तीन चौथाई देशकाल

युद्ध और शांति 


-कुणाल देव-

             हम उन्मादी युद्ध का समर्थन नहीं करते। हम कायराना शांति भी नहीं चाहते। हम अपनी ही धरती पर सिसकती हुई जिंदगी तो बिल्कुल नहीं चाहते। शांति के नाम पर हिन्दुस्तान ने बहुत कुछ खोया है। नालंदा विश्वविद्यालय को याद कीजिए। विश्व भर के 10 हजार से ज्यादा छात्र यहां पढ़ रहे थे। अध्यापकों की संख्या इनसे अलग थी। एक दिन एक लुटेरा बख्तियार खिलजी चंद सैनिकों के साथ आता है और निहत्थे छात्रों और अध्यापकों की खून की नदी बहा देता है। उस जाहिल को शिक्षा का महत्व कैसे पता होता। उसने भव्य और विशाल विश्वविद्यालय को खंडहर बना दिया। वहां पढ़ने वाले छात्र और अध्यापक लुटेरों की चटनी बना सकते थे, लेकिन वे अपनी नीतियों को नहीं त्याग सके। वे अहिंसा को नहीं त्याग सके।  
               आज भी स्थितियां कुछ अलग नहीं हैं। पड़ोसी पाकिस्तान की कोख में आतंकवाद पल रहा है। पाकिस्तान को पता है कि वह आमने-सामने की युद्ध में अपने पितृदेश हिन्दुस्तान से कभी जीत नहीं सकता। इसलिए वह हिन्दुस्तान के मासूमों को बरगलाता है। उन्हें अपनों के खिलाफ भड़काता है। वादी ए कश्मीर ने एक लंबे वक्त में बहुत कुछ खोया है। लेकिन, कश्मीरियत की राजनीति करने वालों ने कुछ खोया है क्या? किसी भी कश्मीरी नेता के बेटा-बेटी ने कश्मीर के लिए बतौर सैनिक शहादत दी है क्या? कश्मीरी लगातार लाचार होते जा रहे हैं और उनका शोषण करने वाले, उन्हें बरगलाने वाले, उनकी जान को दांव पर लगाने वाले व उन्हें शांति मयस्सर न होने देने वाले उनके नेता दिनोंदिन मालामाल और शक्तिशाली होते जा रहे हैं। कश्मीरियों को इस बात को समझना होगा। 
भारतीय सेना ने 26 फरवरी 2019 को पाकिस्तान में सर्जिकल स्ट्राइक के बाद राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की एक कविता शक्ति और क्षमा का कुछ अंश साझा किया था, आज पूरी कविता पढ़िए...

क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल
सबका लिया सहारा
पर नर व्याघ्र सुयोधन तुमसे
कहो, कहाँ, कब हारा?

क्षमाशील हो रिपु-समक्ष
तुम हुये विनत जितना ही
दुष्ट कौरवों ने तुमको
कायर समझा उतना ही।

अत्याचार सहन करने का
कुफल यही होता है
पौरुष का आतंक मनुज
कोमल होकर खोता है।

क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन
विषरहित, विनीत, सरल हो।

तीन दिवस तक पंथ मांगते
रघुपति सिन्धु किनारे,
बैठे पढ़ते रहे छन्द
अनुनय के प्यारे-प्यारे।

उत्तर में जब एक नाद भी
उठा नहीं सागर से
उठी अधीर धधक पौरुष की
आग राम के शर से।

सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि
करता आ गिरा शरण में
चरण पूज दासता ग्रहण की
बँधा मूढ़ बन्धन में।

सच पूछो, तो शर में ही
बसती है दीप्ति विनय की
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का
जिसमें शक्ति विजय की।

सहनशीलता, क्षमा, दया को
तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके
पीछे जब जगमग है।
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बजट के 'बहाने' 
-कुणाल देव-

आलोचना की सत्ता निश्चित रूप से कायम रहनी चाहिए। अभिव्यक्ति की आजादी की कोख से उपजी इस मौलिक विधा पर किसी को शक नहीं, लेकिन मौजूदा दौर में विधा विशेषज्ञों की निष्ठा पर पड़ रहे संशय के छींटे इसकी सत्ता को कमजोर कर रहे हैं। आलोचकों को यह समझना होगा कि आज का दौर किताब, पत्रिकाओं और चुनिंदा अखबारों से काफी आगे निकल चुका है। आपकी सत्ता के समानांतर एक और सत्ता चल रही है, जिसे सोशल मीडिया या आम आदमी का मीडिया के नाम से जाना जाता है। यहां हर व्यक्ति जानकार, समझदार, पत्रकार और संपादक है। सबकी अपनी अपनी दृष्टि है, निष्ठा है और चीजों की व्याख्या करने का नजरिया भी निहायत निजी है। अपनी बातों को कहने का उनके पास तर्क है तो मानिंद आलोचक, पत्रकार और संपादकों को कथ्यों से असहमत होने के बिंदु भी। 
           सत्ता में पांच साल पूरे कर चुकी भाजपा ने अपने छठे बजट को भले ही अंतरिम करार दिया, लेकिन इसकी रूपरेखा को पूर्णता देने में कोई गुरेज नहीं की। यानी, अंतरिम के नाम पर लोकलुभावन और बड़े डिलडौल वाले बजट को संसद में पेश किया। चुनावी वर्ष में भाजपा सरकार ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। जितना और जैसा कर सकती थी, पूरी तरह किया। इनकम टैक्स का स्लैब तो नहीं बदला, लेकिन पांच लाख के टैक्सेबल इनकम का जो प्रावधान किया उससे नौकरीपेशा तबके को छोटी ही सही, लेकिन राहत मिली। रुपये के अर्थ में देखा जाए तो यह राशि भले ही मामूली थी, लेकिन टैक्स के दायरे से बाहर आने का सुकून मध्यमवर्गीय लोगों के लिए बहुत बड़ा था। उन्हें कुछ हासिल होता हुआ महसूस हुआ। 
किसानों को सालाना 12 हजार रुपये आर्थिक मदद की घोषणा भी बहुत महत्वपूर्ण है। मासिक रूप से हिसाब लगाया जाए तो 500 रुपये भर हाथ में आने से किसानों की आर्थिक स्थिति पर कोई बड़ा प्रभाव नहीं पड़ने वाला, लेकिन इसमें अगर वृद्धा पेंशन, विधावा पेंशन, खाद-बीज और एलपीजी जैसी सब्सिडी को जोड़ दिया जाए तो सरकार का खर्च दिखने लगता है। असंगठित मजदूरों के लिए पेंशन, गायों के लिए राष्ट्रीय आयोग और सेना के लिए तीन लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का (अब तक का सबसे बड़ा) बजट उल्लेखनीय प्रावधान हैं। हालांकि, इसकी कुछ सीमाएं भी हैं। इनकम टैक्स स्लैब में बदलाव की उम्मीद कर रहे मध्यमवर्ग को निराशा हाथ लगी है। ऐसी किसी भी योजना का ऐलान नहीं किया गया, जिससे उसे थोड़ी राहत महसूस हो। कारोबारी वर्ग के लिए भी कोई फायदेमंद घोषणा नहीं है। 
        इस मुद्दे पर राजनीति हो। खींचतान हो। टिका-टिप्पणी हो। जुमले उछाले जाएं... इसमें आश्चर्य कैसा? आश्चर्य तो यह है कि सियासत के इस कारोबार में देश का चौथा स्तंभ और वाच डॉग कहा जाने वाला मीडिया पक्षकार बन जाए। लोकसभा में विरोधी दल के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे बजट को रिश्वत करार देते हैं तो आश्चर्य कैसा, लेकिन जब अंग्रेजी का एक अखबार कथित प्रयोगवादी हेडिंग के जरिये यही बात कहता है तो आश्चर्य जरूर होता है। हालिया विधानसभा चुनावों के बाद मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में सत्ता बदली। शासन और प्रशासन का सुर भी बदला। इसमें आश्चर्य कैसा, लेकिन सत्ता, शासन और प्रशासन के सुर में जब उन प्रदेशों से प्रकाशित होने वाले एक बड़े अखबार ने सुर मिलाना शुरू कर दिया तो आश्चर्य होना लाजिमी है। जब कोई अखबार समालोचना की बजाय सरकार का यशगान करने लगता है, उसके गलत निर्णय का भी समर्थन करता है तो अचंभा होता है। टीवी चैनल और अखबार जब जानकारों के माध्यम से अपनी बात कहने की कोशिश करते हैं तो फिर भी जनता थोड़ा भ्रम में रहती है, लेकिन जब उसका सुर ही सियासी हो जाए तो जनता के दिमाग को घेरने के लिए तैयार किया गया बौद्धिक मायाजाल बिखर जाता है। 
        सोशल मीडिया पर एक मजाक काफी दिनों से चल रहा है। एक व्यक्ति से दूसरा पूछता है-आप क्या करते हैं? पहला व्यक्ति जवाब देता है-पत्रकार हूं। दूसरा फिर सवाल करता है-अच्छा। किस पार्टी के? पत्राकर के नाते इस मजाक से क्रुद्ध होता हूं। मन करता है कड़ी टिप्पणी के साथ कहूं कि सब ऐसे नहीं होते, लेकिन अपने फ्रेंड लिस्ट में शामिल बड़ी संख्या में और बड़े पत्रकारों की जब पक्षकारी टिप्पणियों को पढ़ता हूं तो बैकफुट पर आ जाता हूं। 
         बहुत ही ईमानदारी से मानता हूं कि निर्पेक्ष होने का व्यावहारिक मतलब लगाव न रखना और उदासीन होना भी होता है। 18 साल की आयु में जैसे ही मताधिकार मिल जाता है, कोई भी मतदाता के रूप में  निर्पेक्ष नहीं रह जाता। जाहिर है कि मतदान के अधिकार से पहले ही उसके भीतर राजनीतिक चेतना जागृत हो जानी चाहिए या हो जाती है। किसी भी सशक्त लोकतंत्र के लिए यह बहुत जरूरी भी है। यह राजनीतिक चेतना पत्रकार, न्यायाधीश, सरकारी कर्मी से लेकर आम नागरिक तक में होनी ही चाहिए। इसके बैगर वह अपने लोकतंत्र के साथ न्याय भी नहीं कर सकता। लेकिन, यही राजनीतिक चेताना जब अंध आस्था के रूप में दैनिक कार्य व्यवहार और जिम्मेदारियों को प्रभावित करने लगती है तो यकीनन लोकतंत्र पर संकट के बादल मंडराने लगते हैं। आज मीडिया में धड़ेबंदी की बातें खुलकर होने लगी हैं। धड़ा भी कौन-सत्ता और सत्ता विरोधी। सोशल मीडिया पर जब धड़ेबंदी के प्रमाण खुलकर सामने आने लगते हैं तो इससे इनकार करना मुश्किल हो जाता है। सोचता हूं आजादी से लेकर लंबे अरसे तक जब मीडिया ने समाज और राजनीति को दिशा दी तो आज ऐसा क्या हो गया कि राजनीति ही मीडिया को हांकने लगी है। 

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अपने-अपने राम


-कुणाल देव-

मैं राम को मानस से जानता हूं। मैं राम को तुलसी से जानता हूं। दशहरा के अवसर पर पापा के मानसपाठ से जानता हूं। रामलीला से जानता हूं। कलाकार बदलते रहे। रूप-रंग बदलते रहे, लेकिन जनता की आस्था नहीं बदली। आज मेगाहिट फिल्म को भी दोबारा देखने से पहले एक बार सोचना पड़ता है, लेकिन तब राम और उनकी लीला के साथ जन-जन की आस्था ऐसी बंधी कि एक ही कहानी और उसके अनाड़ी पात्रों के मंचन को देखने का उत्साह चक्रानुक्रम में वर्षभर बना रहता था। 

            राम जन, मन और संतन के लिए समभाव आस्था और अटूट विश्वास का केंद्र रहे हैं। वह अलौकिक नहीं हैं। वह तो जनमन में विराजमान हैं। वह सबरी के हैं। वह अहिल्या के हैं। वह केवट के हैं। वह जटायु के हैं। वह सुग्रीव के हैं। वह विभीषण के हैं। और तो और वह रावण के भी हैं। सबरी के राम समरस हैं तो अहिल्या के तारणहार। सुग्रीव के संरक्षक हैं तो विभीषण के उद्धारक। शिवभक्त रावण परम ज्ञानी था और सृष्टि और संहार के नियमों में बाधक बना हुआ था। वह वीर भी था। इसलिए वह अपनी मौत नहीं वीरगति चाहता था। वह जानता था कि तीनों लोक में उसे कोई नहीं मार सकता। उसने राम में अपनी मौत का दूत देख लिया था। इसीलिए उसने सारा आडंबर रचा। सीता का उसने हरण किया, वरण नहीं। कारण था कि सीता तो उसकी मौत के वरण का माध्यम भर थीं। 
            निश्चिततौर पर राम अयोध्या में ही पैदा हुए होंगे। निश्चिततौर पर बाबर ने उनके मंदिर को ढहाकर मस्जिद का ढांचा बना दिया होगा। बाबर के शासनकाल पर गौर करें तो आप कमजोर हिंदू समाज और अततायी आक्रमणकारियों का इतिहास जान पाएंगे। श्रीरामचरित मानस की रचना तो तुलसी दास ने चौदहवीं शताब्दी में तब की, जब हिन्दू समाज को धार्मिक यात्रा के लिए भी जजिया कर देना पड़ता था। भगवान राम आदिकवि वाल्मीकि कृत रामाणय में ही उपलब्ध थे। वास्तव में यह काल जनमानस के लिए हारे को हरिनाम सरीखा था। जब इंसान तमाम जतन के बाद भी अपनी समस्या का हल नहीं ढूंढ़ पाता तो भगवान की शरण में जाता है और समस्या को उनके ऊपर छोड़ देता है। हिंदी साहित्य और हिंदू समाज का भक्तिकाल काल भी कुछ ऐसा ही था। आक्रांताओं से थकाहारा जनमानस उस अलौकिक शक्ति की शरण में जा चुका था, जिससे उसे उद्धार की उम्मीद थी। खंड-खंड में बंटे रजवाड़े मुगल शासकों के पिछलग्गू हो चुके थे। अकबर के सत्तासीन होने के बाद सामाजिक स्थितियां कुछ जरूर बदलीं, लेकिन औरंगजेब के शासनकाल ने उसे स्थिर नहीं रहने दिया। अंग्रेजों की आक्रांता भी कुछ कम नहीं थी, परंतु धार्मिक आधार पर विद्वेष नहीं था। वे विशुद्ध रूप से व्यापारी शासक थे। उपनिवेशवादी थे। उनके उत्पीड़न ने हिंदू और मुस्लिम दोनों ही समाज के बीच पैदा खाई को पाट दिया। सदियों का वैरभाव लगभग खत्म कर दिया। वरना तब भी लोग बाबरी मस्जिद और सोमनाथ मंदिर को लेकर बैठे रहते और अंग्रेजों कुछ और शताब्दियों तक हम पर शासन करने में सफल होते। 
             बहरहाल, हम मूलतौर पर राम की बात कर रहे थे। राजनीति के राम हमारे राम से बिल्कुल अलग हैं। हमारे राम मुक्ति की युक्ति हैं, जबकि राजनीति के राम माया का महल खड़ा करते हैं। राजनीतिक प्रयास यह सिद्ध करते हैं कि राम आज भी समभावशील और धीरोद्धत हैं। वह बाबरी ढांचा गिराने वाले के साथ हैं और इस पर मातमपुर्सी करने वालों के भी साथ हैं। वह मंदिर बनाने के संकल्प मात्र से ही  सत्ता का द्वार खोल देते हैं तो मंदिर का विरोध करने वाले को भी मायूस नहीं होने देते। हां, दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकतीं। इसलिए, दोनों पक्षों को बारी-बारी से सत्ता की रेवड़ी चटाते रहते हैं। राजनीति के राम केवल सत्ता का साम्राज्य ही नहीं खड़ा करते, बल्कि आस्था की दुकान सजाने वालों पर भी कृपा बरसाते हैं। इस क्रम में राम आज केवल हिंदुओं के नहीं रह गए। वह तो उन सबके हो गए हैं जो उन्हें जानते हैं, मानते हैं और उनके भी जो उन्हें नहीं जानते और नहीं मानते। 
           आस्था, अनास्था और राजनीति के इस खेल में अब राम के महाभक्त हनुमान को भी सुपर प्लेयर के रूप में उतार दिया गया है। यह बात दूसरी है कि ‘अश्वथामः हतौ, नरौः वा कुंजरौः...’ की तरह आज बिना जाने, समझे लोग अंधी दौड़ में शामिल हो गए हैं। चुनावी माहौल में सूचनाओं और अफवाहों को फैलाने में सोशल मीडिया भरपूर योगदान दे रहा है। लोगों के पास इतना समय भी कहां है कि वे सूक्ति, संदर्भ और सत्य को जानने की कोशिश करते फिरें। बस समान विचारधारा वाले लोगों के साथ जुड़ते हुए सच व अफवाह के वाहक बनते जा रहे हैं। हनुमान दलित थे या जनेऊ पहनते थे...इससे भला उनके भक्तों को कब फर्क पड़ने लगा। प्रत्यक्ष आस्था के प्रतीक हनुमान के मंदिरों में मैंने किसी दलित या सवर्ण को नहीं देखा। किसी भी गांव या शहर में देवी मंदिर के बाद अगर किसी दूसरे देवता का मंदिर पाया तो वह हनुमान का था। रामनवमी जुलूस में हनुमानी झंडा थामने वाले की जाति के बारे में कभी किसी ने नहीं पता किया। यह तो राजनीति ही है, जिसे लोगों की जाति, धर्म और समुदाय से मतलब है। जनता तो एक सुंदर गुलदस्ता है, जो अलग-अलग रंग, रूप, वेश-भाषा, रीति-रिवाज और धर्म-संस्कृति के बावजूद एक साथ मिलकर देश को और खूबसूरत बनाती है।

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आंखों में जलन, सीने में तूफान 


-कुणाल देव-


धार्मिक मामलों में अक्सर समझदारी काम नहीं करती। दीपावली की रात भी ऐसा ही हुआ। शाम से आतिशबाजी शुरू हुई और देर रात तक धमाके होते रहे। सुप्रीम कोर्ट ने कम धुआं वाले पटाखों के निर्माण और बिक्री के आदेश जनहित में दिए थे, लेकिन जनता को ही अपने हितों की परवाह न थी। दीपावली की रात ही आतिशबाजी खत्म नहीं हुई। अगले दिन आठ नवंबर को भी शाम से ही आतिशबाजी शुरू हो गई और देर रत तक चलती रही।  
घुटता है दम दम... (नीचे) से आगे
स्मॉग के मौसम में इस बार सबसे अच्छी बात रही कि किसी भी दिन हवा बंद नहीं हुई। मौसम थोड़ा ठंडा तो जरूर हुआ, लेकिन स्मॉग की चादर हल्की ही रही। एक-दो दिन घुटन और आंखों में जलन भी हुई पर स्थिति बहुत ज्यादा खराब नहीं हुई। प्रकृति शायद लोगों को संभलने का मौका दे रही थी। अगर दीपावली के दिन भी लोग संयम बनाए रखते तो शायद इस बार का स्मॉग सीजन कम कष्टप्रद होता।
मेरे अपार्टमेंट में सबसे निचले तल पर बुजुर्ग पांडेय जी रहते हैं। दिल और सांस के मरीज हैं। जिंदा रहने के लिए डाक्टरों ने खुली हवा में टहलने की सलाह दी है। जिंदादिल पांडेय जी डाक्टरों की सलाह मानते भी हैं। नियमित टहलने जाते हैं। टहलने के बाद फ्लैट के बाहर ही कुर्सी डालकर धूप सेंकते हैं। इस बीच अखबार भी निपटा देते हैं। शाम करीब चार बजे  अक्सर फ्लैट के बाहर लगाए गए पौधों के बीच समय बिताते मिल जाया करते। अमूमन इसी समय मैं आफिस निकलता हूं।
करीब एक पखवाड़े से पांडेय जी दिखाई नहीं दे रहे थे। काम की आपाधापी में मैंने किसी से पूछा भी नहीं। दीपावली पर घर गया तो उनकी सेहत थोड़ी कमजोर दिखी। घर में एक मशीन दिखाई दी, जिसे मैंने अब तक टीवी पर देखता था। पांडेय जी हंसते हुए कहते हैं- हवा साफ करती है। बाहर जाने पर स्मॉग के कारण दिक्कत हो जाती है। इसलिए घर में रहता हूं। मशीन हवा साफ कर देती है और श्रीमती जी खाना दे देती हैं। इस तरह जिंदगी की गाड़ी आगे बढ़ रही है।
उसी दिन पता चला कि पांडेय जी का एक बेटा और एक बेटी है। दोनों की शादी हो चुकी है और दोनों ही स्थाई रूप से अमेरिका प्रवासी हो चुके हैं। पांडेय जी दिल्ली सरकार के नौकर थे। रिटायरमेंट के करीब दस साल हो चुके हैं। मूलतः चंदौली (उत्तर प्रदेश) के रहने वाले हैं। मैं पूछ बैठा-गांव क्यों नहीं चले जाते? पांडेय जी के चेहरे पर ऐसी पीड़ा उभरी मानो मैंने उनके किसी गहरे जख्म पर हाथ रख दिया हो। तुरंत संभलते हुए कहते हैं-अब नहीं जा सकता। 40 साल हो गए। गांव में एक सप्ताह भी नहीं रुका। अब तो अपना पुश्तैनी घर भी नहीं बचा। पहले नौकरी नई थी। फिर बच्चों की पढ़ाई आ गई। रिटायरमेंट के बाद यहां घर ले लिया तो माया में पड़ गया। पहले लोग बुलाते थे। वर्षों हो गए लोगों ने आनाजाना भी छोड़ दिया है। दो-चार दस लोग जितने भी मुझे जानते हैं, यहीं रहते हैं। जड़ों से बिछुड़ने का दर्द झेलने के लिए अभिशप्त पांडेय जी आज की तारीख में एक बड़ी जमात की नुमाइंदगी करते हैं।
मुझे याद है जब पहली बार दिल्ली आया, ठेले पर पानी बिकते हुए देखा था। महीनों तक आश्चर्य में डूबा रहा था कि कोई पानी बेच कैसे सकता है। हमारे गांव में तो जब कोई पानी मांगता है, साथ में मीठा जरूर देते हैं। गांव लौटने के बाद भी महीनों तक इसका मजाक उड़ाता रहा था। पांडेय जी के यहां हवा साफ करने की मशीन देखकर इस बार आश्चर्य नहीं हुआ। जिंदगी हर शय कीमत वसूलती है। शहराती, सभ्य और अगड़ा कहलाने के लिए भी तो कोई न कोई कीमत चुकानी ही थी। हवा साफ करने की मशीन के रूप में ही सही।
क्रमशः  

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घुटता है दम दम...

ऊंची-ऊंची अटालिकाएं, वाहनों की चीं पों, और सिर के पास काले घटाटोप बादल जैसा कुछ दिखाई देने लगे तो आप इत्मिनान हो जाइए कि राष्ट्र की राजधानी दिल्ली की सीमा में दाखिल हो चुके हैं। 


करीब एक दशक से अक्टूबर-नवंबर महीने में इस त्रासदी को झेल रहे दिल्लीवालों को वैसे तो अब तक इस स्थिति को स्वतः अपना लेना चाहिए था, लेकिन शायद बौद्धिकता इसकी मंजूरी नहीं देती। खुद को बहलाने के लिए ही सही वे इस स्थिति के खिलाफ इन दिनों में आवाज उठाने लगते हैं। स्मॉग रूपी आपदा के लिए सीधे तौर पर ऊपर वाले को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते तो जिम्मेदारी की गेंद आपस में फेंकते हुए सरकारें और सरकारी लोग किसी प्राकर इन दोनों महीनों को पार कर लेते हैं। ऊपरवाला भी नहीं चाहता कि मृत्यु के लिए तय समय से पहले ही लोग उस तक पहुंचने लगें, इसलिए कभी पवनदेव तो कभी वरुणदेव की कृपा रूप में दस्तक देते हैं और यह संकट खत्म हो जाता है। इसके बाद बाकी दस महीनों में यदा-कदा भले ही प्रदूषण रूपी इस काल से निपटने की आवाज सुनाई दे, लेकिन हकीकत में कोई कुछ भी नहीं करता। इस समस्या का स्थाई कारण पंजाब और हरियाणा में जलने वाली पराली को मान लिया गया है। बीच-बीच में सीपीसीबी और दूसरे अन्य संस्थानों द्वारा प्रदूषण के अन्य कारकों को भी प्रकाश में लाया जाता है। इन सबके बीच क्या यह सवाल नहीं बनता कि प्रदूषण के आंतरिक कारक क्या हैं? बनता ही होगा, लेकिन तार से तार मिलाकर कारणों के तह तक जाने की भला जरूरत क्या है और फिक्र किसे है?
1995 से अब तक दिल्ली एनसीआर ने काफी विकास कर लिया है। मेट्रो का जाल बिछ रहा है। कई फ्लाईओवर बन चुके हैं। कई सिग्नलों पर अब रुकने की जरूरत ही नहीं पड़ती। 50-50 मंजिला अटालिकाएं खड़ी हो गई हैं। उद्योग-धंधों की संख्या भी बढ़ी है। दिल्ली और आसपास के गांवों में भी समृद्धि सिर चढ़कर बोलने लगी है। जिन गांवों में कभी साइकिल भी मुश्किल से मिला करती थी,  उनमें आबादी के बराबर कारे हो गई हैं। लेकिन, इन विकास के बीच क्या लोगों की सोच भी विकसित हुई है?
1995 के आसपास दिल्ली-एनसीआर की ज्यादातर सड़कें टू वे और कुछ कुछ फोर वे हुआ करती थीं। नतीजतन, आनंदविहार,  सरायकेला खां, किंग्जवे कैंप, धौलाकुआं, आजादपुर सब्जी मंडी, बर्फखाना, पहाड़गंज आदि जगहों पर रोजाना ही भीषण जाम लगता था। सरकारों ने इन जगहों पर जाम से निपटने की व्यवस्था की तो लोगों ने जाम के नये प्वाइंट बना दिए। दिल्ली-एनसीआर के शहरों की आंतरिक सड़कों पर भी सरकारों ने काम किया और उन्हें चौड़ा कर दिया। जनता ने भी इसका दिल से स्वागत किया और लोन लेकर तत्काल कारें खरीद लीं। घर के पास जहां वे स्कूटर खड़ी करते थे उसके ठीक बगल में अपनी कारें भी खड़ी करनी शुरू कर दी। समस्या इतनी भर नहीं थी कि वे अपने घरों के बाहर सड़क पर कारें पार्क करने लगे, बल्कि अपनी विस्तारवादी मंशा के साथ उन्होंने अपनी कारों से मुख्य चौड़ी सड़क के आधे हिस्से को घेरते हुए पार्किंग बना लिया। नतीजतन, वाहनों की संख्या तो कई गुना बढ़ गई, लेकिन हकीकत में सड़कें टू वे और फोर वे ही रह गईं। इसके बाद शुरू हुआ जाम, धुआं और चीं पों यह अंतहीन सिलसिला बदस्तूर जारी है।
1998-99 के आसपास मेट्रो का काम शुरू हुआ। बढ़ते प्रदूषण को देखते हुए सीएनजी बसें अनिवार्य हो गईं। दिल्ली शहर के बीच औद्योगिक उपनगरों को खाली कराया जाने लगा। धुआं उगलने वाले उद्योग-धंधे सब दिल्ली के बाहर किए जाने लगे थे। यह वह दौर था जब गर्मी के दिनों में रेडलाइट पर या जाम वाले इलाकों में धुएं के कारण आंखों में जलन महसूस होने लगी थी। दिल्ली के करीब नोएडा और न्यू गाजियाबाद नये औद्योगिक ठिकनों के रूप में विकसित होने लगा था। लोग रहते दिल्ली में थे और काम करने नोएडा आते थे। लेकिन, यह कवायद भी अदूरदर्शी थी। नोएडा, गाजियाबाद, फरीदाबाद या गुरुग्राम में उद्योगों को शिफ्ट करके भीषण खतरे का अस्थाई समधान ढूंढा गया। फैक्ट्रियों ने जब इन शहरों में धुआं उगलना शुरू किया तो हवा उन्हें उड़ाकर दिल्ली लेती चली गई। नतीजतन, बाद में नेशनल ग्रीन ट्रीब्यूनल को दखल देना पड़ा।
एनजीटी ने दिल्ली एनसीआर को प्रदूषण रूपी राक्षस से बचाने के लिए कई नियम बनाए। खुले में निर्माण कार्य न कराए जाने की हिदायत दी। कूड़ा जलाने तक पर प्रतिबंध लगा दिया। लेकिन, क्या हकीकत में इन पर प्रतिबंध लग पाया। नहीं, बिल्कुल नहीं। बिल्डरों की मनमानी तो जग जाहिर है, सरकारी संस्था नेशनल हाईवे अथॉरिटी के अधीन काम करने वाले बिल्डर ही दिल्ली-मेरठ हाईवे के विस्तारीकरण कार्य में एनजीटी के आदेशों को ठेंगा दिखा रहे हैं। रात के अंधेरे में डंपिंग ग्राउंड में आग लग जाती है, जिसके लिए कोई जिम्मेवार नहीं होता या माना जाता। कोयले से चलने वाली तंदूर भट्ठियां सड़कों पर खुलेआम धधकती हैं, लेकिन उन्हें रोकने के लिए कोई आगे नहीं आता। पांच-छह मिनटे के ट्रैफिक सिग्नलों पर भी गाड़ियां बंद नहीं की जातीं, क्योंकि साहब को एसी चलाना होता है। दस साल पुराने डीजल वाहनों पर प्रतिबंध है, लेकिन कागज जांचने की जहमत भला कौन करे?
क्रमशः 

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अपने ही जाल में उलझे नक्सलियों के पास आखिरी विकल्प है सरेंडर

श्चिम बंगाल के एक छोटे से गांव नक्सलबाड़ी से सत्ता के खिलाफ चंद लोगों की बगावत अगर 50 वर्षों तक विस्तार पाती रहती है, तो इसकी कोई एक वजह नहीं हो सकती. 25 मई 1967 को नक्सलबाड़ी में जमींदार और किसानों के बीच हुए संघर्ष और इसमें 11 किसानों की मौत के बाद कानू सान्याल और चारू मजूमदार ने सत्ता विरोधी इस आंदोलन की अगुवाई की. इसके बाद यह हिंसक आंदोलन करीब 50 वर्षों में 20 राज्यों के 220 जिलों में फैल गया. जहां तक विकास की बयार नहीं पहुंच पायी थी, वहां इन नक्सलियों ने जनता को सत्ता के खिलाफ करते हुए समानांतर व्यवस्था कायम कर ली. 
         दरअसल, सत्ता का खिलाफत करने वाले इन लोगों ने मूलमंत्र बना लिया था-‘सत्ता बंदूक से निकलती है.’ समाज में इनके तेजी से बढ़ने का कारण था रॉबिनहुड वाला अंदाज. यानी, अमीरों से लूटना और गरीबों में बांटना. यह सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक कानू और चारू जिंदा रहे. लेकिन, उनकी मौत के साथ ही यह खूनी आंदोलन अपने लक्ष्य से भटक गया. 1971 में नक्सलवादियों के भीतर आंतरिक विद्रोह हुआ. इसके अगुवा सत्यनारायण सिंह थे. इसके बाद नक्सली आंदोलन बिखरता हुआ नजर आया. लेकिन, 21 सितबंर 2004 को पीपुल्स वार ग्रुप और माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर का विलय हो गया और नये संगठन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) का गठन हुआ. इसके बाद जहां नक्सल आंदोलन को और गति मिली, वहीं  वह अपने रास्ते से भी भटकने लगा. नक्सलवाद की आड़ में उगाही होने लगी और उसका बड़ा हिस्सा नक्सली खुद रखने लगे.

झारखंड-बंगाल में नक्सली सरेंडर का दौर 

  • जिन ग्रामीणों के सहयोग से नक्सलवाद ने जंगलों में अपना पांव पसारा, बाद में उन्हीं के जान का दुश्मन बना
  • सारंडा, दलमा और पोड़ाहाट के जंगलों में पांव पसार रहे नक्सलवाद के खिलाफ ऑपरेशन अनाकोंडा रहा घातक
  • पुलिस ने ग्रामीणों के बीच सोशल पुलिसिंग के जरिये अपनी पैठ बनानी शुरू कर दी, उन्हें सुविधाएं देने लगी
  • संगठन के भीतर भी वर्चस्व व लेवी को लेकर लड़ाई शुरू हो गयी और नक्सली दस्ता छोड़कर घरों को लौटने लगे
  • महिलाओं के साथ नक्सली दस्ते में शोषण होने लगा और सदस्य इसके खिलाफ सदस्य बगावत करने लगे 
  • सरकार ने समर्पण की पॉलिसी बदली और प्रक्रिया को सरल बनाते हुए नक्सलियों के लिए सरेंडर के द्वार खोले 
  • केंद्र सरकार की नोटबंदी ने नक्सली संगठनों पर बड़ा प्रहार किया, आर्थिक रीढ़ टूटते ही वे बिखरने लगे
      उधर, नक्सलवाद के वर्चस्व को बढ़ता देखकर सरकार सतर्क हो गयी और प्रभावित क्षेत्रों में स्पेशल विंग तथा सीआरपीएफ की तैनाती करनी शुरू कर दी. कैंप बनाये गये और वहां आवागमन शुरू कर दिया गया. सरकार अब तक समझ चुकी थी कि जंगलों से अगर नक्सलवादियों के खदेड़ना है, तो सबसे पहले वहां के ग्रामीणों का विश्वास जीतना होगा. 2010 में जब झारखंड गठन के बाद पहली बार पंचायत चुनाव हुआ, तो नक्सलियों ने इसका विरोध किया. उन्होंने चुनाव में बड़ा अड़ंगा डालने की कोशिश की, लेिकन सरकार की तैयािरयों के बीच वह नाकाम होते नजर आये. हालांकि, इससे पहले सरकार पुलिस और सीआरपीएफ कैंपों के माध्यम से गांवों तक विकास योजनाओं को पहुंचाने लगी थी. नक्सलप्रभावित गांवों में बिजली पहुंचने लगी, सड़क बनने लगी, इंदिरा और बिरसा आवास बनने लगेे. राशन दुकानों से सस्ते अनाज मिलने लगे और गांव में ही प्राथमिक शिक्षा भी मिलने लगी. विकास के इन कार्यों ने ग्रामीणों के बीच इसमें भागीदारी की चाह पैदा कर दी. इसलिए, पंचायत चुनाव में नक्सलियों के खिलाफत के बावजूद लोगों ने बढ़-चढ़कर भागीदारी की.
यहीं से कोल्हान के सारंडा, पोड़ाहाट और दलमा जंगलों में छिपे नक्सलियों की कमर टूटनी शुरू हुई. अपनी जमीन खिसकती देख नक्सलियों ने लोगों में खौफ पैदा करना शुरू कर दिया. सीधेसादे ग्रामीणों पर पुलिस मुखबिरी का आरोप लगाकर जनअदालतों में मौत की सजा देनी शुरू कर दी. मुख्यधारा में लौटे अपने ही पुराने साथियों की हत्या शुरू कर दी. नक्सलियों के बीच वर्चस्व को लेकर जारी जंग ने विकृत रूप ले लिया. दस्ते में शामिल महिलाओं के साथ बदसलूकी के साथ-साथ रेप होने लगे. इसलिए, दस्ते में भी बगावत होने लगी.
उधर, पुलिस भी ग्रामीणों पर नक्सलियों के सहयोगी होने का शक करती और पूछताछ में बल प्रयोग करती. ग्रामीण दो पाटों में पिसने लगे थे. इस पर ग्रामीणों ने पुलिस के साथ जाने का फैसला किया. ग्रामीणों का रुझान देेख पुलिस व सीआरपीएफ जवान भी उनके साथ दीवार की तरह खड़ा नजर आने लगे.
         माहौल बदलने लगा. पहले जहां पुलिस को जाने में खतरा सताता था, वहां लोगों ने खुद प्रस्ताव देकर सीआरपीएफ और पुलिस कैंप बनवाने शुरू कर दिये. पुलिस जब गांव के युवाओं के साथ फुटबॉल खेलने लगी, उन्हें लालटेन और मच्छरदानी देने लगी, तो ग्रामीणों को लगने लगा कि सत्ता उनके बारे में भी सोचती है.
सारंडा में 2010 के बाद दो बार चले ऑपरेशन अनाकॉन्डा में कुछ बड़े नक्सली नेता मारे गये और कुछ ने झारखंड-ओड़िशा पुलिस के सामने अत्मसमर्पण कर दिया. इसी प्रकार दलमा क्षेत्र में झारखंड और बंगाल पुलिस के संयुक्त ऑपरेशनों ने नक्सलियों के नाक में दम कर दिया. उधर, झारखंड सरकार ने नक्सलियों पर इनाम की राशि बढ़ाने के साथ-साथ उनके समर्पण की प्रक्रिया को सरल कर दिया. पुलिसवाले नक्सलियों के परिजनों को समझाने लगे और उन्हें मुख्यधारा से जुड़ने के िलए प्रेरित करने लगे.
          नक्सलियों को सबसे बड़ा झकटा केंद्र सरकार की नोटबंदी ने दिया. नकदी से काम चलाने वाले नक्सलियों की तो कमर ही टूट गयी. पैसे के अभाव में दस्ते का खर्च निकालना मुश्किल हो गया. इसके कारण बाहर के नक्सलियों को झारखंड और बंगाल से वापस उनके दस्ते में भेज दिया गया. जंगल में जीवन दूभर हो गया. इन प्रक्रियाओं में नक्सलियों के लिए अब जंगल में रहना दूभर हो गया था. अब उनके सामने एक ही विकल्प था-या तो मारे जायें या सरेंडर कर दें. सुविधाओं की प्राप्ति के क्रम में दूसरा विकल्प उन्हें ज्यादा बेहतर लग रहा है. इस कारण बंगाल ही नहीं, झारखंड में भी सरेंडर करने वाले नक्सलियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है.
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काश! स्कूलों को उद्योग/धंधा/अंधा बनने से रोक लिया जाता
 -कुणाल देव-

एटा में हुए स्कूली बस दुर्घटना में 30 छात्रों की मौत ने झकजोर दिया है. बच्चों को स्कूल भेजते हुएआज अधिकांश अभिभावक डरे-सहमे रहते हैं. लोग कहते हैं- माहौल खराब हो गया है. लेकिन, इसके साथ ही सवाल भी पैदा हो जाता है. सवाल यह कि माहौल कौन बनाता है? खराब माहौल के लिए जिम्मेदार कौन है? अगर मिनी बस में 60-60 छात्र ठूंसकर ढोये जा रहे हैं, तो कोई सवाल क्यों नहीं करता? कोई यह सवाल क्यों नहीं करता कि बस का चालक वाहन चलाना जानता है कि नहीं? कोई सवाल क्यों नहीं करता कि वह शराब पीता है कि नहीं? कोई सवाल क्यों नहीं करता कि इतने कोहरे में स्कूल खुले क्यों हैं? 

मैं जहां पला-बढ़ा वह कस्बा है- हरिहरगंज (पलामू, झारखंड)-महाराजगंज (औरंगाबाद, बिहार). सीता हाई स्कूल, हरिहरगंज में मेरे बड़े पिताजी शिक्षक थे. रहता महाराजगंज में था. अपने डेरे से पिताजी पैदल ही स्कूल के लिए निकलते. करीब दो किलोमीटर की इस दूरी में कई गलियां आतीं. जिसकी भी नजर पिताजी पर पड़ती, वह उन्हें प्रणाम करने से नहीं चूकता. कई तो उम्रदराज और अति प्रतिष्ठित भी होते. बीच में थाना पड़ता. थानेदार अगर सामने होते, तो निश्चित तौर पर पहले ही प्रणाम करते. कहीं बीडीओ साहेब मिले, तो वह भी प्रणाम करते. ब्लॉक प्रमुख साहेब भी. मेरे पिताजी के स्कूल में ही नहीं, बल्कि दूसरे स्कूलों में पढ़ाने वाले ज्यादातर शिक्षकों को कमोवेश इतना ही सम्मान इन जुड़वां कस्बे में मिलता. मैं पिताजी को मिलने वाले सम्मान से अभिभूत रहता. 80 का दशक था. हमरा रहन-सहन उसी तरह का था, जैसा किसी ग्रामीण का होता था. हम खपरैल घर में रहते. पिताजी या मैं हाथ में झोला टांगे सब्जी या किराना सामान बाजार से खुद लाते. बीच में पिताजी के कुछ छात्र या अन्य लोग यह कोशिश जरूर करते कि उनके सामान के भार खुद उठा लें, लेकिन ऐसा होता नहीं. पिताजी की तनख्वाह बहुत कम थी. व्यापारिक कस्बा होने के कारण वहां धनाढ्यों की कमी नहीं थी. लेकिन, अटालिकाओं में रहने वाले धनाढ्य भी जब बहुत ही अदब के साथ पिताजी को प्रणाम करते और आदर देते तो एक बात जेहन में घुसने लगती कि पैसा ही सबकुछ नहीं होता. व्यक्ति और उसका व्यक्तित्व कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है. यह बात बचपन में अपने दिमाग में जो घुसी, सो अब तक
Ata school bus accident
अपनी जगह कायम है. बीच-बीच में पैसे की चमक उसकी जगह घिसकाने या कम करने की कोशिश करती है, लेकिन ऐसा हो नहीं पाता. 
चंद रुपये की नौकरी में ही पिताजी ने संयुक्त परिवार और समाज की जिम्मेदारियों को बहुत ही सलीके से निभाया. परिवार की जिम्मेदारियां तो अनिवार्य होती ही हैं, लेकिन पिताजी के लिए समाज की जिम्मेदारियां भी अनिवार्य ही थीं. मेरे कच्चे डेरे में अक्सर गांव के गरीब छात्र यह उम्मीद से आते कि उनकी फीस माफ कर दी जायेगी. मैं सबकी फीस माफी का दावा तो नहीं करता, लेकिन मैंने पिताजी को देखा है कई छात्रों को फीस के पैसे देते हुए. स्कूल और प्रकाशकों से मिलने वाली (स्पेसमिन कॉपी) किताबों को गरीब तथा मेधावी छात्रों में बांटते हुए. लोगों के सुख-दुख में खड़ा होते हुए. नाजायज के विरुद्ध और जायज के हक में खड़ा रहते हुए. यही वजह रही होगी कि पिताजी को बतौर शिक्षक उन कस्बों में इतना सम्मान मिला. आज वे कस्बे विकसित हो चुके हैं. हम जिस खपरैल मकान में रहते थे, वह धराशायी हो चुका है. जिस स्कूल में पिताजी पढ़ाते थे, उसका खपरैल भवन जर्जर हो चुका है और नयी इमारत बन चुकी है. कक्षाएं 10वीं तक की बजाय 12वीं तक चलने लगी हैं. यानी, अब वह इंटर कॉलेज हो चुका है. लेकिन, वहां की रौनक गायब है. बचपन के बहुतेरे दोस्तों के साथ अब भी मैं जुड़ा हुआ हूं. अलबत्ता, उन कस्बों में घूमे हुए करीब 10 साल हो गये होंगे. दोस्तों से मुलाकात होती है, घंटों चर्चा होती है. स्कूल भी बीच में आता है. लेकिन, उसका कोई शिक्षक नहीं आता. उस जमाने में भी कस्बे में कई निजी स्कूल खोलने के प्रयास हुए, लेकिन छठी से ऊपर की कक्षाएं चलाना संभव नहीं हो पाया. सीता हाई स्कूल की पढ़ाई इतनी अच्छी थी कि गरीब या अमीर कोई भी अभिभावक अपने बच्चे को बाहर भेजने की सोचता भी नहीं था. उल्लेखनीय यह भी कि आठवीं से दसवीं तक की कक्षाओं का संचालन करने वाले इस स्कूल में दाखिला टेस्ट के जरिये होता था. टेस्ट में फेल, यानी किसी भी कीमत पर दाखिला नहीं. करीब तीन से चार हजार बच्चों वाले इस स्कूल के अनुशासन का उदाहरण दिया जाता था. दोस्त बताते हैं कि आज स्कूल इंटरमीडिएट तक हो चुका है, लेकिन छात्रों की संख्या काफी कम हो गयी है. कई निजी स्कूल खुल चुके हैं, जो 12वीं तक की कक्षाएं चलाते हैं. कोई ऐसा शिक्षक नहीं है, जिसके नाम की चर्चा होती हो. कोई ऐसा शिक्षक नहीं है, जिसके सामने अदब से सिर झुक जाये. दोस्त बोलते हैं- सब नौकरी कर रहे हैं. न तो उन्हें किसी बच्चे की निजी जिंदगी से मतलब है, न ही किसी बच्चे को उनकी निजी जिंदगी में रुचि. राम-सलाम तो बहुत दूर की बात हो गयी. अपनापन जैसी तो कोई बात ही नहीं बची. शायद, स्कूल अब उद्योग/धंधा/अंधा बन गये हैं. सरकारी स्कूलों में शिक्षक रुपये की नौकरी करते हैं. निजी स्कूलों में अधिक से अधिक आमदनी के लिए कुछ भी किया जाता है. प्रशासन, शासन और समाज का तानाबाना इतना उलझ चुका है कि गलतियों का छोर ढूंढ़े नहीं मिलता. जांच के नाम पर एकदूसरे पर थोपाथोपी भर होता है. चलिए, मान लेते हैं कि सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर खराब हो गया है. लेकिन, इतना कहने भर और बच्चों को निजी स्कूलों में भेजने भर से व्यवस्था ठीक हो जायेगी क्या? ऐसा करके तो हम उन लोगों को और छूट दे रहे हैं, जो व्यवस्था को नाममात्र बनाते हुए हमारे दिये हुए करों पर मौज कर रहे हैं. हम शिक्षक को पढ़ाने से, हेडमास्टर को जिम्मेदारी से और अधिकारियों को जवाबदेही से मुक्त कर देते हैं. हम जिन्हें चुनकर लोकसभा और विधानसभा में भेजते हैं, वे चंद लोग दबाव बनाने लगते हैं और हम बहुसंख्यक लोग दब जाते हैं. तो क्या बिगड़ी हुई व्यवस्था के लिए हम जवाबदेह नहीं होते? क्या स्कूलों को उद्योग/धंधा/अंधा बनाने की गैरजिम्मेदारी हमारी नहीं है? इन सवालों के साथ हम आज आपको यहीं छोड़ जाते हैं. उम्मीद करते हैं कि बीमारी होती एक व्यवस्था के उपचार में आप अपना योगदान देंगे. चलिए, मत पढ़ाइयेगा अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में, लेकिन नजर जरूर रखियेगा. ताकि, उसकी बीमारी को समाज पहचान सके और मरने से पहले उसका इलाज किया जा सके.

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नोटबंदी : ‘हम अमीर हुए या नहीं, कुछ लोग गरीब जरूर हो गये...’

-कुणाल देव-
नोटबंदी के बाद हालात अब तक सामान्य नहीं हुए हैं. लेकिन, हालात तब भी सामान्य नहीं थे, जब एटीएम सेंटर खुलने शुरू हुए थे और बैंकों की संख्या बेहद कम थी. बात 2001-2002 की है. अपने गृह जिले से लेकर दिल्ली तक एटीएम से पैसे निकालने के लिए लंबी लाइन में लगना पड़ता था. लेकिन, वे लाइनें बैंक की लाइन से थोड़ी छोटी हुआ करती थीं. गृह जिले में दो बैंकों की एटीएम मशीन काम करती थीं-एसबीआइ और पीएनबी. दोनों में लंबी लाइनें लगती थीं. सुबह से शाम तक...यूं कहें तब तक, जब तक उसकी नकदी खत्म नहीं हो जाती थी. एटीएम की व्यवस्था नयी थी, जिसे जगह बनाने में समय लग रहा था. कमोवेश यही स्थिति दिल्ली और दूसरे प्रदेशों में भी होती थी. नोटबंदी को सकारात्मक दृष्टि से देखें तो यह व्यवस्था भी नयी है. इसे भी जगह बनाने में थोड़ा वक्त लगेगा. 

व्यक्तिनिष्ठ नहीं, सकारात्मक बदलावों का हामी

मीडिया और खासकर सोशल मीडिया पर आने वाली प्रतिक्रियाएं थोड़ी बनावटी लगती हैं. मेरे फ्रेंडलिस्ट में करीब एक हजार लोग हैं. इनमें से मैं जितनों को देख पाता हूं, पढ़ पाता हूं, उनमें नोटबंदी की मुखालफत करने वाले कोई वाजिब और अकाट्य वजह नहीं दे पाते. व्यक्तिनिष्ठ होना मेरी फितरत में ही नहीं, लेकिन सकारात्मक सोच के साथ बदलावों का मैं हमेशा से हामी रहा हूं. चाहे वह आरटीआइ हो, आरटीइ हो, मनरेगा हो, ऑनलाइन गैस सब्सिडी योजना हो या फिर नोटबंदी. कल नोटबंदी के एक माह पूरे हो जायेंगे. जिस
Demonetisation
दिन नोटबंदी हुई, उस दिन हमारे घर में सिर्फ 500 (100-100 के नोट वाले) रुपये थे. एक दिन बाद जब बैंक खुले और दो दिनों बाद जब एटीएम, तो उनके सामने अथाह भीड़ थी. रात-रात भर युवा हाथों में दो-चार और छह एटीएम लिये घूमा करते थे. उनके चेहरे पर तारी निश्चिंतता और मस्ती के भाव यह चुगली करते थे कि जरूरत उतनी बड़ी नहीं है, जितनी लंबी लाइनें लगी हुई हैं. लेकिन, अगले ही सप्ताह लाइनें छोटी होती गयीं.मुझे कहीं परेशानी नहीं हुई. गाड़ी में पेट्रोल डलवाने के लिए एटीएम सहारा था. राशन खरीदने के लिए ऑनलाइन पेमेंट. दूसरी जरूरतों के लिए ऑनलाइन भुगतान किया. हां, घरेलू सहयोगी और दूधवाले को नकदी चाहिए थी, जिनका पेमेंट मैं आदतन टाइम पर (पहली तारीख को) कर चुका था. जब उत्साही लोगों की भीड़ छंटी और लाइन छोटी हुई, तो एक दिन लाइन में लगकर एक घंटे के भीतर मैंने अपनी जरूरत के मुताबिक रुपये निकाल लिये. 

खबरें जब ट्रेंडी होने लगें, तो गंभीरता से सोचिए

नेशनल मीडिया में चल रही खबरों के ट्रेंड को पकड़ने के लिए इधर, कुछ अखबारों ने कुछ मौत की घटनाओं को नोटबंदी से जोड़ने की कोशिश की. लेकिन, जब उनकी जांच करवायी, तो मौत की वे घटनाएं ज्यादातर बीमारी और प्रशासनिक असहयोग का नतीजा साबित हुईं. अब तक के अपने पत्रकारीय अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि जब खबरें ट्रेंडी होने लगती हैं, तो उनकी सत्यता जांच के दायरे में आ जाती है. ऐसी खबरों के प्रति सतर्क होते हुए उसकी सत्यता की जांच किसी भी पत्रकार की प्राथमिक जिम्मेवारी बन जाती है. क्योंकि, सत्य का आंकलन टीआरपी और रीडरशिप से नहीं किया जा सकता. 

समस्या है, और खीझ भी, लेकिन बगावत नहीं

दिसंबर की पहली तारीख को जब टीवी चैनल वाले बैकों के सामने लगी लंबी लाइनों और बंद पड़ी एटीएम मशीनों को दिखा रहे थे, तो हमने भी अपने शहर में इसकी जांच करने व कराने की कोशिश की. बहुत ही जिम्मेवारी के साथ कहता हूं कि पैसों की किल्लत तो हर जगह दिखी. लोग खिझे हुए भी थे, लेकिन, आपाधापी नहीं थी. उनके अंदर नोटबंदी के खिलाफ बगावत नहीं थी. लोगों की खीझ नयी व्यवस्था के फिट नहीं बैठ पाने की थी. नेता से अभिनेता तक नोटबंदी और उसके लागू करने के तरीके पर विरोध जता रहे हैं, लेकिन कोई भी एक नेता, अभिनेता, पत्रकार, व्यापारी, अधिवक्ता व अन्य समाज का विद्वान नोटबंदी के बाद व्यवस्था को चाक-चौबंद करने का ठोस व कारगर विकल्प नहीं सुझा रहा. संसद में गतिरोध कायम है. सत्तापक्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लोकप्रिय, जनप्रिय और इससे भी आगे विश्वप्रिय साबित करने में समय और श्रम खपा रहा है, तो विपक्ष प्रश्नकाल को ही पूरी कार्यवाही मान बैठा है. चर्चा नहीं हो रही है. काम ठप है. संसद में सांसदों की अघोषित हड़ताल है. शिक्षक, डॉक्टर, कर्मचारी जब अपनी मांगों के लिए हड़ताल करते हैं, काम रोक देते हैं, तो एस्मा लगा दिया जाता है. उन्हें बर्खास्त कर दिया जाता है. फिर, सांसदों पर कार्रवाई का नियम क्यों नहीं है? उन्हें रीकॉल करने का अधिकार जनता के पास क्यों नहीं है? 

चलते-चलते....

छह दिसंबर की रात काम खत्म करने के बाद पास के ही एक एटीएम सेंटर पर गया. गार्ड से रुपये के बारे में पूछा. कहा-100-100 व 2000 रुपये के नोट उपलब्ध हैं. 100-100 के चाहिए तो दो हजार से कम निकालें. मैं रुपये निकालने में लग गया, लेकिन वह चुप नहीं हुआ. कहने लगा- नोटबंदी एकदम सही है सर. हम अमीर हुए या नहीं, लेकिन कुछ लोग गरीब जरूर हो गये. उनका काला धन सरकार के पास तो चला जायेगा. सरकार अब गरीबों की योजनाओं में और ज्यादा पैसे लगा पायेगी. यही सुकून है. वैसे तो गरीबों पर मार हमेशा से पड़ती आ रही है. जिन एटीएम में ऑटोमेटिक सायरन लगा दिये जा रहे हैं, वहां से गार्डों को हटा दिया जा रहा है. बैंकवाले ही छंटनी नहीं कर रहे. मैं पहले रिलायंस के बिग एएफ के प्रचार वैन का ड्राइवर कम प्रचारक था. वहां कॉस्ट कटिंग हुई, तो गाड़ी बंद कर दी गयी. वहीं सिक्योरिटी गार्ड में लग गया, लेकिन मेरी परेशानी कहां कम होने वाली थी. कंपनी ने तय कर दिया कि एक ही सिक्योरिटी गार्ड काम करेगा. चूंकि, मैं बाद में आया था, इसलिए विदायी पहले हो गयी. अब तो सुना है कि बिग एफएम ने जी ग्रुप वालों को अपना एफएम ही बेच दिया है. दो हजार हमारे लिए बड़ी रकम है, लेकिन जब इन्हीं दो-दो हजार के लिए बड़ी-बड़ी कारों को एटीएम पर रुकते देखता हूं, साहबों को लाइन में लगते देखता हूं, तो सच कहूं- आनंद आ जाता है. 

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उत्तर प्रदेश में किंग नहीं, किंगमेकर बनने के लिए लड़ेगी कांग्रेस! 

गले साल उत्तर प्रदेश में होने वाले चुनाव में पीके यानी प्रशांत किशोर की भूमिका और परिणाम को लेकर लोगों के आंकलन अलग-अलग हैं. प्रशांत किशोर कांग्रेस के लिए कितने उपयोगी साबित होंगे, यह तो वक्त ही बतायेगा, लेकिन उन्होंने जेडीयू के साथ रहते हुए यह साबित कर दिया है कि घर का भेदी ही हमेशा लंका ढाहता है. गत लोकसभा चुनाव तक टीम मोदी का हिस्सा रहे प्रशांत किशोर मोदी और भाजपा दोनों की नब्ज को बाखूबी पहचानते हैं. अगर उन्हें इनोवेटिव न भी मानें, तब भी वे उतने टोटके तो जानते ही हैं, जितने पारंपरिक रूप से भाजपा आजमाती रही है. 
बिहार चुनाव से पहले ‘दादरीकांड’ व ‘असहिष्णुता’ और उत्तर प्रदेश चुनाव से पहले ‘दलितकांड’ व ‘….’ अनायास नहीं माना जाना चाहिए. जो बिहार और उत्तर प्रदेश के वोटों का जातीय समीकरण समझते हैं, वे आसानी से इन मुद्दों का राजनीतिक निहितार्थ निकाल सकते हैं. उत्तर प्रदेश में प्रशांत किशोर कितना भी दम लगा लें, टोटके ढूंढ़ लें या नया राजनीतिक चोला तैयार कर लें, कांग्रेस को सरकार बनाने की स्थिति में नहीं पहुंचा पायेंगे; यह वह खुद भी जानते हैं और कांग्रेस भी जानती है. लेकिन, प्रशांत किशोर की रणनीति आंशिक तौर पर भी कारगर रही, तो कांग्रेस किंगमेकर की भूमिका में आ सकती है. खंडित जनादेश की स्थिति में प्रदेश के राजनीतिक समीकरण के अनुसार कांग्रेस का विकल्प बसपा व सपा दोनों के लिए खुला होगा. जबकि, भजापा इन दोनों ही पार्टियों के साथ नहीं जा सकती (हालांकि, सियासत में ऐसा दावा नहीं किया जा सकता). ऐसे में कांग्रेस उत्तर प्रदेश में खुद को किंगमेकर की भूमिका के लिए तैयार कर रही है.
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बिगड़ते ‘भारत के भविष्य’ को बचाइए


सलाह-सुझाव

कुणाल देव


दो दिनों पहले जमशेदपुर के परसुडीह में नेताजी सुभाष पब्लिक स्कूल के 11वीं का नाबालिग छात्र कट्टा के साथ गिरफ्तार हुआ था. तब उसने कहा था कि उसे वह कट्टा टेम्पो चालक ने दिया था. हालांकि, टेम्पो चालक का कहना था कि वह कट्टा छात्र अपने घर से लाया था और उसके पास जमा करके स्कूल चला गया था. स्कूल में किसी लड़के से उसकी लड़ाई चल रही थी. उसे ही धमकाने के लिए छात्र कट्टा लेकर आया था. दोनों को रिमांड होम भेज दिया गया.
अब दो दिनों बाद बुधवार को साकची स्थित दयानंद पब्लिक स्कूल के क्लास रूम में 11वीं का ही एक छात्र अमित कुमार वर्मा पिस्तौल लेकर पहुंचा. क्लास में पिस्तौल चमकाने के चक्कर में गोली चल गयी और उसी क्लास का छात्र सुधांशु के हाथ को छेदते हुए छाती में जा लगी. सुधांशु गंभीर अवस्था में अस्पताल में है और अमित जेल में. अमित को पिस्तौल देने वाला भी उसी स्कूल का छात्र रह चुका है, जो इस समय रांची से आइटीआइ कर रहा है. जब अमित के बैग की तलाशी ली गयी, तो उसमें एक पिस्तौल ही नहीं एक कट्टा भी मिला.
छात्र अमित के बैग से बरामद पिस्तौल व कट्टा. 
स्कूली बच्चों के बैग में हथियारों की आमद दरक रहे सामाजिक तानेबाने का नमूना है. शहर के नामी स्कूलों के बच्चों की ऐसी हरकतें गंभीर चिंता का विषय हैं. नक्सलवाद या उग्रवाद से अपना शहर अभी तक अप्रभावित है. इसलिए, हम बच्चों में पनप रही हिंसा की प्रवृत्ति को आयातित या आक्षेपित नहीं कह सकते. ऐसे में हमें खुद के परिवार के भीतर और आसपास से इन हरकतों के लिए जिम्मेदार तत्वों को ढूंढ़कर बाहर लाना होगा तथा उनका समाधान तलाशना होगा. स्कूलों को हम शिक्षा का मंदिर मानते हैं. जाहिर है कि हम यहां स्वस्थ शैक्षणिक प्रतिस्पर्धा की उम्मीद भी करते हैं. ज्यादातर मौकों पर होता भी ऐसा ही है. लेकिन, स्कूलों में चलने वाली स्वस्थ शैक्षणिक प्रतिस्पर्धा के समानांतर कुछ बच्चों के बीच एक दूसरी स्पर्धा शुरू हो जाती है. इस दूसरी वाली प्रतिस्पर्धा में शिक्षा के अलावा भी बहुत कुछ शामिल होता है. जैसे- फैशन, पावर, पैसा, गर्लफ्रेंड, ब्वायफ्रेंड और सबसे खतरनाक टशनबाजी. अगर आप अपने बच्चों से करीब नहीं हैं अथवा स्कूल के भीतर चलने वाली इस गौण समानांतर गतिविधि को नहीं जानते, तो हमारी ये बातें आपको थोड़ी अजीब लग सकती हैं. लेकिन, हकीकत यही है. ऐसा नहीं कि ऐसी गौण गतिविधियों की जानकारी अथवा एहसास स्कूल के प्रिंसिपल या प्रबंधन को नहीं होता, लेकिन उनकी भी एक सीमा है. पिछले दिनों एक स्कूल के प्रिंसिपल से हमारी बात हो रही थी. उनके स्कूल में एक लड़का और लड़की आपत्तिजनक स्थिति में पकड़े गये थे. दोनों के परिजनों को बुलाया गया. ताज्जुब की बात तो यह है कि छात्र-छात्राओं के परिजन प्रिंसिपल पर ही भड़क गये और बिना किसी बात को सुने प्रिंसिपल पर ही बच्चों को बदनाम करने का आरोप लगाने लगे. शहर के कुछ स्कूलों के आसपास डेंडराइट और ऐसे ही नशीले पदार्थों की खाली शीशियां मिलती रहती हैं. कई बार तो ये पदार्थ स्कूल के बाथरूम से भी बरामद होते हैं. स्कूल के दौरान बड़ी संख्या में छात्र-छात्राएं ड्रेस में स्कूल परिसर के बाहर घूमते हुए आसानी से मिल जायेंगे. किसी जमाने में अपने शहर में उतनी
गिरफ्तार छात्र अमित. 
साइकिलें नहीं होंगी, जितनी संख्या में छात्र स्कूटी और बाइक से आज स्कूल जाते हैं. अगर हम इन्हें छात्रों की सुविधा मान लें, तब भी हम नियम का उल्लंघन तो कर ही रहे हैं. अव्यस्क हाथों में गाड़ी और मोबाइल देकर हम नियमों का उल्लंघन करते हैं. सेल्फी का क्रेज, सोशल मीडिया पर सक्रियता और आपराधिक चरित्रों पर बनने वाली फिल्मों तथा सीरियलों ने भी बालमन पर काफी प्रभाव डाला है. मनोवैज्ञानिकों की मानें तो फास्टफूड के शौक ने भी बच्चों की मानसिकता को उग्र किया है. इन छोटी-छोटी बातों को अभिभावकों द्वारा नजरअंदाज किया जाना, किशोर छात्रों के लिए ‘शह’ का काम करने लगता है और इसकी परिणति स्कूल बैग में पिस्तौल के रूप में होती है. दो दिनों पहले जब एक छात्र के स्कूलबैग से कट्टा बरामद हुआ था, तभी शहर के बुद्धिजीवियों के कान खड़े हो गये थे. खतरे का अंदेशा लगने लगा था. और यह अंदेशा बुधवार को सच भी साबित हुआ. छात्र के स्कूल बैग में हथियार और क्लासरूम में गोली चलना मामूली बात नहीं है. यह घटना अभिभावकों और स्कूल प्रबंधन को सचेत करती है. यह घटना कहती है कि हमें अपने बच्चों से नजदीकी बढ़ानी होगी. उन पर नजर रखना होगा. उनकी गतिविधियों पर नजर रखना होगा. उनका स्कूल बैग टटोलना होगा. अगर लगे कि बच्चा पटरी से नीचे उतर रहा है, तो उसकी काउंसलिंग करनी होगी. उसे सही-गलत का भेद बताना होगा. उसे उस मायावी दुनिया से बाहर निकाना होगा, जो फिल्मों और सोशल साइट्स पर इन दिनों कायम है. बच्चे और किशोर तो मन के कच्चे होते हैं. उनका मन पानी के समान होता है. उसे हम जो आकार देना चाहेंगे, वही आकार वे आगे चलकर लेंगे. इसलिए, उन्हें गलतियों पर सजा न दें, लेकिन उन्हें नजरअंदाज भी न करें. जब बच्चा गलती करे, तो उसका समाधान ढूंढ़ें. आखिरकार यही बच्चे और किशोर हमारे कल के भारत का भविष्य हैं.

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बाप-बेटे की दमित इच्छा  

अंतरिक्ष विज्ञान के दक्ष वैज्ञानिक के रूप में डॉ एपीजे अब्दुल कलाम को मैं कुछ वर्ष पहले से जानने लगा था. लेकिन, उनके प्रति मन में लगाव जैसी कोई बात नहीं थी. इस समय तक दिल्ली पहुंच चुका था और प्रबुद्ध युवाओं के बीच रहने का मौका मिलने लगा था. मई 1998 में पोखरण परमाणु परीक्षण हुआ और देश परमाणु शक्ति संपन्न देशों की सूची में शामिल हो गया. सरकार ने ईमानदारी से परीक्षण की सफलता का क्रेडिट डॉ एपीजे अब्दुल कलाम और उनकी टीम को दिया. इस समय तक कलाम देश के सामान्य युवाओं के दिलों में अपनी जगह बना चुके थे. कलाम का जीवन चरित्र अपने अप में एक महाग्रंथ जैसा है. उनकी जीवनी पर काम चला. युवाओं ने उनकी लिखी किताबें पढ़ीं और मुरीद होते चले गये. 
हॉस्टल के कमरों में जूलिया रॉबर्ट्स, मार्टिना हिंगिस, कैटरीना कैफ, करीना कपूर जैसी ग्लैमर के कटाउट और कोलाज के बीच किसी अन्य की तस्वीर को जगह मिलना आसान नहीं था. लेकिन, डॉक्टर कलाम ने बिना किसी आग्रहऔर प्रेरणा के इन ग्लैमर से इतर हॉस्टलर्स के कमरों में अपनी जगह बना ली.
      किरोड़ीमल कॉलेज हॉस्टल, दिल्ली. कमरा नंबर 18. यह कमरा कॉलेज की राजनीति का केंद्र हुआ करता था. इसलिए, डॉ कलाम के बारे में जितनी भी चर्चाएं होतीं, उनका विश्लेषण और सारांश इसी कमरे में तैयार होता. डॉ कलाम के बारे में लिखित-अलिखित कई कहानियां चर्चित होनी लगीं. इन कहानियों के बीच हॉस्टलर्स में चर्चा के विषय उनका संघर्ष और उपलब्धि होते थे. हॉस्टल में रहने वाले हर युवा की संवेदना डॉ कलाम से जुड़ी होती थी. कोई उनके जैसा बनना चाहता था, तो कोई उनकी जैसी पृष्ठभूमि से आया था. हॉस्टल के कमरों में जूलिया रॉबर्ट्स, मार्टिना हिंगिस, कैटरीना कैफ, करीना कपूर जैसी ग्लैमर के कटाउट और कोलाज के बीच किसी अन्य की तस्वीर को जगह मिलना आसान नहीं था. लेकिन, डॉक्टर कलाम ने बिना किसी आग्रह और प्रेरणा के इन ग्लैमर से इतर हॉस्टलर्स के कमरों में अपनी जगह बना ली. कुछ लोगों ने तो डॉ कलाम की तस्वीर देवी-देवताओं के बीच लगा रखी थी और कई ने बाद में डॉक्टर कलाम को स्थापित कर तमाम ग्लैमरस देवियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया.         
      मैं किरोड़ीमल कॉलेज हॉस्टल के कमरा नंबर 11 में रहता था. यह कमरा तत्कालीन ए ब्लॉक की ऊपरी मंजिल पर हुआ करता था. मेरे साथ एक बैच जूनियर अभिषेक आनंद रहा करते थे. हिस्ट्री के बहुत ही होनहार स्टूडेंट थे और शालीन भी. उनके संस्कार ऐसे थे कि कई बार जब मैं बहकने लगता था, तो उनकी दिनचर्या को फॉलो करता. डॉ कलाम के बारे में वैसे तो मेस में सार्वजनिक चर्चा होती थी, लेकिन हमारी व्यक्तिगत चर्चा अभिषेक के साथ ही होती थी. अभिषेक लाइब्रेरी और न्यूज पेपर से डॉ कलाम के बारे में नई सूचनाएं निकाल कर लाते. कुछ सूचनाएं कहीं-कहीं से हम भी लाते और फिर इनका आदान-प्रदान होता. 1999 में जब डॉ कलाम की किताब ‘विंग्स अॉफ फायर’ प्रकाशित हुई तो उसकी तत्काल खरीद ली और दो दिनों के भीतर अद्योपांत पढ़ गया. 
      2002 तक हॉस्टल-कॉलेज छूट चुके थे. पठन-पाठन का काम स्वांत:सुखाय या आवश्यकतामूलक रह गया था. कारण था कि पत्रकारिता की नई विधा से जुड़ गया था और वहां की बारीकियों को सीखने लगा था. लेकिन, शुक्र था कि डॉक्टर कलाम को जानने की चाहत ने मेरे भीतर जो पढ़ने की आदत पैदा कर दी थी, वह खत्म नहीं हुई थी. जब भी डॉक्टर कलाम के बारे में कहीं कुछ छपता, तो उन्हें तमाम व्यस्तताओं के बीच जरूर पढ़ता. पत्रकारिता में जब रिपोर्टिंग की जिम्मेदारी मिली तो कई बड़ी हस्तियों से मिलने और कुछ वक्त गुजारने का मौका मिला. मेरे तमाम साथी इन हस्तियों के साथ फोटो खिंचवाते और बड़े शान से लोगों को दिखाते. लेकिन, पता नहीं क्यों मेरी इस बात में दिलचस्पी नहीं रही. किसी से बाद में मिलने का मन भी नहीं हुआ. इसलिए, कोशिश भी नहीं की. हां, पोखरण परीक्षण के बाद कलाम से मिलने की चाहत दिल में पैदा होने लगी थी. जब वे राष्ट्रपति बने, तो चाहत थोड़ी और बढ़ी. तब मैं दैनिक जागरण, मेरठ में वरिष्ठ उप संपादक/रिपोर्टर था. मेरा बेटा देवांश देव छोटा था, लेकिन पूजा घर में डॉ कलाम की तस्वीर उसे प्रभावित करती थी. वह कई बार डॉ कलाम से मिलने के लिए मुझ से आग्रह और प्रेरित करता. लेकिन, मेरे मन में यह बात रहती कि जब डॉ कलाम से बात करने के लायक बन जाऊंगा, तो जरूर कोशिश करूंगा. 
       नवंबर 2010 में मेरठ छोड़ने की बारी आ गयी. बेटा उस समय तीसरी कक्षा में चला गया था. एक दिन उसने मुझसे कहा-अब तो ट्राई करके देखिये. शयद डॉ कलाम मिलने की इजाजत दे दें. लेकिन, मेर मन से लायक होने वाली बात खत्म नहीं हुई थी. हम जमशेदपुर आ गये. 2011 में डॉ कलाम जमशेदपुर में आये और यहां भी हम उनसे मिल न सके. पिछले दिनों मन में यह बात आती थी कि क्यों न एक बार डॉ कलाम से मिलने की कोशिश करके देखी जाये. लेकिन, मैं हतभागी यह कोशिश भी नहीं कर सका. 
      27 जुलाई 2015 की रात मैं न्यूज रूम में था. अचानक रात करीब 9 बजे डॉ कलाम को आईआईएम शिलॉन्ग में लेक्चर के दौरान हार्ट अटैक आने की सूचना ब्रेकिंग के रूप में टीवी पर चलने लगी. थोड़ी देर में उनकी मौत की पुष्टि हो गयी. दिल रोने लगा, आंखें नम थीं. जोर-जोर से रोना चाहता था, लेकिन मेरे पास उसके लिए भी वक्त नहीं था. खबरें प्लान करनी थीं. हां, मौसम जरूर इस दुखद समाचार से फूट पड़ा. रात 9 बजे से जो मूसलाधार बारिश शुरू हुई वह 28 जुलाई की दोपहर तक होती रही. तकरीबन 170 एमएम बारिश हुई. मुझे याद है कि जब फैलिन ने शहर में कहर बरसाया था, तब भी इतनी वृष्टि नहीं हुई थी. खबरों की श्रद्धांजलि के बाद जब मैं घर पहुंचा तो बीवी-बच्चे को डॉ कलाम के मौत की खबर नहीं थी. टीवी अॉन किया और बेहद धीमी आवाज में समाचार सुनने लगा. धर्म पत्नी स्वर्णिमा पहले से जाग रही थीं. इस बीच बेटा भी जग गया. उसे तो जैसे सदमा ही लग गया. वह एकटक मेरी ओर देखता रहा. उसने कुछ कहा नहीं, लेकिन मैं महसूस कर रहा था कि वह मिलने वाली बात पर मुझसे सवाल करना चाहता है. वैसे तो विश्व के सभी वैज्ञानिकों में उसकी रूचि है, लेकिन कलाम से उसका लगाव हो गया था. सुबह वह स्कूल नहीं गया. आंखें खुलीं तो नहा कर टीवी के सामने बैठ गया. शायद वह डॉ कलाम की आखिरी यात्रा का साक्षी बनना चाहता था. आखिर, डॉ कलाम सिर्फ वैज्ञानिक, राष्ट्रपति और बच्चों के काका ही नहीं थे, बल्कि वे एक पिता-पुत्र की दमित इच्छा भी थे. 

कुणाल देव

Mob. 08969394348

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अच्छे लोगों की गन्दी बातें 

ये बात गंदी है, लेकिन करते सब अच्छे लोग ही हैं। मौत पर मातम तो आपने सुना ही होगा, अब मौत पर सियासत का नया नमूना आपके सामने पेश है। गृहमंत्रालय की रिपोर्ट पर आधारित इस खबर से कई बातें सामने आती हैं। सरकार की मंशा, प्रशासनिक अकर्मण्यता, सांप्रदायिक सौहार्द की कुत्सित भावना और सियासी मलिनता को जाहिर करती इस रिपोर्ट को जरूर पढ़िये। तब समझ पाएंगे कि सेक्यूलर और कम्यूनल जैसे शब्द आज की तारीख में सिर्फ सियासी मुद्दा भर रह गए हैं। आम आदमी के हिस्से तो बस मौत है, चाहे वह भूख से हो या फिर गोलियों से, क्या फर्क पड़ता है। तब शायद यह ताज्जुब नहीं होगा कि देश के आला नेता क्यों कहते हैं कि मुजफ्फरनगर का
दंगा इतना बड़ा था और दिल्ली को बताया तक नहीं। आजादी के दिन से ही धर्म के नाम पर तो जाति के नाम पर लोगों को ठगा जाता रहा है। ये ठग हैं सियासी लोग। अगर इन्हीं मुद्दों पर आजादी के 66 साल बाद भी हम बंटते रहे तो यह मान लेना चाहिए कि अब तक हमने किताबों के शब्दों को पहचाना भर है। उन शब्दों का समाज के साथ साकार करके अर्थ नहीं ढूंढ़ा। प्रधानमंत्री, चुनाव, खर्च, देश की अर्थव्यवस्था, विदेशी कर्ज, दोबारा चुनाव, त्रिशंकु लोकसभा आदि जटिल और बहकाऊ मुद्दों को भूल जाइए। तय करिए कि इस बार हम उसी को अपना मत (राय भी कह सकते हैं) देंगे जो प्रत्याशी वास्तव में हमारी बात सुन सके, हमारी बात कह सके और कर सके औऱ हमारा दुख-दर्द समझ सके। यकीन मानिए, यह एक क्रांति होगी। शायद, यहीं से सच का पुनर्जन्म होगा और इंसानियत का बीजारोपण भी। 
दंगों में मारे गये लोगों के धर्म की हुई पहचान
नयी दिल्ली. गृह मंत्रालय ने शायद पहली बार सांप्रदायिक हिंसा में मारे गये लोगों के धर्म की पहचान की है. मंत्रालय का कहना है कि इस साल दंगों में 107 लोगों की जान गयी, जिनमें से 66 मुसलिम और 41 हिंदू थे. मंत्रालय की ओर से जारी एक दस्तावेज में कहा गया है कि देश में 15 सितंबर तक मुजफ्फरनगर दंगों सहित कुल 479 दंगे हुए, जिनमें 107 लोगों की जान गयी. मृतकों के मामले में सभी राज्यों में उत्तर प्रदेश 62 की संख्या के साथ शीर्ष पर रहा. इन 62 मृतकों में से 42 मुसलिम और 20 हिंदू थे. उत्तर प्रदेश में 2013 के पहले नौ महीनों के दौरान 93 दंगे हुए. इसके अलावा 108 मौकों पर राज्य में तनाव की स्थिति बनी. कुल मिलाकर इस साल अब तक सांप्रदायिक गड.बड.ियों में देश भर में 1697 लोगों की जान गयी, जिनमें से 794 हिंदू और 703 मुसलिम थे. इस साल दंगों में घायल हुए लोगों में 200 पुलिसकर्मी शामिल थे. उत्तर प्रदेश में 2013 के दौरान दंगों में कुल 219 मुसलिम और 134 हिंदू घायल हो गये. (एजेंसी).
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देश का दुर्भाग्य देखिए...
1. उत्तराखंड और खासकर उत्तरकाशी के बाशिंदे आज दाने-दाने को मोहताज हैं। घर-बार सब खोकर कैंपों में शरण लिए लोगों को दाने के लिए दिन भर तक इंतजार करना पड़ता है। दूसरी तरफ, राहत शिविरों में अनाज, बच्चों के लिए दूध के पाउडर व घी आदि इतनी बेतरतीबी से रखे हैं
कि उनमें फफूंद लगने लगी है। ब्रेड और पानी की तो हाल मत पूछिए। साहेबान, विपुल मात्रा में ये सामग्री कूड़े के ढेर से मिले हैं। कई ट्कों में बंद राहत राशि तो आज तक कैंपों में उतर भी नहीं पाई है। आजतक न्यूज चैनल ने इस अव्यवस्था को कल लाइव दिखाया।
और सरकार...विडंबना देखिये कि 15 दिनों बाद भी वहां के हुक्मरान पीड़ितों का सर्वे तक ही कर पाए हैं। अब भगवान ही जानें कि पीड़ितों तक राहत कब पहुंचेगी।
2. अपने राष्ट् का एक राज्य है महाराष्ट्। उसकी राजधानी है मुंबई। इसे मायानगरी भी कहते हैं। यहां बड़ी संख्या में मायावी लोग तो रहते ही हैं, माया की देवी लक्ष्मी की भी इस नगरी पर असीम कृपा बरसती है। बोले तो, यहां एक नहीं कई-कई कुबेर कुंडली जमाए बैठे हैं। आम आदमी भले ही ट्क भर अनाज का सपने संजोता हो यहां तो भइय़ा ट्कों से रुपये ढोए जा रहे हैं।
और सरकार...किसी भले आदमी ने सूचना दे दी थी, इसलिए तत्काल कार्रवाई करते हुए ट्कों को जब्त कर लिया है। पत्रकारों ने सवाल किया कितने रुपये होंगे, तो उनका मन रखने के लिए बताया गया कि कम से कम 200 करोड़ रुपये होंगे। अब आगे जेहन में यह सवाल मत लाइएगा कि इन रुपये का क्या होगा, क्योंकि इसका जवाब शायद ही आपको मिल पाए।
3. झारखंड के पाकुड़ में मंगलवार को नक्सलियों ने क्रूरता दिखाई। गिरोहबंद नक्सलियों ने बमों और बंदूकों से हमलाकर एसपी अमरजीत बलिहार समेत छह लोगों को मार दिया और उनके हथियार भी लूट लिए। इससे पहले नक्सलियों ने लातेहार के एसपी की हत्या कर दी थी। नामधारी के काफिले पर घातक हमला किया। 2004 में पश्चिमी सिंहभूम के बालिबा में एसपी के काफिले पर हमला कर 27 लोगों को मार दिया था। छत्तीसगढ़ में कांग्रेसियों के काफिले पर हमला व बिहार-झारखंड सीमा पर स्थित जमुई में रेल पर हमले की घटना को तो अब तक भूल भी नहीं पाए होंगे।  
और सरकार...झारखंड की बदनसीबी है कि यहां सरकार हमेशा बैशाखियों पर चलती है। कभी-कभी किराये पर भी। जिस राज्य के गठन के 12 सालों में 12 मुख्यमंत्री बन चुके हैं और तीन-तीन बार राष्ट्पति शासन लग चुका हो उस राज्य से भला क्या उम्मीदें की जा सकती हैं। फिर भी राज्य के डीजीपी और मुख्य सचिव ने बयान देने में कोई कोताही नहीं बरती है। आंख नीचे झुकाकर मीडिया के सामने कह दिया है कि वे नक्सलियों का मुंहतोड़ जवाब देंगे। रही बात केंद्र की तो वह छत्तीसगढ़ की घटना के बाद नक्सलियों के खिलाफ योजना बनाने से लेकर झारखंड में सरकार बनाने में इन दिनों व्यस्त है। 
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डरो ‘भगवान’, अपने अस्तित्व के लिए डरो! (भाग-4)

सवाल करना शुरू करेंगे तो मन में विचार कुलांचे मारने लगेंगे। उन्हें निकलने का अवसर ढूंढ़ना होगा और वह अवसर तब मिलेगा जब आप विचारों को मूर्त रूप देना शुरू कर देंगे। असत्य के प्रति प्रतिकार भाव (मौजूदा सामाजिक ढांचे में पूर्ण प्रतिकार सिर्फ सिद्धांती बात होगी) पैदा करना होगा। दरअसल, व्यवस्था बनती तो है समाज में स्वस्थ माहौल पैदा करने तथा विकास को गति देने के लिए, लेकिन बंद कमरों में बनने वाली नीतियां इतनी अव्यावहारिक हो जाती हैं कि यर्थाथ के धरातल पर उनमें कई छेद पैदा हो जाते हैं। इन्हीं छेदों के माध्यम से नीतियों और योजनाओं का रिसना शुरू हो जाता है और शत-प्रतिशत लाभ के हकदार आम जनता के पास लाभ की चूरन-चटनी से ज्यादा कुछ भी नहीं पहुंच पाता।
पिछले दिनों एक रिपोर्ट पढ़ी थी। उसमें बताया गया था कि ‘भगवान’ को पैदा करने में सरकार को फीस से कई गुणा ज्यादा खर्च वहन करना पड़ता है। इसलिए सरकार चाहती है कि इस क्षेत्र में प्राइवेट-पब्लिक-पार्टनरशिप (पीपीपी, निजी भागीदारी) को बढ़ावा दिया जाए। अब निजी संस्थानों के प्रबंधन के बारे में तो आप जानते ही हैं। दान के नाम पर मोटी रकम दाखिले से पहले ही ले ली जाती है और पढ़ाई के नाम पर जो फीस वसूली जाती है वह सरकारी संस्थानों से कई गुना ज्यादा होती है।
जरा सोचिये, लाखों रुपये खर्च करने के बाद जो ‘भगवान’ आपके बीच आएंगे या आते हैं वो आपसे क्या उम्मीद रखेंगे? सवा रुपये के लड्डू से आप हनुमानजी को भले ही मना, बहला या फुसला सकते हैं, लेकिन क्या ये ‘भगवान’ इतनी राशि में आपको खुश रहने का आशीर्वाद दे पाएंगे? अब यहां दो बातें सामने आती हैं। पहली यह कि ‘भगवान’ पैदा करने वाले संस्थानों में निजी भागीदारी न हो। मसलन कम खर्च में ‘भगवान’ तैयार हों तो शायद आम आदमी को सस्ते में आशीर्वाद मिल पाए। दूसरी, कम खर्च में तैयार होने वाले ‘भगवान’ का अगर ईमान फिसलू हुआ तो उन्हें तैयार करने पर आने वाला खर्च सरकार वहन करेगी और कहीं न कहीं से जेब आपकी ही कटेगी। ऐसे में सवाल पैदा होता है कि रास्ता क्या है?
दोस्तों, रास्ता है। वही, गांधीजी वाला रास्ता। सुभाष चंद्र बोस वाला रास्ता। सरदार पटेल वाला रास्ता। भगत सिंह वाला रास्ता। चंद्रशेखर आजाद वाला रास्ता। आप कहेंगे, इन रास्तों पर कितने लोग चलेंगे? उन्हें चलने कौन देगा? तो साथियों, अंगड़ाई ले रहे भारतीय समाज में अब आंदोलन को दबाया नहीं जा सकता। जनता जाग रही है। उसे साफ और विकासशील समाज को गढ़ना है। हां, यह जरूर है कि आगे आने वाले लोगों की थोड़ी कमी है। नेता जैसे जीव से उनका विश्वास उठ चुका है। इसलिए उनके बीच उनका बनकर जाना होगा।  (क्रमश:)

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देश की जांबाज बेटी दामिनी, माफ करना

दामिनी, मौत ने तुम्हें भले ही मात दे दी, लेकिन तुम्हारे संघर्ष ने देश के सवा अरब लोगों के दिलों को झकझोर कर जिंदा कर दिया। 16 दिसंबर की रात दिल्ली में चलती बस में इंसान रूपी भेड़ियों ने हैवानियत की सीमा पार करते हुए तुम्हे असह्य पीड़ा दी। तुमने उस पीड़ा से आखिरी दम तक हिम्मत और दिलेरी से लड़ाई की।
देश की जांबाज बेटी दामिनी! यकीन, मानो जब तुम उस असह्य पीड़ा से लड़ रही थी, देश भी उसी दौर से गुजर रहा था। फर्क इतना था कि तुम अस्पताल में थी और देश सड़कों पर।
तुम वास्तव में कोई ‘दिव्य शक्ति’ थी। राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से संक्रमण काल से गुजर रहे इस देश को तुम दिशा देने आई थी। बिखराव की पटरी पर खड़े इस देश को तुम एकता के सूत्र में पिरोने आई थी। आजादी के इन 65 वर्षों में देश में कई परिवर्तन हुए। क्रांतियां हुईं। आंदोलन हुए। लेकिन,  तुम्हारे जख्मों को जिस शिद्दत से देश ने महसूस किया, जिस शिद्दत से तुम्हे इंसाफ दिलाने के लिए देशवासी सड़कों पर उतरे, वैसा कभी नहीं हुआ। सही मायने में कश्मीर से कन्याकुमारी तक के लोगों के लिए तुम ‘अपनी’ थी। तुम्हारा दर्द हर दिल में सुलग रहा है। आज देश क्रांति की दहलीज पर है। व्यवस्था सुदृढ़ होने की उम्मीद जगी है। लेकिन, इन सारी बातों के बीच देशभर के लोगों की आंखें तुम्हें ढूंढ़ रही हैं। तुम हमारे बीच नहीं रही, लेकिन तुम्हारे दूर होने का विश्वास हमें नहीं होता। माफ करना, देशवासियों की दुआएं तुम्हें नहीं बचा पाईं, लेकिन उम्मीद रखो उनका संघर्ष तुम्हे न्याय जरूर दिलाएगा। 

डरो ‘भगवान’, अपने अस्तित्व के लिए डरो! (भाग-3)

इन ‘भगवान’ की निजी दुकानों में जब हम जाते हैं तो इनका बर्ताव कैसे बदल जाता है? कैसे ये लोग आपकी हर परेशानी के बारे में पूछते हैं और आपसे सहानुभूति रखते हैं? सरकारी संस्थानों में होने के दौरान इन ‘भगवान’ के व्यवहार और पेशेवर निष्ठा को क्या हो जाता है? एक सवाल है, रिश्वत किसे कहेंगे? मेरी तरफ से उत्तर है, जायज काम के लिए नाजायज आग्रह करना। एक सरकारी सेवक जब आपसे आपके जायज काम के बदले नाजायज मांग करता है तो आप उसे रिश्वत कहते हैं। फिर, अगर ये सरकारी सेवक रूपी कथित ‘भगवान’ आपको निजी दुकानों में बुलाते हैं और आपसे वसूलते हैं तो इसे रिश्वत नहीं कहा जाना चाहिए? काले धन को बढ़ावा देने में इन कथित ‘भगवान’ का भी बड़ा हाथ है। इसे ऐसे समझा जा सकता है- सरकारी सेवक रूपी ये ‘भगवान’ अपने वेतन से ज्यादा आय दिखा नहीं सकते। कारण है कि सरकार सवाल पूछेगी। इनकम टैक्स ज्यादा देना होगा...आदि...आदि। नतीजतन, इनके रिश्तेदार रातोंरात अमीर हो जा रहे हैं। अब व्यवस्था ही ऐसी है कि उनसे कोई यह नहीं पूछने वाला कि इतनी राशि आपके पास आई कहां से? और इस प्रकार आपका सफेद पैसा काला होता चला जाएगा। 
हम भी चाहते हैं कि हमारे बच्चे सरकारी सेवक बनें। खासकर, चिकित्सक, इंजीनियर व पुलिस-प्रशासनिक अधिकारी। उनकी पढ़ाई पर खर्च करते थोड़ी सी भी हिचकिचाहट या चिंता नहीं होती। कारण, हम आश्वस्त होते हैं कि डिग्री मिलते ही नौकरी मिलेगी और नौकरी मिलते ही पैसे मिलने शुरू हो जाएंगे। पांच-सात लाख रुपये घूस (डोनेशन) तो यूं वसूल हो जाएंगे। वास्तव में हम व्यावसायिक शिक्षा नहीं बल्कि, व्यवसाय के लिए शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं और इसके लिए ही लोगों को प्रेरणा दे रहे हैं। यही कारण है कि हमारी नई पीढ़ी के लोग अच्छे डॉक्टर, इंजीनियर और सरकारी सेवक तो बन जा रहे हैं, लेकिन समाज में अच्छे इंसानों की संख्या दिन ब दिन कम होती जा रही है। सड़क पर दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को देखने वाले लोगों की संख्या तो बहुत रहती है, लेकिन बहुत देर बाद कोई ऐसा इनसान वहां पहुंचता है जो पीड़ित को हॉस्पिटल ले जाने की पहल करता है। छेड़खानी से मुंह फेरने वाले लोगों की संख्या ज्यादा हो गई है। असत्य के विरोध में आवाज जब-जब दबी है, तब-तब असत्य विभिन्न रूपों में सामने आया है। भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी और गुंडागर्दी जैसे तत्व तभी विकराल होते जाते हैं जब सत्य और प्रतिकार की सत्ता पर संशय के बादल मंडराने लगते हैं। (क्रमश:)
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डरो ‘भगवान’, अपने अस्तित्व के लिए डरो! (भाग-2)

सांस्कृतिक और सामाजिक संक्रमण के इस दौर में जब आदमी के आंखों पर माया का पर्दा पड़ जाता है तो उसे रंगीनियत के अलावा कुछ भी दिखाई नहीं देता। उन ‘भगवान’ की भाषा में कहें तो उन्हें ‘कलर ब्लाइंडनेस’ हो जाता है। आम आदमी की भाषा में इसे कहना चाहें तो ‘बेशर्मी’ भी कह सकते हैं। हालांकि, कथित ‘भगवान’ के बारे में मैं ऐसा अपनी तरफ से कहने की गुस्ताखी नहीं कर सकता।
सामाजिक परिष्कार की क्रांति के इस दौर में सबसे ज्यादा दो मुद्दों पर आवाज बुलंद हो रही है, पहला काला धन और दूसरा रिश्वतखोरी। इन दो मुद्दों पर समाज के लोग ज्यादातर सरकारी व्यवस्था पर ही चोट करते हैं। कारण है कि निजी क्षेत्र अब तक रिश्वत लेने वाली व्यवस्था से बहुत हद तक दूर है। हां, इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि वह रिश्वत देने वाली व्यवस्था में शामिल न हो। सरकारी व्यवस्था में जनता की सहभागिता होती है। व्यवस्था से काम लेना उनका हक होता है। इसलिए अपेक्षाएं भी ज्यादा होती हैं। मेरी नजरों में यह गलत भी नहीं है। लोग कहते हैं कि धीरे-धीरे सरकारी व्यवस्था से लोगों का विश्वास टूट रहा है, लेकिन मेरा मानना है कि हकीकत यह नहीं है। आज भी जहां सरकारी मुहर लग जाती है लोग निश्चिंत हो जाते हैं।
समाज के ये कथित ‘भगवान’ भी सरकारी व्यवस्था का ही एक हिस्सा हैं। इनसे भी लोगों की काफी उम्मीदें होती हैं। हां, यह दिगर है कि जनता से भी इन्हें काफी अपेक्षाएं होती हैं। और सबसे बड़ी अपेक्षा होती है माया की। इस माया के चक्कर में ये ‘भगवान’ यश और अपयश को भूलने लगे हैं। लेकिन, सबसे बड़ा सवाल उठता है कि इन्हें ‘भगवान’ किसने बनाया और इन पर माया का पर्दा किसने डाला?
आज के दौर में धरती का सबसे बड़ा ‘भगवान’ तो जनता है। यही जनता सभी कथित विशिष्ट लोगों की किस्मत लिखती है।  जनता ही चुनाव में जीताकर एमएलए और मुख्यमंत्री, सांसद और प्रधानमंत्री तय करती है। किसी कंपनी को अपनना या उसे खारिज कर देना जनता के वश की ही बात है। किसी व्यक्ति विशेष की प्रसिद्धि और मुखालफत सिर्फ जनता के हाथों में है। लेकिन, अफसोस है कि हम अपनी ताकतों को भूलने लगे हैं। कारण है कि सत्य, असत्य, सही और गलत के बीच का विभेद के बारे में हमने सोचना ही छोड़ दिया है। हम असंगठित हो गये हैं। सबसे बड़ी बात हम मतलबी हो गये हैं।
जरा सोचिए, धरती के इन कथित ‘भगवान’ की स्वीकार्यता कहां तय होती है। इनके कार्यस्थलों में। देश के किसी भी हिस्से में चले जाएं, उन्हीं कथित ‘भगवान’ की निजी दुकानें जोरदार तरीके से चलती हैं, जिन पर सरकार की मुहर लगी होती है। मतलब, सरकारी चोंगा ओढ़कर वह अपनी दुकानें चलाते हैं। इन दुकानों में आता कौन है? हम और आप। देखा जाये तो इनकी निजी दुकानों को हमने ही बढ़ावा दिया। हमने ही इनकी निजी दुकानों को भव्यता दी। अगर, लाइन में लगने की परेशानी और सामान्य से अलग दिखने की प्रवृत्ति से हम बच पाते और सरकारी संस्थानों में ही इन ‘भगवान’ की सेवाएं लेते तो ये दुकान कैसे बना पाते?
हमने अपनी स्वार्थपरता के कारण इनकी दुकानों को चमका दिया। इन्होंने हमारी मजबूरी का फायदा उठाते हुए अपनी दुकान को चेन शॉप में तबदील कर दिया। कड़ियां जुड़ती गईं और हमने खुद अपने हाथों से अपनी शोषण की दुकानें तैयार कर लीं। तकलीफ दूर करने के लिए हमें दुकान-दुकान भटकते हुए अपने पैसे और सुकून को सहर्ष न्योछावर करना पड़ता रहा है। बदले में कथित ‘भगवान’ को क्या करना पड़ा? थोड़ी सी शर्म छोड़नी पड़ी और समाजसेवा की उस शपथ को दिमाग से उतारना पड़ा जो इन्होंने डिग्री लेते हुए ली थी। (क्रमश:)
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डरो ‘भगवान’, अपने अस्तित्व के लिए डरो! (भाग-1)

पहले एक कहानी सुनिये।
एक राजा थे। बहुत प्रतापी। जनता उनसे बहुत प्यार करती थी। राजा का दरबार भी जनता के लिए हमेशा खुला रहता था। किसी भी समस्या को लेकर कोई भी व्यक्ति कभी भी राजा के दरबार में बेरोकटोक पहुंच जाया करता था। राजा भी उसका तत्काल समाधान कराने की कोशिश करते थे। राज्य में खुशहाली थी और प्रजा की दुआ से राजमहल भी खुशियों से जगमगाता रहता था। इस बीच राजा की आंखें पड़ोस की राजकुमारी से लड़ गईं। राजकुमारी बहुत ही शातिर और गुस्सैल थीं। महारानी, मंत्रियों और यहां तक कि राज्य की प्रजा भी ने भी राजा को बहुत समझाया। उनसे आग्रह किया कि दूसरी शादी न करें। लेकिन, राजा नहीं माने। शादी हुई और राजकुमारी रानी बनकर महल में आईं।
     रानी का सौंदर्य राजा के ऊपर जिद्द के रूप में हावी होने लगा।  नखरेबाज रानी का क्रोध पहले महल के हरकारों और दासियों पर गाज बनकर गिरने लगा। सौंदर्य और विलासिता महल पर हावी होने लगे। महल के खर्चे बढ़ गये। राज्य की जनता के कल्याण पर होने वाले व्यय में कटौती होने लगी। किसान और व्यापारी हलकान होने लगे। उधर, रानी की विलासिता बढ़ती गई। रानी के मोहपाश में बंधे राजा को राज्य की हालत दिखाई नहीं दे रही थी। खर्च बढ़ते गये तो जनता पर टैक्स भी बढ़ने लगा। जनता त्राहिमाम करने लगी। टैक्स की वसूली में सख्ती बरती जाने लगी। जगह-जगह जेल बना दिये गये। टैक्स न देने वालों को जेल भेजा जाने लगा। यूं कहें कि सत्ता राजा के हाथों से निकलकर नई रानी के हाथों में आ गई थी। लोगों पर सिपाही आतंक बनकर टूटने लगे। वे राजकीय कोष कम और अपना घर ज्यादा भरने लगे। लोगों की पिटाई तो आम बात हो गई, जरा सी बात पर चौराहे पर लोगों को मौत की सजा सुनाई जाने लगी। सिपाही जब बाजार या मुहल्ले से गुजरते तो लोग घरों और दुकानों के दरवाजे बंद कर देते।
उधर, घर में रहते-रहते राजा को बीमारियों ने जकड़ना शुरू किया। राज वैद्य ने सलाह दी कि राजा रोज नगर से बाहर खुली हवा में सुबह-शाम सैर करें। राजा की सवारी जब महल से निकलती तो गांव-मोहल्ले और शहर में मुनादी करवा दी जाती। लोग अपने घरों में दुबक जाते। राजा को समझ नहीं आ रही थी कि जो जनता उनके शहर भ्रमण के दौरान पलक-पवाड़े बिछा देती थी वह आखिर गई तो कहां गई? सैर का भी राजा पर असर नहीं पड़ा। धीरे-धीरे उनकी तबीयत और खराब होती गई। मुनादी कर लोगों को राज दरबार में बुलाया जाता लेकिन, कोई नहीं पहुंचता। अंतत: प्रजा की उपेक्षा और महल का अकेलापन राजा को खा गये।
     अब धरती पर समाज के लोगों ने तथाकथित एक संभ्रांत वर्ग को ‘भगवान’ का दर्जा दे दिया है। लोगों का मानना है कि ऊपरवाला भगवान जन्म देता और नीचे का यह ‘भगवान’ मृत्यु को रोक सकता है। लोगों की मान्यता पूरी तरह गलत भी नहीं है। इस ‘भगवान’ वाले समाज से ही कई ऐसे निकले जो पूरी जिंदगी समाज के लिए जीते रहे। गरीबों को काफी मदद की। कुछ लोग तो आज भी कर रहे हैं। लेकिन, ‘भगवान’ समाज का बहुसंख्यक हिस्सा माया के मोहपाश में बंध चुका है। ऐसे में उनके अस्तित्व पर बनता जा रहा है। हालांकि, उन्हें अभी इसका भान नहीं हो पाया है।


                                             क्रमशः
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अजब झारखंड की गजब कहानी-5

 शास्त्रीजी की खुदकुशी और व्यवस्था की रक्तपिपासा

दुकानदार तो मेले में लुट गये होंगे
सीताराम शास्त्री

तमाशबीन दुकानें सजाये बैठे हैं।

आज फिर एक दुकानदार व्यवस्था रूपी बाजार में लुट गया। वह अपनी दुकान में बेचता था पृथक झारखंड के सपने, स्वत्व का उत्साह और स्वावलंबन तथा विकास का जज्बा। लेकिन, उसकी दुकान को सरकारी तंत्र से आइएसओ प्रमाण-पत्र नहीं मिल पाया था। मिलता भी कैसे? अगर सिर्फ वह अपनी बात करता तो शायद सरकार मान भी लेती, लेकिन वह तो समग्र झारखंडियों के हक और हुकूक की बात करता था। वह सिद्धांतों का समुच्य था। वामपंथी, झारखंडी और समानतावादी सिद्धांतों को उसने आत्मसात किया था। इसलिए अकेले का लाभ उसे किसी भी कीमत पर मंजूर नहीं था।
                हम उस महान विभूति और झारखंड आंदोलनकारियों के प्रणेता सीताराम शास्त्री की बात कर रहे हैं, जिन्होंने सिर्फ पैदा होने भर से झारखंड को अपनी मातृभूमि और कर्मभूमि मान लिया। झारखंडी चेतना का संचार उनके रग-रग में था। इसलिए वह झारखंड को स्वर्ग बनाने की सोचते थे। इसके लिए लोगों को एकजुट करते थे। मेरी बगल की कॉलोनी (गायत्री होम्स) में वह अपनी पत्नी के साथ रहते थे। महानगरीय सभ्यता का प्रभाव इस जमशेदपुर पर भी हावी होने लगा है। बड़ी से बड़ी घटनाएं पड़ोसियों को प्रभावित नहीं करतीं। विजयादशमी के दिन सुबह से ही शास्त्रीजी लापता थे। इस बात की जानकारी मोहल्ले के कम लोगों को हो पाई। जानकारी तब हुई जब गुरुवार की रात को उनका शव आदित्यपुर स्टेशन के पास मिला। शुक्रवार की सुबह जब अखबार के जरिये शास्त्रीजी के न होने की खबर मिली तो उनकी कॉलोनी से लेकर एमजीएम पोस्टमार्टम हाउस तक लोग अंतिम दर्शन के लिए पहुंचने लगे। 
       मैं उस समय डिमना चौक पर खड़ा था जब शास्त्रीजी का पार्थिव शरीर पोस्टमार्टम के बाद घर के लिए लाया जा रहा था। शवयात्रा में मोहल्ले ही नहीं बल्कि आसपास के उनके प्रशंसक शामिल थे। बड़ी संख्या में महिलाएं भी। उनके चेहरे पर अपने के खोने की वेदना थी। और उससे भी ज्यादा टीस थी व्यवस्था के लकवाग्रस्त होने की।
            आपको जानकर आश्चर्य होगा कि जिस व्यक्ति ने कोल्हान ही नहीं बल्कि पूरे झारखंड के नेताओं को भेदभाव भुलाकर पृथक झारखंड के लिए एक मंच पर ला खड़ा किया उनकी मृत्यु स्वभाविक नहीं थी। उन्होंने खुदकुशी की। इसके पहले उन्होंने एक सुसाइड नोट छोड़ा, जिसमें लिखा कि वे किसी पर बोझ नहीं बनना चाहते। उनकी मृत्यु के बाद उनके शव को एमजीएम मेडिकल कॉलेज के विद्यार्थियों को शोध के लिए दान में सौंप दिया जाए। 
दरअसल, प्रदेश की लकवाग्रस्त व्यवस्था का उनके जीवन पर बोझ इतना भारी हो गया था कि वह उस बोझ के साथ अपना भार किसी अन्य पर डालना नहीं चाहते थे। उनके गले में परेशानी थी और चिकित्सकों ने उसे कैंसर बता दिया था। बेटी क्रांति प्रभा और दामाद बेहतर इलाज के लिए उन्हें दिल्ली ले जाना चाहते थे। विजयादशमी की दोपहर उनकी ट्रेन थी। लेकिन, वह शायद सोचते रहे कि व्यवस्था बनाने के लिए सबकुछ लुटाने के बाद अब जिंदगी बचाने के लिए बेटी पर निर्भरता ठीक नहीं। संभवतः इसलिए साहस, धैर्य और समझ की प्रतिमूर्ति शास्त्रीजी यह जानते हुए कि खुदकुशी कायरता है का मार्ग अपनाया।
               उनके लिए खुदकुशी इस दमघोटू व्यवस्था का आखिरी विकल्प रहा होगा। राज्य के बने एक युग बीत गया, लेकिन क्या इसके और इसके लोगों के विकास की तस्वीर बदल पाई? वह चाहते थे कि झारखंड आंदोलनकारियों को सम्मान मिले। इसलिए नहीं कि उन्होंने पृथक राज्य का आंदोलन किया और बदले में उन्हें सुविधाएं मिलनी चाहिए। बल्कि, इसलिए कि जिन्होंने झारखंड आंदोलन में अपना सबकुछ गंवा दिया, घर, जमीन, जवानी और यहां तक कि अर्थोपार्जन के अवसर भी, उन्हें अंतिम दिनों के लिए कुछ ऐसा सहयोग मिलाना चाहिए जिससे उन्हें जीवित रहते दिक्कतों का सामना न करना पड़े और सहज रूप में सद्गति मिल जाये। लेकिन, एक युग बीतने के बाद भी अब तक झारखंडी सरकार को यह बात समझ में नहीं आई।
देखा जाये तो प्रदेश की अन्य समस्याओं की श्रेणी में आंदोलनकारियों के सम्मान के मसले को भी रख दिया गया। सियासी लोग सत्ता में आ गये और आंदोलनकारी महज मुद्दा बनकर रह गये। इससे बड़ी शर्म की बात क्या होगी कि पृथक झारखंड बने एक युग बीतने के बावजूद सरकार को अब तक यह नहीं पता कि राज्य में आंदोलनकारी कितने हैं। उनकी संख्या जानने के लिए अभी भी सर्वे चल रहा है।
             वास्तव में शास्त्रीजी की खुदकुशी व्यवस्था के दमघोटू होने का प्रमाण है। इतने बड़े कर्मयोगी और प्रेरक पुरुष संघर्ष का राह छोड़कर मौत को गले लगा लेते हैं तो यह मानना पड़ेगा कि व्यवस्था निराशा की चरम पर पहुंच गई है। आम आदमी को इस व्यवस्था से क्या मिल रहा है और आगे क्या मिलेगा, इसकी वह कल्पना भी नहीं कर पा रहा है। तो क्या यह मान लिया जाये कि व्यवस्था रक्तपिपासु हो गई है? किसी के जिंदा रहते उनके होने का महत्व पता नहीं चल पाएगा? क्या शास्त्रीजी को सरकार से उचित सम्मान मिल गया होता तो वह खुदकुशी करते? सवाल यह भी कि अगर ऐसा होता रहा तो क्यों कोई शास्त्री पैदा होगा? क्यों कोई क्रांति का बीड़ा उठायेगा? क्यों कोई समाज और सरोकार के बारे में सोचेगा? अगर ये सवाल सरकार को कचोटते हैं तो कम से कम उन महान विभूतियों को संजोने की पहल करे जो अब तक सम्मान और सहयोग की उम्मीद में सांसें ले रहे हैं।  

राजनीतिक गुरु भी थे शास्त्रीजी

किसी भी आंदोलन को तैयार करने तथा उसकी रूपरेखा बनाने में सीतारामजी परांगत थे। उन्होंने कोल्हान के बहादुर उरांव, मछुवा गागराई, देवेंद्र माझी, गंगाधर आदि को आंदोलन के लिए तैयार किया और रणनीतिकार बनाया। चक्रधपुर के 1969 के बीड़ी मजदूर आंदोलन का सारा खाका सीताराम शास्त्री ने ही खींचा था। इस आंदोलन में काफी लोग गिरफ्तार हुए थे, जिन्हें हजारीबाग सेंट्रल जेल भेजा गया था। शिबू सोरेन जब पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा के आगे झुक गये थे तब विनोद बिहारी महतो ने इस पर कड़ा ऐतराज जताया था, इसके बाद विनोद बिहारी महतो और शिबू सोरेन में आपसी बातचीत तक बंद हो गयी थी। उन दोनों के बीच के मन मुटाव को 1978 में शास्त्रीजी ने ही खत्म कराया था।

जहां जन्मे वहीं के होकर रह गये

शास्त्रीजी आंध्र प्रदेश के मूल निवासी थे। जमशेदपुर में जन्में शास्त्रीजी की पढ़ाई मेसर्स केएमपीएम स्कूल से हुई। वे हिंदी और अंग्रेजी के प्रसिद्ध अनुवादक थे। बीमा कंपनी में उन्हें नौकरी मिली थी, जिसके बाद उन्होंने वाम विचारधारा के साथ आंदोलन शुरू किया। वे पीयूसीएल, मानवाधिकार, झारखंड आंदोलन के साथ भी विभित्र मंचों पर जु.डे रहते थे। वर्तमान में वे झारखंड मुक्ति वाहिनी के साथ मिलकर आंदोलन चला रहे थे। उन्होंने कई किताबें भी लिखीं।

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अजब झारखंड की गजब कहानी-4

    डैम, विस्थापन, पुनर्वास, दिकू, जल, जंगल, जमीन, सीआरपीएफ कैंप, रोजगार, माइंस, क्रशर, प्रदूषण, विकिरण...मुद्दे कई हैं। ग्रामीणों के लिए भी और उनके नुमाइंदों के लिए भी। ग्रामीण इन मुद्दों का हल चाहते हैं और नुमाइंदे इन पर बल।
    ऐसा नहीं कि ये मुद्दे स्थानीय हैं। बल्कि, हकीकत तो यह है कि ये मुद्दे स्थानीय होते हुए भी प्रदेश से लेकर दिल्ली तक की रजानीति के द्वार खोलते हैं। आजादी के बाद इन मुद्दों ने कई लोगों को राज्य से लेकर दिल्ली तक की गद्दी नसीब करा दी लेकिन, कुबेर के आशीर्वाद से इनमें रत्ती भर की कमी नहीं आई। आजादी से पहले भी यहां मुद्दे यही थे और आज पैंसठ साल बाद भी यही हैं। 
    कुछ बदला है तो मुद्दों को भुनाने वाले लोग और मुद्दों का स्वरूप। मुद्दों को खत्म करने की कसम खाई जाती है। उन पर हमला भी बोला जाता है लेकिन, इन्हें कभी जड़ से खत्म नहीं किया जाता। क्योंकि, नुमाइंदे अच्छी तरह से जानते हैं कि इनके खत्म होने के बाद जनता के हिस्से शिक्षा की रोशनी आएगी। इसके बाद वे सही और गलत को समझने लगेंगे। और अगर ऐसा हुआ तो जंगल में रहने वाले लोग शहर में आकर बराबर की कुर्सी पर बैठने लगेंगे। कथित बुद्धिजीवियों और संभ्रात लोगों की जमात बढ़ जाएगी और बात कुर्सी छिनने तक आ सकती है। 
  कितना अजीब लगता है कि आजादी के पैंसठ वर्षों बाद आज जबकि भारत ने हिमालय की सबसे ऊंची चोटी से लेकर चांद और मंगल पर जीत हासिल कर ली है,  झारखंड के जंगलवर्ती क्षेत्र के सैकड़ों गांवों के हजारों लोगों के लिए बल्ब की रोशनी किसी जादू से कम नहीं है। ड्राम में पानी भर उसमें पेट्रोल डाला जाता है और आग लगा दी जाती है। फिर भोले-भाले वनवासियों से कहा जाता है कि यह प्रभु का चमत्कार है। तुम जिस सरना धर्म को मानते हो, संथाली, मुंडा, मांझी या हो किसी भी समुदाय के भगवान में इतना चमत्कार है कि पानी में आग लगा सकें? इसलिए तुम हमारे हो जाओ। हमारे भगवान तुम्हारी रक्षा करेंगे। हम पैसे देंगे और खाना भी। और ये भोले-भाले लोग अपनी परंपरा और जीवन पद्धति में भी बदलाव के लिए तैयार भी हो जाते हैं और बदलाव कर भी लेते हैं। खैर, इस बारे में आगे विस्तार से चर्चा होगी।
  चांद पर दुनिया बसाने की बात करने वाले भारत के भीतर ही अभी कई हिस्से ऐसे हैं जहां जाने के लिए सड़क तो दूर गली या पगडंडी तक नहीं है। झारखंड में तो ऐसे गांव हजारों की संख्या में हैं। सरकारी नुमाइंदों के पास इसके लिए अपना तर्क है। बंदूकधारी लोग नहीं चाहते कि जंगली इलाकों में रोड बने। जबकि, ग्रामीण बताते हैं कि रोड बनने का उन्होंने कभी विरोध ही नहीं किया। हां, लालफीताशाही और अफसरशाही के पालनहारों ने कभी दफ्तरों से बाहर निकलकर जंगल में रहने वाले लोगों की सुध ही नहीं ली।
   गत वर्ष समाचार पत्रों में पढ़ा था। सारंडा के बालिबा क्षेत्र में आजादी के बाद तब पहली बार सरकारी काफिला पहुंचा था। जिले के मालिक उपायुक्त, एसपी समेत विभिन्न विभागों के आला अधिकारी वहां पहुंचे थे। गरीबों को अचंभा हुआ था। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि एसी में रहने वाले इन जीवों को वे कहां बैठायें और कैसे बैठायें? तब वे भी इनकी सेवा और आवभगत से अभिभूत हो उठे थे। दिल के कोने में छिपा सेवाभाव हिलोरें मारने लगा था, जिन्हें इन्होंने अपने भाषण के रूप में लोगों के सामने रखा था। लेकिन, भाषण तो भाषण ही होता है न जनाब। इन गरीब लोगों की मदद के चक्कर में संभ्रांत और पहुंच वाले लोगों की शिकायत भला ये अधिकारी क्यों झेलें।
    पूर्वी सिंहभूम जिले के पटमदा क्षेत्र में एक बोड़ाम जगह है। वहां के रहने वाले मंगल सबर नामक व्यक्ति को हाथी ने मार डाला था। जंगली जानवरों द्वारा मारे जाने पर मृतक के परिजनों को मुआवजा दिया जाता है। लेकिन, इसके लिए मृत्यु प्रमाण-पत्र की जरूरत होती है। यह प्रमाण-पत्र अंचलाधिकारी कार्यालय से निर्गत होता है। अब यह गरीब परिवार भला अंचलाधिकारी कार्यालय के लोगों पर क्या जादू कर पाता। चक्कर काटने लगा, लेकिन मृत्यु प्रमाण-पत्र मिलने की उम्मीद भी नहीं दिख रही थी।
  इसकी जानकारी किसी प्रकार वह पत्रकारों को दे पाने में सफल हो पाया। हिन्दुस्तान ने उसकी दास्तान को प्रमुखता से उठाया। तब कहीं जाकर उसे मृत्यु प्रमाण-पत्र मिल पाया। अब जरा सोचिये कि सामान्य सी सरकारी कार्रवाई के लिए जहां आम जनता को इतनी मशक्कत करनी पड़ती है वहां विकास की तेज गति और परिर्वतन की बात करना महज चुटकुला नहीं तो क्या है?      (जारी...)
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अजब झारखंड की गजब कहानी-3



   गरीबों की जाति नहीं होती। गरीबी अपने आप में एक बड़ा धर्म है। आज कलियुग का दौर है। संस्कृत में एक प्रसिद्ध सूक्ति है- संगठन शक्ति कलियुगे। यानी, कलियुग (कलिकाल) में संगठन सबसे बड़ी शक्ति है।
   वनों और गांवों में रहने वाले इन गरीब आदिवासियों के संगठन तो कई बने लेकिन, इनकी आवाज को बुलंदी देने वाला कोई एक संगठन नहीं बन पाया। यूं कहें कि आदिकाल से ही संगठित होकर रहने वाले ये जंगलप्रेमी लोग गांव और क्षेत्र के दायरे से बाहर नहीं निकल पाये।
   भारत वर्ष ही नहीं विश्व के कोने-कोने में रहने वाले ये आदिवासी एक नहीं हो सके या यूं कहें इन्हें एक नहीं होने दिया गया। मुंडा, उरांव, गोंड, नागा, सबर, हो आदि जातियों में ये बंटे रहे और अपनी मूल सभ्यता और संस्कारों को पल्वित-पुष्पित करने के चक्कर में मूल भावनाओं और अधिकारों से अलग होते गये।
  सरकारी तुष्टीकरण की नीति के तहत आजादी मिलने के बाद इन्हें आरक्षण दिया गया। 1994 में युनो की इंडिजिनस पीपल परमनंट फोरम की बैठक में एक संकल्प पारित करके 9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस मनाना निश्चित किया गया। विश्व आदिवासी दिवस मनाने का मूल उददेश्य वैश्विक स्तर पर आदिवासियों में अपने मूल अधिकारों के प्रति जागरुकता पैदा करके उनके सांस्कृतिक मूल्यों को बरकरार रखना, आदिवासियों के जल-जंगल-जमीन के अधिकारों का संरक्षण करना है।
  लेकिन, जल, जंगल और जमीन के अधिकारों का क्या संरक्षण हो पा रहा है? गांवों को शहर और शहरों को महानगर बना चुके कथित विकासवादी लोगों की नजर जंगलों पर गड़ गई। विज्ञान की प्रगति ने उन्हें बता दिया कि जंगल में आदिवासी और जंगली जीव भर नहीं रहते। बल्कि, अकूत और बेशकीमती संपदा सुरक्षित हैँ। पेड़ काटे जाने लगे। जंगल कम होने लगे। जमीन के भीतर से लोहा, सोना, चांदी, तांबा, हीरा, पन्ना आदि खोद कर निकाले जाने लगे। जमीन भीरत से खोखली होती जा रही है। नदियों में फैक्ट्रियों का दूषित पानी छोड़ा जा रहा है। अब, इन परिस्थितियों में कोई बताये कि आदिवासियों का हक, जल, जंगल और जमीन कहां तक उनकी रह गई।
   ऐसा नहीं कि ये लोग अपने हक के लिए आवाज नहीं उठाते। उठाते हैं लेकिन, सरकार इनकी आवाज को कभी विकास के नाम पर तो कभी विनाश के नाम पर दबा देती है। शांतिप्रिय लोग तो तमाम रगड़ों-झगड़ों से बचने के लिए ये बेचारे तो गुफाओं और कंदराओं में भी रह लेते लेकिन, उन जगहों पर भी तो अब बाहरी लोगों ने कब्जा जमा लिया है।
   क्रांतिकारी समाज के कुछ युवाओं का इन उपेक्षाओं से ऐसा खून खौलता है कि व्यवस्था से विश्वास उठ जाता है। ये युवा बंदूक उठा लेते हैं और जंगल बदनाम हो जाता है। व्यवस्था के कथित अगुवा लोगों ने शायद उन्हें वापस बुलाने के लिए आवाज ही नहीं लगाई, जैसा कि इस समाज के ज्यादातर लोगों का कहना है। वे रास्ता भटकते गये और हक और हुकूक की लड़ाई के नाम पर अपराध और संहार के दलदल में फंसते चले गये। इसका खामियाजा इनके भाइयों को भुगतना पड़ा और पड़ रहा है। काश, ये समझ पाते कि जिन भाइयों और परिजनों के लिए इन्होंने बगावत का झंडा बुलंद किया था अब उन्हीं को मारने का क्या मतलब हो सकता है? भला वे इन भाइयों के प्रगति की राह में क्यों बाधक बन रहे हैं?
    सरकार और व्यवस्था मानती है कि जंगल तक बिजली की रोशनी पहुंचने में लंबा समय लग गया, आजादी के बाद वहां के लोगों को विकास और अपनी सरकार की बाट जोहते साठ साल से ज्यादा गुजर गये, लेकिन, अब जब सरकार उनके द्वार पहुंची है और अपनी गलती सुधारना चाहती है तो क्या उसे एक मौका नहीं दिया जाना चाहिए? (जारी...)
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अजब झारखंड की गजब कहानी-२


     आबुआ दिशोम, आबुआ राज। हर आदिवासी की जुबां पर यह नारा जिसका मतलब अपना राज्य और अपना राज होता है मिल जाएगा। आजादी से पहले से ही ये वनवासी और मूलवासी लोग नारा लगाते रहे हैं। शायद उससे पहले से ही। लेकिन, हकीकत यही है कि तब इन लोगों को दिकू (बाहरी लोग) लोगों ने छला था और इन्हें दिकू और सदान (मूलवासी) दोनों मिलकर छल रहे हैं। मैं ऐसे कई कार्यकर्ताओं को जानता हूं जिन्हों ने अलग झारखंड राज्य आंदोलन में अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया, लेकिन आज उनका परिवार मुफलिसी के दौर से गुजर रहा है।
      हकीकत सब जानते हैं कि मरता या मारता वही है जो लड़ता है। जो लड़ता ही नहीं है उसके जीतने और मरने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। रही बात झारखंड अलग राज्य आंदोलन की तो उसकी लड़ाई लड़ने वाले सिपाही या तो मारे गये या फिर गुमनाम हैं। जिन्होंने आंदोलन को नेपथ्य में रहकर समर्थन किया था और मीडिया में फोटो खींचते वक्त सामने आये थे वही आज चर्चा में हैं। पूर्वी सिंहभूम जिले का एक प्रखंड है चाकुलिया। एक और प्रखंड है गुड़ाबांधा। गुड़ाबांधा नक्सल प्रभावित है। चाकुलिया भी। लेकिन, औद्योगिक विकास की दृष्टि से देखें तो चाकुलिया कहीं आगे है। यहां कई कल-कारखाने हैं। खासकर धान का उत्पादन यहां काफी होता है। गर्मी के दिनों में भी। यही कारण है कि यहां चावल मीलों की संख्या काफी अधिक है। लेकिन, चावल उपजाने वालों को मिलता क्या है? शायद एक-दो महीने की समृद्धि। समृद्धि शब्द का प्रयोग इसलिए कर रहा हूं क्योंकि जहां दस महीने लोग फांके में गुजरते हों वहां दो महीने घर में चावल और धान का विपुल मात्रा में होना समृद्धि का ही द्योतक है।
    हरियाली को चादर की तरह लपेटे इन इलाकों में विकास की रोशनी थोड़ी ज्यादा ही कम है। अशिक्षा और अंधविश्वास का अंधेरा भी अभी नहीं छटा है। लोग काफी भोले-भाले हैं। सहज ही विश्वास कर लेते हैं और तब तक विश्वास करते हैं जब तक अगला आदमी खुद पहचान में न आ जाए। लेकिन, जब विश्वासघात की बात जाहिर हो जाती है तो फिर ये घातक हो जाते हैं। फिर कानून और अहिंसा का नैसर्गिक सिद्धांत खत्म हो जाता है। इन लोगों की इसी निरीहता और सादगी का फायदा इनके लोग और बाहरी लोग उठा रहे हैं। आजादी के दौरान इन्होंने सैनिक की भूमिका अदा की, झारखंड पृथक राज्य आंदोलन में भी और आज भी कर रहे हैं।
   जेठ की गर्मी और बरसात के दिनों में संभ्रांत इलाकों में चार अंकों में भीड़ जुटाना नाकों चने चबाना जैसा होता है, लेकिन यहां इतनी मशक्कत नहीं करनी पड़ती। गरीब जनता उद्धार की आस में गांव-गांव से निकल कर आम सभा का हिस्सा बनती है। दोपहर में खाने के नाम पर राजनीतिक दलों द्वारा भात (चावल) और दाल या सब्जी परोस दिया जाता है। चंद रुपये में हड़िया (नशीला पेय पदार्थ) मिल जाता है। इसके बाद मांदर की थाप और नेताजी की जयकारे दिन भर लगते रहते हैं। आखिर बेचारे क्या करें। घर में भी रहते तो खाली ही न। सरकार ने रोजगार के नाम पर हर बार इन लोगों को छला ही तो है। (जारी...)
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मोदी का बयान और लिजलिजी राजनीति 


गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के एक बयान ने राजनीति और समाज का बड़ा ही लिजलिजा चेहरा सामने ला दिया। बयान दिया गया था एनीमिया के संबंध में एक अमेरीकी पत्रकार द्वारा पूछ गये सवाल पर। मोदी ने कहा कि मध्यमवर्गीयी परिवार की लड़कियां स्वास्थ्य से ज्यादा सुंदरता पर ध्यान देती हैं। उनका यह बयान यथार्थ मूलक हो सकता है लेकिन आदर्श के करीब नहीं। उनसे समाज आदर्श की उम्मीद करता है। इसलिए राजनीतिक दल भी ऐसी ही उम्मीद उनसे करते हैं।
अगर कोई और व्यक्ति इस प्रकार का बयान देता तो शायद टीवी में कुछ सेकेंड का भी समाचार नहीं बन पाता। लेकिन, मोदी के बयान में मसाले की गुंजाइश ज्यादा हो जाती है और वह खबर बिकती है जिसमें मसाला ज्यादा होता है। ऐसे में टीवी चैनलों के लिए इससे बेहतर खबर क्या हो सकती थी? ज्यादा चैनल तो नहीं देख पाया लेकिन एक चैनल ने बकाया इस पर बहस शुरू करवा दी। लगातार मोदी के बयान को तरह-तरह से परोसा जा रहा था।
इस बीच मोदी के बयान पर प्रतिक्रिया ली जाने लगी। चैनल के पत्रकार ने जिन लड़कियों से प्रतिक्रिया ली, उनमें से सिर्फ एक ने मोदी के बयान से नाइत्तेफाकी जताई, बाकी सारी लड़कियों ने माना कि वे सेहत पर ध्यान नहीं देतीं।
अब बारी आई नेताओं की। बेनी बाबू ने मोदी के बयान को वोट की राजनीति से जोड़ दिया, भाजपा के प्रकाश जवाड़ेकर ने इसे सर्वे की रिपोर्ट से जोड़कर मोदी का बचाव किया लेकिन, सबसे ज्यादा चौंकाने वाला बयान कांग्रेस की वरिष्ठ नेता रेणुका चौधरी का था।
उन्होंने कहा कि इस महंगाई के दौर में दो वक्त की रोटी पाना कितना मुश्किल है इसे मोदी नहीं जानते। ऐसे में स्वास्थ्य पर शौक भारी है कहना गलत है। मोदी पहले बच्चे पाल के दिखायें तब पता चलेगा।
मेरी नजरों में आम जनता से जुड़ी खबर तो यहां से शुरू होती है। रेणुका चौधरी का यह बयान कि महंगाई के दौर में दो वक्त की रोटी पाना कितना मुश्किल है इसे मोदी नहीं जानते, केंद्र सरकार को सवालों के घेरे में खड़ा करती है। लेकिन, इसमें मसाला नजर नहीं आता। शायद इसलिए भी कि रेणुका चौधरी समाचार में मसाला तो बन सकती हैं लेकिन समाचार बनने की सख्शियत उनकी अभी नहीं है।
मैं हत्प्रभ हूं। मोदी के बयान पर। टीवी चैनलों की सोच पर और रेणुका चौधरी के जवाब पर। सोचता हूं आम आदमी क्या सिर्फ लिजलिजी राजनीति का केंद्र रहेगा या फिर भविष्य का नियामक और नीति निर्धारक की भी भूमिका कभी अदा कर सकेगा।

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भ्रष्टाचार बनाम बाजार बनाम भीड़


‘’अरे जाओ-जाओ बहुत देखे तम्हारे जैसे। आज तक किसी नेता को जेल जाते या सजा होते सुना है। नहीं न। हम नेता हैं। पुराने जमाने में जैसे राजा हुआ करते थे आज हम वैसे ही हैं। हमारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता।‘’
हिन्दी सिनेमा के शौकीन यह डायलोग कई बार कई फिल्मों में सुन चुके हैं।
चारा घोटाले के आरोप में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव की गिरफ्तारी से पहले यह डायलोग काफी प्रचलित और विश्वसनीय भी। लालू यादव की गिरफ्तारी के बाद एक मिथक टूटा। लेकिन बाद के दिनों में फिर से यह डायलोग अपनी जगह बनाने लगा।
इस बीच झारखंड राज्य का गठन होता है और घोर आदिवासी क्षेत्र पश्चिमी सिंहभूम की एक माइंस के मामूली कर्मचारी से विधायक और मंत्री का सफर तय करने वाले मधु कोड़ा कांग्रेस को समर्थन के लिए मजबूर कर देते हैं तथा मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हो जाते हैं। कार्यकाल पूरा होने से पहले ही मधु कोड़ा पर आय से इतनी अधिक संपत्ति का मामला बन जाता है कि सीएम की कुर्सी से उतरते ही होटवार जेल की सलाखों के पीछे जाना पड़ता है।
मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार की दूसरी पारी की शुरुआत से ही महंगाई इतनी बेकाबू होती चली गई कि विपक्ष, समाजसेवी और यहां तक कि आम लोग भी इस समस्या की जड़ें तलाशने में जुट गए। इस बीच राष्ट्रकुल खेल और टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले का खुलासा होता है। महाराष्ट्र के कांग्रेसी मुख्यमंत्री फ्लैट घोटाले में घिर जाते हैं। राष्ट्रकुल घोटाले की आंच तीसरी पारी खेल रहीं दिल्ली की मुख्यमंत्री तक आ पहुंचती है।
स्वामी रामदेव काला धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ भारत स्वाभिमान यात्रा शुरू करते हैं। गांधीवादी अन्ना हजारे और उनकी टीम लोकपाल बिल के लिए अलख जगाती है। इस आंधी में सत्तापक्ष ही नहीं विपक्ष के भी कई नेता घिरते चले जाते हैं। उत्तर प्रदेश से लेकर केंद्र की राजनीति और बॉलीवुड तक में किंगमेकर की कथित कद रखने वाले अमर सिंह से मुलायम सिंह का अमर प्रेम टूट जाता है। अमर सिंह सांसद रिश्वतकांड में सलाखों के पीछे चले जाते हैं।
दक्षिण भारत के दिग्गज राजनीतिज्ञ ए राजा और कनिमाझी टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले में तिहाड़ में आराम फरमाने चले जाते हैं। उनका स्वागत करने के लिए राष्ट्रकुल खेल के नायक सह कथित खलनायक सुरेश कलमांडी पहले से मौजूद होते हैं। अब जो हाल में जेल के मेहमान बने हैं वो हैं कर्नाटक के मुख्मयंत्री येदयुरप्पा।
सांसदों और विधायकों के जेल जाने या जेल में रहते हुए चुनाव जीतने का मामला आम हो गया था। लोग जानते थे कि जिन्हें हम वोट दे रहे हैं वो सही नहीं हैं, लेकिन कई बार ऐसा हो जाता था कि आखिर जनता क्या करती?
उदाहरण के तौर पर बिहार में हुए विधान सभा उप चुनाव को ही ले लीजिए। वहां बाहुबलियों के बीच चुनाव था। सत्तारूढ़ दल की प्रत्याशी जहां बाहुबली की नवोढ़ा थीं, वहीं विरोधी प्रत्याशी को तो दो-दो बाहुबलियों का समर्थन प्राप्त था। खास बात यह रही कि विजेता प्रत्याशी के पति को लगा कि जब उनकी छवि पार्टी के टिकट की राह में बाधा बनेगी तो आनन-फानन में उन्होंने पितृपक्ष में ही शादी कर ली।
बात उदाहरणों की नहीं है। बात है इन दिनों भ्रष्टाचार के खिलाफ बुलंद हुई आवाज के शोर में बदलने की। ऐसा लगता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ उठाई गई आवाज अब फैशनपरस्ती का शिकार होती जा रही है। अभियान को बाजार और अवसरवाद अपने कब्जे में लेता जा रहा है। जैसे कभी-कभी केंद्र सरकार काले धन की घोषणा के लिए अवसर देती है और उस पर टैक्स माफ कर देती है, उसी प्रकार लगता है कि कुछ लोगों के लिए ईमानदारी साबित करने का यह स्वर्णिम अवसर बन गया है। ऑफिस और स्कूल से बंक मारकर लोग आंदोलन में भाग लेने लगे हैं। दिन भर होटल में बच्चों से प्लेट धुलवाने लोग भी तिरंगा थामे रैली का हिस्सा बनने लगे हैं। करोड़ों का आयकर छिपाने वाले लोग भी देश की तरक्की का बात करने लगे हैं।
एक कंपनी ने तो अपने उत्पाद को बेचने के लिए इस मुहिम को कैश कर लिया। कहती है हम खिलाते नहीं पिलाते हैं। एक अन्य कंपनी अपनी तेज गति को दर्शाने के लिए परीक्षा का पर्चा आउट करवा देती है। खास बात यह है कि दोनों ही उत्पाद यूथ यानी युवा वर्ग को केंद्रित हैं। हम यह नहीं कहते कि कंपिनयों ने सिर्फ उत्पाद बेचने के लिए ही प्रचार के केंद्र में भ्रष्टाचार या ईमानदारी को रखा है लेकिन, हम यह जरूर कहते हैं कि ईमानदारी और भ्रष्टाचार का मुद्दा अगर इसी तरह विज्ञापन का हिस्सा बनता रहा तो शयद बाजार या प्रचार तक ही सीमित रह जाएगा।
उदाहरण पेश है। वैलेंटाइन बाबा का परिनिवार्ण दिवस यानी वैलेंटाइन डे को बाजार ने इस कदर प्रचारित किया कि वर्ष 2000 तक महानगरीय सभ्यता में घर चुका यह आयातित त्योहार अब गांव-कूचे में भी संक्रमण की तरह फैल चुका है। अब इसके चक्कर में गंवई और ठेठ भारतीय त्योहार ‘’मदनोत्सव’’ खत्म सा हो गया। जिन गांवों में बुजुर्गों की चलती है बस वहीं यह त्योहार परिपाटी निर्वहण के लिए मनाया जा रहा है। इस त्योहार के सिमटने के साथ-साथ मेले में रेहड़ी (ठेला) लगाने वाले लोगों की आजीविका के अवसर भी सिमट से गए।  
होली,  दीपावली या दशहरा जैसे त्योहार भी इस बाजारवाद से अछूता नहीं रहे। विदेशी कंपनियों के गिफ्ट पैक के चक्कर में देसी कारीगरों के सामने भुखमरी की स्थिति पैदा हो गई है। चाहे वह मिठाई बनाने वाले हों या फिर शिल्पकार। ईमेल और बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा डाक-तार व्यवस्था में दखल दिए जाने से भारतीय डाकव्यस्था का अस्तित्व संकट में है।
खैर, मुद्दे पर लौटते हैं। मुद्दा है भ्रष्टाचार बनाम बाजार। भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान अगर मेले की भीड़ बन गया तो क्या होगा?  वही, लोग मेला घूमेंगे और लौटकर चादर तान सो जाएंगे। लेकिन, भ्रष्टाचार के खिलाफ क्या हमें इतने ही मजबूत अभियान की जरूरत है? क्या इतने मात्र से ही हमारी गरीबी, हमारी बेरोजगारी, महंगाई और सबकी जड़ भ्रष्टाचार से मुक्ति मिल जाएगी? इसलिए भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान में शामिल हो कर उसे भीड़ बनाने से पहले एक बार सोचना बेहतर होगा।
पुरानी कहानी है लेकिन एक बार फिर सुनिएः-
एक बार एक महिला महात्मा बुद्ध के पास पहुंची और कहा कि उसका बेटा गुड़ बहुत खाता है। कृपया, उसकी आदत छुड़वाने में सहयोग करें।
महात्मा बुद्ध बोले- सप्ताह भर बाद बेटे के साथ आना।
सप्ताह भर बाद महिला अपने बेटे के साथ बुद्ध के पास पहुंचती है।
बुद्ध उसके बेटे से कहते हैं- गुड़ खाना छोड़ दो।
इस पर महिला कहती है कि यह बात तो उस दिन भी कह सकते थे।
बुद्ध ने जो जवाब दिया शायद यही उन्हें महात्मा और भगवान की श्रेणी में खड़ा करता है। कहा,  तब मैं खुद ही गुड़ खाता था।


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