मंगलवार, 4 अक्टूबर 2011

दशहरे की छुट्टी-4


जमाना बदल गया 
जाने कई बार अपने कंधों पर बैठाकर पापा ने गड्ढों को पार करवाया। जीवन की पगडंडी पर जब भी लखड़ाते पापा अपना कंधा आगे कर देते। डांटते-फटकारते भी लेकिन,  रात को जब सोते समय अपने ललाट पर पापा के होठों की नर्माहट महसूस करता तो सारी शिकायतें दूर हो जातीं। महसूस होता कि उनका लहू जो हमारी नसों में बह रहा है वह एक दिन ज्यादा गाढ़ा हो जाएगा और शायद यही कसमसाहट जो पीढ़ी के अंतर होने के कारण उनके और हमारे बीच है वही हमारे और हमारे बच्चे के बीच पैदा होगी। सृष्टि के प्रारंभ के साथ ही जो मानव के भीतर नवोन्मेषी प्रवृत्ति भर गई थी शायद वही इस पीढ़ी के बीच भावों और विचारों के अंतर के लिए जिम्मेदार है। पापा इन पीढ़ियों के बीच हद तक सामंजस्य बैठाते रहे लेकिन,  अब जबकि उम्र के इस पड़ाव पर हम पहुंच गए हैं डर लगता है कि अगली पीढ़ी के साथ कैसे सामंजस्य बैठा पाएंगे।
अरे हम कहां भटक गए। हां तो पापा ने गड्ढा पार करवाया,  लेकिन बात फिर से शुरू नहीं की। कुछ देर तक तो हम भी इंतजार करते रहे परंतु फिर रहा नहीं गया। टोका पापा,  आगे तो बताइए।
पापा भी मश्करे के मूड में थे। बोले, क्या आगे। आगे तो घर आने वाला है।
अरे नहीं पापा,  वो भगवानजी वाली कहानी में आगे क्या हुआ? हमने हिचकोले खाते हुए कहा।
अच्छा तो आप इसे कहानी मानते हैं। चलिए,  कोई बात नहीं। लेकिन, हर कहानी में जीवन का रहस्य और भविष्य की सीख। क्या आपको इस कहानी से जीवन का रहस्य पता कर पा रहे हैं या कोई सीख ले पा रहे हैं?
हां पापा। रावण को मारने के लिए भगवान को पैदा होना पड़ा। मतलब,  जब भी सत्य पर असत्य भारी पड़ने लगता है तब भगवान अवतार लेते हैं।
चलिए, कम से कम आपको इतना तो समझ आया। अब आगे सुनिए-
राक्षसों को खत्म करने की जिम्मेदारी तो दे दी गई लेकिन,  उन्हें यह नहीं बताया गया कि आगे की रणनीति क्या होगी।
बेचारे विष्णु भगवान ने तय किया कि उन्हें अब धरती पर अवतार लेना होगा। क्योंकि, चौरासी लाख योनियों में एक मनुष्य ही एक ऐसी योनी है जिसके पास विनाश और निर्माण दोनों की शक्ति होती है।
तीन-तीन शादियों के बावजूद पुत्र रत्न से महरूम थे। वह लगातार यज्ञ करा रहे थे। इस समय वह एक मनोकामना सिद्धी यज्ञ करवा रहे थे। विष्णुजी ने एक तीर से दो शिकार किया। उन्होंने खुद अवतार लेकर दशरथ को राज्य का वारिश दे दिया और पृथ्वी को रावण से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर दिया। यही नहीं, भगवान विष्णु की सवारी शेषनाग ने भी लक्ष्मण के रूप में दशरथ के यहां ही अवतार लिया। भरत और शत्रुघ्न नामक दो और पुत्र राजा दशरथ को हुए।
चंद्र की कलाओं की तरह चारो बालक बड़े होने लगे। तीनों रानियों व चारों राजकुमारों में इतना पटता कि रावण वध का कोई कारण बनता दिखाई नहीं देता। इसलिए काल ने राजकुमारों को पढ़ने के लिए गुरुकुल में भेजने की रणनीति बनाई। वहां भी चारों राजकुमार पढ़ते तथा मर्यादा का पालन करते हुए एक दूसरे को परस्पर आदर और स्नेह देते। चारों राजकुमारों ने मिलकर महर्षि विश्वामित्र व वशिष्ठ के कई यज्ञों की रक्षा की। किशोरावस्था पार करने व शिक्षा प्राप्त करने के बाद चारों युवराज अयोध्या लौटे। लेकिन,  इससे पहले मिथिला के राजा जनक ने अपनी पुत्री सीता का स्वयंवर रखा। उन्हें शर्त रखी कि जो भी शिव धनुष को तोड़ेगा उसके साथ ही सीता का विवाह होगा। महर्षि के साथ राम, लक्ष्मण,  भरत व शत्रुघ्न भी वहां पहुंचे। वहां स्वयंवर की शर्त पूरी करते हुए श्रीराम और सीता की शादी हुई। साथ ही वहीं भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न की भी शादी हई।
अयोध्या लौटने के बाद दशरथ ने राम को भावी महाराज बनाने की घोषणा कर दी। इसे जनता ने और महारानियों ने भी सहर्ष स्वीकार कर लिया। लेकिन,  भगवान विष्णु के अवतार लेने का उद्देश्य सफल नहीं हो पा रहा था। इसलिए उन्होंने काल को मंथरा के रूप में दशरथ के राजमहल में प्रवेश करा दिया। मंथरा ने युवराज भरत की मां को राम के प्रति भड़काया। केकई ने कोपभवन का रुख किया। दशरथ उन्हें मनाने पहुंचे। केकई ने राम को चौदह वर्ष के लिए वनवास और भरत को राज्याभिषेक के लिए राजा दशरथ को मना लिया।
आप जानते हैं कि दशरथ जैसे प्रतापी राजा ने आखिर केकई की ऐसी शर्त मान क्यों ली?
नहीं पापा।
केकई वास्तव में एक कुशल योद्धा थीं। जब दशरथ युद्ध पर जाते तो केकई भी उनके साथ जाती थीं। एक बार युद्ध के दौरान राजा दशरथ के रथ की धूरी टूट गई और वे दुश्मनों से घिर गए। तब केकई ने उनकी जान बचाई थी। इसके बदले में ही दशरथ ने ही केकई की शर्त स्वीकार की।
लो घर भी आ गया। जरा बाल्टी और लोटा तो ले आइएगा। भैंस को धो (नहला) दें। इसके बाद चारा देना होगा।
और कहानी पापा? हमने उदास मन से पूछा।
बेटा, कहानी फिर सुना देंगे। बेचारी भैंस सुबह से ही बंधी है। चारा नहीं खिलाया तो दूध नहीं देगी। फिर दूध-रोटी का क्या होगा?
क्रमशः जारी