झन......ढन...ढन...ढन...ढन...ढन...ढन...ढूड़ूंग (जमाना बदल गया)
महाराजाधिराज, लंकापति, राक्षसराज रावण पधार रहे हैं...

पापी रावण, अपने होश की चिंता कर। मैं सती हूं। मेरे रोम-रोम में प्रभु श्रीराम ही बसते हैं। मैं उनकी अमानत हूं। तुमने धोखे से मेरा हरण तो जरूर कर लिया है लेकिन, तुम्हारी जिंदगी ज्यादा दिनों की नहीं है। मेरे प्रभु राम किसी भी क्षण तुम्हारी सोने की लंका को भस्म कर देंगे। वे आते ही होंगे। तुम्हारा नाश तय है।
पर्दा गिरता है.....
झन......ढन...ढन...ढन...ढन...ढन...ढन...ढन...ढन...ढन...ढन...ढन...ढन...ढन...ढूड़ूंग
भाइयों और बहनों, प्रह्लाद सिंह ने सीता का अभियन पर खुश होकर दस रुपए का नकद इनाम दिया है। श्रीरामलीला कमेटी की ओर से हम उनका तहेदिल से शुक्रिया अदा करते हैं।
धीरे-धीरे पर्दा उठता है...
टिंग...टिंग...टिंग...टिंग...टिंग...टिंग...टिंग...टूंग...टूंग...टूंग... ढिंगचक...ढिंगचक...ढिंगचक...ढिंगचा
लौंडा बदनाम हुआ नसीबन तेरे लिए.......मेरी छतरी के नीचे आजा, क्यों भींगे रे कमला खड़ी-खड़ी...
सू>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>
हिला दिया भाई....नचवा तो हिला दिया....
ई बात है कि महाराजगंज के रामलीला में जितना मजा है ओतना हरिहरगंज के रामलीला में कहा हैं....
इहां तो हर साल एक से एक प्रोग्राम होता है
आउ देख, न ह। हर साल सबसे कम चंदा करियो के केतना बढ़िया व्यवस्था रह हई....
देख न ह, बेर डूबते का मैक बजे लग हई....हियां से ऊहां तक गाने-गाना
और रात में रामलीला में जब नचवा आवा हई तो सीरीदेवी समझ फैल...
अरे तनी इहो तो देखा कि रामलीलवा में पाठ आगे भी बढ़तई कि खाली सीता वाटिके में अटकल रहतई....तीन दिन से रावण और सीता के पाठे चलईत हई।
अरे तूहूं कहां घुस गेला। रामलीला जहां हई उहंई अटकल रहऊ। नाच में तो मजा आवइत न हई।
घऱ में चर्चा चल रही है कि दो अक्टूबर से १२ अक्टूबर तक बेटी की छुट्टी होगी। दुर्गा पूजा को लेकर। अनायास ही हमें उस जगह की याद आ जाती है जहां हम किशोर हए। दशहरा वहां के लिए खास त्योहार था। यह एक ऐसा कस्बा है जहां के लोग हमेशा ही बॉर्डर पर रहते हैं। संयुक्त बिहार में भी हरिहरगंज पलामू जिले में आता था और महाराजगंज औरंगाबाद में। खास बात यह है कि तब भी महाराजगंज में कोई घटना होने पर हरिहरगंज की पुलिस मौके पर नहीं पहुंचती थी। महाराजगंज के लोगों को कुटुंबा थाने, जो वहां से करीब बीस किलोमीटर दूर था जाना पड़ता था।
आज तो गली बदलते ही प्रदेश बदल जाता है। हरिहरगंज और महाराजगंज को विभाजित करने वाली एक गली थी उसका नाम था भट्ठी मोहल्ला। आप कल्पना कर सकते हैं कि इस मुहल्ले में हर व्यक्ति का पड़ोसी दूसरे प्रांत में रहता है। यानी, मेरे घर के सामने वाला व्यक्ति पड़ोसी राज्य का निवासी है।
बहरहाल, प्रशासनिक दिक्कतें चाहे जो भी हों दोनों कस्बों के रहने वाले लोगों को इससे कोई दिक्कत नहीं थी। हरिहरगंज में जो हाईस्कूल इंटर कॉलेज है वहां तब भी माराजगंज के छात्र ज्यादा दाखिला लेते थे और आज भी।
देखिए, हम एकदम से बचपन में भटक गए। तो बात दशहरे की हो रही थी। हमको याद है कि इसके लिए कितनी तैयारियां करते थे। कुछ दोस्त जिनके पिता नौकरी करते थे वे घर लौट जाते थे लेकिन ज्यादातर साथ ही रहते थे। भगवान से मनाते थे कि इस बार दशहरे की छुट्टी पर स्कूल कम से कम एक महीने के लिए बंद रहे, लेकिन पापा की ड्यूटी देर शाम तक बढ़ा दी जाए। और भइया तो दशहरे पर बिलकुल घर न आएँ। इन्हीं दोनों से तो डर लगता था। पापा से तो थोड़ा कम, भइया से काफी ज्यादा। पता नहीं क्यों?
लेकिन, पापा भी रोज ही पूजा करते थे। पता नहीं वो भगवान से क्या मांगते होंगे। फिर भी, हमारी मुराद पूरी तरह पूरी नहीं हो पाती थी। छुट्टी पापा की भी होती थी। ये बात अलग है कि वे बीच-बीच में ड्यूटी पर भी चले जाते थे। लेकिन, भइया तो बस आते तो मुहल्ले में ही डेरा डाले रहते।
उनके भी दोस्तों की संख्या ज्यादा थी। भइया से हम डरते हैं, इसकी जानकारी उनके दोस्तों को भी थी। फिर क्या, दोपहर में जरा बाहर दिखे नहीं कि धमकी...भइया से कह देंगे। और हम....बिल्ली देखकर जैसे चूहा बिल में दुबक जाता है वैसे ही तितली की तरह दौड़कर घर में दुबक जाते।
खैर, दशहरे की छुट्टी तो दस दिनों की ही होती। कॉलेज में छुट्टी होने के कारण भइया भी अक्सर आ ही जाते। एक-दो बहने भी ससुराल से आ जातीं। हम सुबह-शाम किताब खोलकर बैठ जाते और घर से बाहर जाने के बहानों पर शोध करना शुरू कर देते। ऐसा नहीं कि हमारा ही घर इस तरह का था। दोस्तों के साथ भी सबकुछ ऐसा ही था। हम दोस्तों के घर जाते। इशारा करते और बाहर चलने को कहते। इतने में भी बात नहीं बनती तो कबीरदास की उलटबासियों (मतलब पानी को नीपा कहते ) का ससहारा लेते। और जब देखते ही आजादी किसी भी कीमत पर नहीं मिलने वाली है तो नींद का आश्रय ले लेते।
खैर, जैसे-तैसे शाम होती। लाउडस्पीकर पर दुर्गा चालीसा, हनुमान चालीसा व न जाने कौन-कौन से चालीसे बजने शुरू हो जाते। इसके बाद फिल्मी गाने। करीब आठ बजे अनाउंस होता- देवियों और सज्जनों, मताओं व बहनों रामलीला शुरू होने वाली है। कृपया अपना स्थान ग्रहण करें। वोलेंटियरों से अनुरोध है कि दर्शकों का सहयोग करें। फिर जल्दी-जल्दी खाना खाते और अपने दोस्तों की टोली लेकर सबसे आगे बोरा डाल देते। पापा हिदायत देते और कहते दस बजे से पहले चले आ जाना। कहता, जी अच्छा। फिर भी, दस बजते-बजते न जाने कितनी बार घर से संदेसा लेकर कोई न कोई पहुंच ही जाता कि पापा बुला रहे हैं।
क्रमशः जारी....