शब्द नहीं बचे मेरे पास (कवि मन)
अपने।
जो थे बेच दिए
दुकान-दुकान पर
कोने-कोने में मेरे शब्द तैरते हैं
उनकी नाद सुनाई देती है
मुझे
पर
उनमें अपनापन नहीं
लगाव नहीं
दूरी है
कुछ सहज और
कुछ जानबूझकर।
कहते हैं, बाजार है
अब अपनाना मुश्किल है।
बहुत मुश्किल
और
अगर अपना भी लिए
तो
तुम होगे
मेरे दूसरे खरीददार।
हक नहीं होगा तुम्हें
एकमेव
मालिक होने का।
क्योंकि
जब मुझसे
मेरी आत्मा से
तुम एक शरीर गढ़ते थे
उसमें खून होता था,
संवेदना भी।
उसमें गति थी
वेग भी था
और अब
मैं घिस चुका हूं
नजाने कितनी बार
अनाड़ियों के हाथों
हुआ है मेरा दुराचार।
कई सौदागरों से
अनगिनत बार हुआ है सौदा
न जाने कितनी बार
महफिल जमी है
और कितनी बार
उसी सुहाग सेज पर
नई चादर की मानिंद
बिछा हूं मैं।
कई बार नींद में ही
हुआ हूं मैं कामरत
और
दिन के उजियारे में
देखा है अपना
भग्नावशेष।
खैर तुम नहीं समझोगे
रहने दो
क्योंकि
तुम जानते हो
मेरे अस्तित्व को
अपशब्द...अशब्द...निःशब्द