शनिवार, 16 मई 2020

तब दिल्ली दूर थी और अब गांव दूर है भाई!

-कुणाल देव-                                                                                                                  

रात करीब डेढ़ बजे हैं। ऑफिस से लौट रहा हूं। दफ्तर से मेरा घर सिर्फ नौ किलोमीटर दूर है, तब भी लौटने की जल्दी होती है। घर आने के लिए नोएडा सेक्टर-62 अंडरपास से गुजरना पड़ता है। रास्ते में मेरे साथ कामगारों का रेला चल रहा है। उन्हें हजारों किलोमीटर दूर जाना है। जल्दी उन्हें भी है, लेकिन जब मंजिल दूर हो और संसाधन कुछ भी उपलब्ध नहीं तो अपने सामर्थ्य की सीमा तय करनी ही पड़ती है। कामगारों के काफिले में महिलाएं और बच्चे भी शामिल हैं। जिससे जितना बन पड़ता है बोझ भी उठा रहा है। ये गठरी-मोटरी औरों के लिए कुछ नहीं होंगी, लेकिन कामगारों की जिंदगी भर की कमाई है। कष्ट इनके लिए नया नहीं है। पर्व-त्योहार पर रेलगाड़ियों में धक्के खाकर, खड़े रहकर घर जाने की इन्हें आदत है, लेकिन अबकी जो चोट इनके मन पर लगी है उसे ये जल्दी नहीं भूलने वाले।
जड़ों की ओर-1
            रेले में चार युवक अलग-अलग चलते दिखाई दिए। मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ। गाड़ी धीमी की और उनसे पूछा कि ट्रेनें तो चल गई हैं आप पैदल कहां जा रहे हैं। जवाब मिला कि इन श्रमिक विशेष ट्रेनों में जगह पाना आसान नहीं। पैदल चलने से ज्यादा मशक्कत करनी पड़ रही है। बातचीत में एक युवक बताता है कि वह जहानाबाद (बिहार) का रहने वाला है और उसके साथ के तीन अन्य वाराणसी के। चारों नोएडा सेक्टर सात में एक फैक्ट्री में काम करते थे। वह फैक्ट्री घरों में लगने वाली कुंडियां बनाती है। जब लॉकडाउन शुरू हुआ था तब फैक्ट्री मालिक ने बहुत भरोसा दिया था। रुकने के लिए कहा था। वेतन देने की बात कही थी। राशन आदि की मदद दी भी थी। लेकिन, जैसे-जैसे लॉकडाउन बढ़ता गया, कंपनी के मालिक ने दूरी बनानी शुरू कर दी। इन युवकों को पहले की बचत के बूते दिन काटने पड़े। युवकों ने मालिक से राशन व पैसे खत्म होने की बात कही। पहले तो मालिक टाल-मटोल करता रहा, लेकिन जब इन्होंने दबाव बनाया तो उसने मार्च का वेतन देकर कहा कि काम अभी नहीं शुरू होने वाला है। तुमलोग अपने गांव लौट जाओ। कुछ दिन रुककर इन्होंने ट्रेन आदि से घर लौटने की कोशिश की। इस बीच पैसे खर्च होते गए। सारे पैसे खत्म हो जाते तो घर लौटने का कोई भरोसा भी नहीं बचता। पैदल घर कैसे लौट पाओगे, युवक कहते हैं- गाजियाबाद से गुजर रहे जीटी रोड तक पैदल जाएंगे और फिर ट्रकों का इंतजार करेंगे। भीड़ देखकर तो ट्रक वाले भी नहीं रुकते, इसलिए हम चार लोग अलग-अलग चल रहे हैं। उम्मीद है हमें कोई ट्रकवाला बैठा लेगा और कुछ पैसे लेकर कुछ दूर छोड़ देगा। आगे भी ऐसे ही हम घर तक पहुंचने की कोशिश करेंगे। जब कोई जुगाड़ नहीं लगेगा तो पैदल ही चल देंगे।
     लॉकडाउन की शुरुआत में जब लोगों ने घर जाने की जल्दी की थी और आनंदविहार बसअड्डे पर भीड़ इकट्ठा हुई थी तो बहुत गुस्सा आया था। लगा था कि जान सांसत में डालकर घर लौटने की इतनी भी क्या जल्दी है। खासकर तब जबकि सरकार उन्हें हर समस्या के समाधान का भरोसा दे रही है। संस्थाएं आगे बढ़कर उनका मदद कर रही हैं। सरकार ने भी फैक्ट्री और कंपनी मालिकों से कामगारों को वेतन व अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराने की अपील की है। सच पूछिए तो तब नहीं लगा था कि जिन कामगारों के खून से दिल्ली-एनसीआर की बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएं और कंपनियां खड़ी हुई हैं, उनके मालिकों का दिल इतना छोटा निकलेगा कि वे अपने नींव के पत्थरों का भार एक-दो महीने भी नहीं उठा पाएंगे। आज जब दिल्ली-एनसीआर से पलायन का दूसरा दौर शुरू हुआ है तो खुद पर और बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं व कंपनियों के मालिकों के प्रति अपनी सोच पर ग्लानि होती है। मुझे समझना चाहिए था कि जो लोग सिर्फ लेना जानते हैं वे कुछ भी मुफ्त में भला क्यों देने लगे। 
    
       घर लौटकर जब माताजी से हमने यह बात साझा की तो वह अचंभित रह गईं। बोलीं-इहां से जहानाबाद तो बाबाधाम से भी दूर होगा। जब मैंने बताया कि बाबाधाम से छह गुना ज्यादा दूर है तो वह हताश हो गईं। मेरे जेहन में बचपन की याद तैयर गई- शायद क्लास छह में पढ़ता था। औरंगाबाद से मेरा गांव आठ किलोमीटर पड़ता है। एक दिन औरंगाबाद से गांव पैदल ही पहुंच गया था। मेरी मां इतना चिंतित हो गई थीं कि कई दिनों तक हल्दी का दूध पिलातीं और सरसों तेल गर्म करके पैरों की मालिश करती थीं। जो हजार  दो हजार किलोमीटर पैदल चलकर घर पहुंच रहे हैं उनके पैरों की हालत क्या होती होगी। फेसबुक और ट्विटर आदि सोशल मीडिया पर मजदूरों के पैरों की तस्वीरें विचिलत कर देती हैं। कुछ लोग इन तस्वीरों पर अविश्वास भी कर रहे हैं। ऐसे लोगों से मैं सिर्फ इतना आग्रह करना चाहता हूं कि एक दिन दोपहर में 10 किलोमीटर पैदल चलकर अपने पैरों की हालत देख लें और फिर सच और झूठ का फैसला खुद ही कर लें।

क्रमश...