गुरुवार, 29 सितंबर 2011

बेचारा

(कवि मन)
सुनसान नदी के किनारे                        
बैठकर
तल्लीनता से,
देखता था उछलती-कूदती
धाराओं को, भंवरों को।
शायद !
वह अब भी
आशा करता था
अपने उन अरमानों के
साकार होने की
जो
उसके अजीज के साथ
उन्हीं भंवरों में
गुम हो गए थे।