप्रेस 1969 में हावड.ा से नयी दिल्ली शुरू की गयी थी. यह भारत की पहली सुपर फास्ट और पहली फुली एयर कंडीशंड ट्रेन थी. पहली शताब्दी ट्रेन 1988 में दिल्ली से झांसी के बीच शुरू की गयी थी.
- ग्रेट इंडियन पेनिनसुला रेलवे ने 1891 में ट्रेन के प्रथम श्रेणी के डिब्बों में टॉयलेट लगाये गये थे. इस क्लास के डिब्बों में अधिकतर अंगरेज ही सफर किया करते थे. इसके 16 साल बाद 1907 में निम्न दर्जे के डिब्बों में टॉयलेट फिट किये गये थे.
- भारतीय रेलवे ने 1985 में कंप्यूटराइज्ड पैसेंजर रिर्जवेशन सिस्टम (पीआरएस) की शुरु आत की थी.
- 2005 में ई-टिकिटंग की शुरुआत हुई.
जब रेलवे बनी शाही सवारी
भारतीय रेल अपने नियमित यात्रियों को जेनरल, स्लीपर क्लास, चेयर कार, एसी वन, टू और थ्री टायर सहित अलग-अलग तरह की बोगियों में उनके गंतव्य तक तो पहुंचाती ही है, इसके साथ ही रेलवे ने देश को घूमने और करीब से जानने की चाहत रखनेवाले लोगों के लिए विशेष सुविधाओं से सजी कुछ खास ट्रेनें भी शुरू की हैं. इनमें आपको बैठने के लिए कुरसी-टेबुल, सोने के लिए सजा-सजाया बिस्तर, गरमागरम खाना खाने के लिए रेस्त्रां, मनोरंजन के लिए टीवी, डीवीडी प्लेयर, वाई-फाई इंटरनेट आदि सारी सुविधाएं मिलेंगी. अब आप सोच रहे होंगे कि यह ट्रेन है या कोई होटल. तो हम आपको यह बताते चलें कि देश भर के कुछ चुनिंदा स्थानों पर ऐसी ट्रेनें चलायी जा रही हैं, जिनमें आपके घूमने-फिरने के अलावा आपके आराम के भी सारे इंतजाम मौजूद हैं.
शाही सवारी गाड़ियाँ और उनके रूट
- फेयरी क्वीन-दिल्ली, रणथंभौर, उदयपुर, जयपुर, जैसलमेर, अलवर
- पैलेस ऑन व्हील्स-दिल्ली, जयपुर, चित्ताैड.गढ., जैसलमेर, भरतपुर, आगरा
- रॉयल राजस्थान ऑन व्हील्स- नयी दिल्ली, जोधपुर, उदयपुर, चित्ताैड., सवाई-माधोपुर, जयपुर
- गोल्डेन चैरियट-बेंगलुरु, मैसूर, बेलुर, हंपी, गोवा
- डेक्कन ओडिसी-मुंबई, रत्नागिरी, सिंधुदुर्ग, गोवा, पुणे, औरंगाबाद, अजंता-एलोरा
- महाराजा एक्सप्रेस-आगरा, फतेहपुर सीकरी, जयपुर, खजुराहो, रणथंभोर, वाराणसी, लखनऊ
साभार प्रभात खबर जमशेदपुर.
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