तीन चौथाई स्मृति की रेखाएं

...ताकि कहना न पड़े कि जमाना बदल गया

आप सभी आदरणीय जन के आशीर्वाद और प्रिय साथियों की दुआओं का असर है कि दिमाग में जमा अवसाद का लावा अब पिघलने लगा है। हमारे परिवार के कठिन दिनों में आप सभी ने काफी संबल दिया। जो जितना कर सकता था, किया। आप सभी को बारंबार नमन, वंदन...
पापा, जिन्होंने पाला और
दुनिया के लायक बनाया


पूरी दुनिया आज फादर्स डे मना रही है। मैं और मेरे जैसे कई लोग अब तक इस दिवस विशेष को स्वीकार नहीं कर पाए। लेकिन, अस्वीकृति का अर्थ विरोध कतई नहीं है। यह दिवस भी पाश्चात्य परंपरा का हिस्सा है और हमें सभी की परंपराओं का कम से कम सम्मान तो जरूर ही करना चाहिए। हां, भारतीय परंपरा में कुछ ऋण ऐसे बताए गए हैं, जो आजन्म बरकरार रहते हैं। उनमें से एक है पितृ ऋण। यह ऋण साहूकारों वाला नहीं है, जिसे चुकाकर आप मुक्त हो जाएं, बल्कि भावनाओं, संवेदनाओं और संस्कारों का यह ऋण पीढ़ी दर पीढ़ी बरकरार रहता है। यह बात दूसरी है कि कामनाओं और लिप्सा का दावानल अब एक हद तक भावनाओं, संवेदनाओं और संस्कारों को अपनी गिरफ्त में लेना शुरू कर दिया है। शहरों में खुलने वाले बुजुर्ग आश्रम इसके प्रमाण हैं। मुझे लगता है कि जब भी कोई बुजुर्ग आश्रम खुलता है तो वह परिवार के बिखराव की कहानी को एक बार फिर दोहराता है। हालांकि, माता-पिता की सेवा और देखभाल को बच्चों की जिम्मेदारी बनाकर सरकार ने भारतीय परंपरा के बिखराव को रोकने की सराहनीय पहल की है। 
पापा, जिन्होंने जन्म दिया


कोरोना की दूसरी लहर ने संयुक्त परिवार की महत्ता को फिर से स्थापित किया है। परिवार में तनाव और खटपट तो होते रहते हैं। और परिवार ही क्या जहां भी एक से ज्यादा लोग रहते हैं, वहां इसकी गुंजाइश बनी रहती है तो इसका इसका अर्थ यह तो नहीं हुआ कि आप अलग हो लें। हिंदुस्तान के कई संयुक्त परिवारों में से एक मेरा भी है। पापा दो भाई थे और दोनों ही हमारे पापा थे। हमारे यानी तीन भाई और तीन बहनों के। एक पापा ने जन्म दिया तो दूसरे ने पालापोसा और दुनिया में जगह बनाने के काबिल बनाया। पापा तो 13 साल पहले गोलोकवासी हो गए थे, लेकिन पापा (बड़े) का साया हम सभी भाई बहनों पर एकसमान बना रहा। नौ मई को वह साया भी हम सभी के सिर से उठ गया। अब तक हम भाई बहन परिवार और समाज की कई जिम्मेदारियों से मुक्त थे। सारी जिम्मेदारियां पापा उठा लिया करते थे। कई बार कहते भी थे कि तुमलोग कब समझोगे और हम हंसकर कह दिया करते थे-अभी काफी टाइम है। पता नहीं था कि एक दिन पापा हमें छोड़कर चले जाएंगे और तमाम जिम्मेदारियों का हमारा टाइम यकायक हमारे कंधों पर आ गिरेगा। पापा रामचरित मानस की एक चौपाई पढ़ा करते थे- प्रात काल उठि कै रघुनाथा, मातु पिता गुरु नावहिं माथा। पापा के मुंह से जब पहली बार यह चौपाई सुनी थी उसी दिन से इसके मर्म का पालन कर रहा हूं और खुशी है कि हमारे बाद की पीढ़ी भी इसके मर्म को समझ रही है। ईश्वर से प्रार्थना है कि दुनिया के सभी पिता को वह सम्मान और नेह मिले जिसके वे हकदार हैं। क्यों न हम रोज फादर्स डे मनाएं, मदर्स डे मनाएं ताकि जब हमारा बुढ़ापा आए तो यह न कहना पड़े कि जमाना बदल गया है...

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पापा के बगैर दस साल...


पापा के गुजरे आज दस साल हो गए। जब वे होते थे तो हमारा एक गांव होता था। वहां हमारा एक घर होता था। वहां जाने की ललक होती थी। पापा क्या गुजरे गांव खत्म हो गया, घर खत्म हो गया...बच गई सिर्फ संपत्ति।
पापा होते थे तो तीन-चार महीने में गांव का चक्कर लग ही जाता था। स्थितियां बहुत अच्छी नहीं रहीं तब भी साल में कम से कम दो बार तो जरूर हो लेता था और वे दिन हमारी जिंदगी के सबसे अच्छे होते थे।
           पापा जब गुजरे तब हमारा बेटा छह साल का था। मेरे दादाजी जब गुजरे थे तब मैं भी करीब उसी उम्र का था। वह मुझे बहुत मानते थे। लोग कहते हैं कि दादाजी मुझे ईश्वर से मांग लाए थे, वरना मेरे माता-पिता संतान सुख पा सकेंगे... ऐसा कम ही लोगों को भरोसा था। दादाजी शास्त्रीय संगीतज्ञ थे। सादा किंतु स्वादिष्ट भोजन और पान उनकी कमजोरी थे। दादाजी की यह विरासत मुझे बचपन में ही मिल गई थी। हालांकि, बाद में स्वास्थ्य कारणों से पान छूट गया, लेकिन जल्द ही डायबिटीज के रूप में उनकी एक और विरासत मेरी जिंदगी से जुड़ गई। संगीत का गायन-वादन तो जिंदगी में नहीं जुड़ा लेकिन उसकी कोमलता और भावुकता की विरासत डीएनए में स्वतः ही जज्ब हो गई। छह साल की उम्र तक मैं दादाजी को जितना महसूस कर सकता था, समज सकता था उतना आज भी महसूस करता हूं, समझ सकता हूं।
           पापा से मेरे बेटे का जुड़ाव मुझसे भी ज्यादा है। अक्सर मैं अपने परिवार को गांव छोड़ देता था। बेटा जितने दिन गांव में रहता सोने के समय को छोड़कर बाकी समय अपने दादाजी के साथ बिताता। इस प्रकार उसे पापा के बारे में कई अतिरिक्त जानकारियां हासिल हैं और वह उन्हें बहुत ही शिद्दत से अपनी स्मृतियों में साधे हुए है।
           पापा चले गए। मां साथ रहने लगीं। बड़े पिताजी शहर वाले घर में रहने लगे। गांव वाले घर पर ताला लग गया। और इस प्रकार पापा के साथ ही गांव और घर संपत्ति के रूप में तब्दील हो गया। भावनात्मक धरातल पर उसकी उपयोगिता कम हो गई। वर्ष 2018 का पहला दिन हमने गांव में गुजारा था। इसके बाद कोई मौका ही नहीं लगा कि गांव का रुख करते।
       
पापा की सबसे बड़ी बहन दूसरी तस्वीर में हैं, जिनके साथ मैं सेल्फी ले रहा हूं। छोटा भाई भी साथ में है। इसी साल मार्च में पटना से वाया कार दिल्ली लौट रहा था। शहर से निकलने ही वाला था कि बड़ी फुआ की छोटी बहू से फोन पर बात हुई। उन्होंने बताया कि बड़ी फुआ की तबीयत ज्यादा खराब है। शायद न बचें। हमें वाया गोरखपुर आना था क्योंकि वह थोड़ा नजदीक पड़ता लेकिन हमने अपनी गाड़ी फुआ के गांव की तरफ मोड़ दी। 200 किलोमीटर की उल्टी यात्रा के बाद हम दोपहर तक फुआ के घर पहुंच गए। हमें देखते ही खाट पर पड़ी फुआ में न जाने कहां से इतनी ऊर्जा आ गई कि वह उठ बैठीं। हमारे खाने-पीने की चिंता करने लगीं। 8 दिसंबर को फुआ भी अपने भाई यानी पापा के पास चली गईं। बड़ी फुआ ने खुद को कभी घर की बेटी नहीं माना। वह हमेशा बड़े बेटे की तरह रहीं। निर्भीकता और सच्चाई उनके दो बड़े हथियार थे। इनका प्रयोग वह किसी भी मौके पर बेहिचक करती थीं। कई मौके आए जब उनकी निर्भीकता और सच्चाई की परीक्षा हुई और वह उन्होंने प्रतिष्ठा के साथ पास हुईं। मेरी पैदाइश के लिए उन्होंने कई मनौतियां मांगीं थीं। एक बाकी रह गई। वह बार-बार हरसूब्रह्म जाने को कहती रहीं और जिंदगी की आपाधापी में मैं ऐसा नहीं कर पाया। इसका मुझे जिंदगी भर अफसोस रहेगा। उम्मीद है फुआ माफ भी कर देंगीं।

दोनों पुण्यात्माओं को बारमबार प्रणाम



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अदब के अदम थे ‘दादा’

दादा! आप क्या गये, ‘घीसू’ की गली ही सूनी हो गयी. अब तो घीसू के घर से सिसकियां भी सुनायी नहीं देतीं. आखिर वह किसके लिए रोता? उसके रोने से किसे फर्क पड़ने वाला था? सच कहें, ‘घीसू’ उसी दिन अनाथ हुआ था, जब आप उसे, हमें इस मृत्युलोक में छोड़ते हुए उस अलौकिक दुनिया के लिए विदा हो गये थे, जिसे जीवित रहते कोई देख नहीं पाता. जा नहीं पाता. दादा! बुलंदशहर की नुमाइश तो आपको याद ही होगी. मैं भी न...आप भूल भी कैसे सकते हैं. 2005-07 के तीन वर्षों में आप ने कवि सम्मेलन और मुशायरे के उस बड़े मंच की आपने ही तो शोभा बख्शी थी.
आप और हम तो जानते हैं. लेकिन, इस आभासी दुनिया के कई अपने नहीं जानते होंगे. बात 2006 की है.
Adam Govdavi
अदम गोंडवी
बुलंदशहर की नुमाइश में होने वाले मुशायरे में आप एकमात्र ऐसे शायर थे, जिनकी न तो जुबान खालिस उर्दू थी और न ही जमात मुस्लिम. निमंत्रण पत्र और पोस्टर-बैनरों पर छपा आपका नाम अदम गोंडवी कुछ जाहिर होने नहीं देता था. रामनाथ सिंह अगर दर्ज होता, तो जरूर कुछ फर्क पड़ता.जब आपके साथ मैं क्लासिक होटल से बाहर निकला, तो भीड़ की समझ को लेकर थोड़ा सशंकित जरूर था. लेकिन, आपकी काबिलियत पर अटूट यकीन ने तुरंत हमारे संशय की गाद को धो डाला. धोती-कुरता और बंडी डाले जब आप नुमाइश स्थित रवींद्र नाट्यशाला के मंच पर आसीन हुए, तब बहुसंख्य श्रोताओं को शायद यह पता नहीं था कि आप भी शायर हैं. संचालन अनवर जलालपुरी साहेब के जिम्मे था. संचालन के माहिर उस्तादों में से एक अनवर साहेब शुरुआत में ही आपको मंच पर खड़ा करके हिन्दुस्तान की गंगा-जमुनी तहजीब का नमूना पेश करना चाहते थे, लेकिन आयोजक इससे सहमत नहीं थे. उन्हें अंदेशा था कि भीड़ छंट जायेगी. अनवर साहेब लगभग अड़ से गये थे कि मुशायरे की शुरुआत आपसे ही की जायेगी, लेकिन आयोजक की दृढ़ता को देखते हुए उन्होंने अपने इरादे के साथ समझौता कर लिया. जौहर कानपुरी और किसी एक अन्य शायर ने कुरआन-ए-पाक की तिलावत के साथ मुशायरे की शुरुआत की. फिर दो-तीन शायर आये और मजहबी शेरों के साथ विदा हो गये. अब अनवर साहेब से रहा नहीं जा रहा था. उन्होंने आपका अपने ही खास अंदाज में परिचयर कराया.
आप शुरू हुए, लेकिन शायद भीड़ ने आपके शेर सुनने से पहले आपकी धोती व कुरता को दिल पर ले लिया. हूटिंग शुरू हो गयी. जाओ-जाओ के ईशारे...फिर अनवर साहेब ने माइक संभाल ली. गंगा-जमुनी तहजीब और आपकी शख्सियत से भीड़ को अवगत कराते हुए उर्दू जुबान और कौम का वास्ता दिया. भीड़ शांत हुई और आप शुरू हुए...फिर तो आप अगले घंटे भर तक शेर पढ़ते रहे और भीड़ दाद देती रही. तालियां...गड़गड़ाहट...वाह-वाह... एक वक्त आया जब आप थकने लगे और श्रोताओं को धन्यवाद देने लगे, लेकिन वही भीड़ अब आपको बैठने नहीं देना चाहती थी...रवींद्र नट्यशाला के सभी गेट खोल दिये गये थे. अमूमन ऐसा होने पर भीड़ संभालना पुलिस-प्रशासन के लिए सिरदर्द साबित हो जाता है, लेकिन आपकी कविताओं और शेरों ने तो जैसे भीड़ पर जादू कर दिया था. जो जैसे था, वैसे सिर्फ सुन रहा था, तालियां बजा रहा था...और आप उसी सादगी के साथ मंच पर एक हाथ में धोती संभाले लोगों को सुनाते जा रहे थे...
18 दिसंबर 2011 को आप हम लोगों से दूर चले गये. हमेशा के लिए. लेकिन, इन पांच वर्षों में हम दूर नहीं हो पाये. रत्ती भर भी नहीं. न आपसे...न ही आपकी रचनाओं से...

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हिंदू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िए
अपनी कुरसी के लिए जज्‍बात को मत छेड़िए

हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िए

ग़लतियाँ बाबर की थी; जुम्‍मन का घर फिर क्‍यों जले
ऐसे नाज़ुक वक़्त में हालात को मत छेड़िए

हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गए सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िए

छेड़िए इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के खिलाफ़
दोस्त मेरे मजहबी नग़मात को मत छेड़िए

नमन...श्रद्धांजलि...

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पुराने दिन लौटा दो छठी मइया...

कांच ही बांस के बहंगिया, बहंगी लचकत जाये...जल्दी-जल्दी उग हो सूरूज बाबा... के तान सुन दिल व्याकुल हो रहा है। ऑफिस में काम के दौरान सामान्यतौर पर किसी की भी याद नहीं आती, लेकिन आज इन गीतों के स्वर दिल को लगने ही नहीं दे रहे। याद आ रहा है वह बचपन, जब हम छठ को लेकर कितने उत्साहित रहते थे।
महाराजगंज-हरिहरगंज; झारखंड-बिहार का बोर्डर, वहीं रहता था मैं अपने परिवार के साथ। महाराजगंज अब औरंगाबाद जिला और बिहार प्रांत में आता है जबकि हरिहरगंज पलामू जिला और झारखंड प्रांत
जय हो छठी माइया
में आता है। महाराजगंज में रहते हुए खरीददारी हरिहरगंज से करनी पड़ती थी। छोटा सा कस्बा। दुकानें गिनी हुईं और शायद खरीददार भी। शायद ही कोई होगा जिसे दुकानदार चेहरे से न पहचानता हो (अमूमन नाम याद रखना संभव नहीं होता)।
दीपावली के बीतते ही बाजार पर नजर होती थी। आज बाजार में शकरकंदी आई है। सूथनी भी मिलने लगा है। बड़ा वाला नींबू भी मिलने लगा है। संतरा तो बहुत महंगा है। इस बार दो सूप से मां अघ्र्य देंगीं। ठेकुवां के लिए गेहूं पीसना है। तब मिल में छठ व्रत का गेहूं नहीं पीसा जाता था। इसलिए जिसके घर में जांत होती थी वहां दीपावली के बाद से ही भीड़ लगनी शुरू हो जाती थी।
लकड़ी और गइठा (ऊपले) की व्यवस्था हो जाती थी। रात में लैंप की रोशनी में व्रत का प्रसाद बनना शुरू हो जाता। उसकी मीठी और मोहक खुशबू इतना ललायित करती थी कि माने अब जीभ कटकर बाहर आ जाएगी। फिर भी रात भर का सब्र तो करना ही पड़ता था।
शाम के अघ्र्य के समय तो कम भीड़ होती थी लेकिन, सुबह के अघ्र्य के समय भीड़ देखते ही बनती थी। बाहर काम करने वाले लोग अमूमन छठ घाट पर मिल जाते थे। लड़कियों और औरतों के एक-दूसरे से मिलने का तो यह एक सर्वोत्तम स्थान होता था। सूर्योदय होते ही अघ्र्य और अघ्र्य पड़ते ही प्रसाद मांगने का सिलसिला शुरू हो जाता था।
लोग दउरा से अलग झोले में ठेकुवां लेकर आते थे। मांगने वालों को देने के लिए। जिन्हें जानते थे उन्हें दउरा से भी निकालकर दे देते थे। खास होता था बटाने नदी का किनारा। पता नहीं उस किनारे पर जाकर मुझे कितना सुकून मिलता था। जी करता था इसी के किनारे रम जाऊं।
बचबन की उन यादों को शब्द देना थोड़ा मुश्किल हो रहा है। यादें बहुत तेजी से दिमाग में निकलती चली जा रही हैं और कीबोर्ड पर हाथ की रफ्तार थोड़ी धीमी पड़ती जा रही है। छठ का पर्व जहां भी होता है वहां के लोग इसकी महत्ता और इसके माध्यम से सामाजिक समरसता के महत्व को समझते हैं।
घाट पर कोई भी अछूत नहीं होता। प्रसाद सबका खाया जाता है और सबको खिलाया जाता है। कहीं-कहीं तो धर्म का दायरा भी मिट जाता है। मुझे याद है कि मां जिस रिक्शे से छठ घाट तक जाती थीं वह एक असलम नामक अधेड़ व्यक्ति खींचते थे। कई बार पापा ने उन्हें पैसा देने की कोशिश की लेकिन, वह हर बार मना करते रहे। ताज्जुब तो तब होती थी जब दीपावली के बाद वह खुद घर पर आ जाते और पूछते-अबकी छठ होईत हई न...(इस बार छठ व्रत तो घर में हो रहा है न)?????
हरिहरगंज पंचमंदिर होते हुए छठ घाट की ओर जाते हुए करीब तीन किमी का रास्ता तय करना पड़ता था। दो-तीन गांव बीच में आते थे (नाम याद नहीं आ रहे)। उन गांवों में विभिन्न धर्मों के लोग होते थे। लेकिन, रोशनी से लेकर चाय और दूध की व्यवस्था के लिए किसी का मुंह ताकना नहीं पड़ता था।
उन कस्बों में एक कशिश है। भारत के विभिन्न हिस्सों में घूमने और रहने के बावजूद आज तक उनकी माया से दूर नहीं हो पाया हूं। हां, सुना है कि आजकल वहां स्थितियां थोड़ी बदल गई हैं। छठ माई से प्रार्थना है कि महाराजगंज-हरिहरगंज के पुराने दिन लौट आएं।


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