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बाएं से... भाई राजकुमार जी, नागेंद्र जी, मैं, धनंजय जयपुरी जी व अनुज बेचैन जी |
बिहार जैसे प्रांत जहां रोजगार के अवसर कम उपलब्ध हैं, वहां साहित्य को जीवित रखना, उसकी साधना करना और संगठन को सक्रिय रखना बड़ी चुनौती से कम नहीं। हम राष्ट्रीय राजधानी में रहने वाले लोग आठ-नौ घंटे की शिफ्ट के बाद थक जाते हैं। कुछ और करने का मन नहीं करता। लेकिन, नागेंद्र भाई जैसे लोग दस घंटे की ड्यूटी के बाद रोजाना कम के कम दो घंटे साहित्य को जरूर देते हैं। नागेंद्र भाई साहित्यिक पृष्ठभूमि से नहीं आते... शुरुआत में हम दोनों विज्ञान के विद्यार्थी रहे। अब वह स्वास्थ्य प्रबंधन की जिला स्तरीय टीम में उच्चपदस्थ पदाधिकारी हैं। जिम्मेदारियां बड़ी हैं और नागेंद्र भाई उन्हें संतुलित रखने की क्षमता व काबलियत हासिल कर चुके हैं। राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक संस्था शब्दाक्षर में राष्ट्रीय स्तर की जिम्मेदारी रखते हैं। राष्ट्रीय स्तर के कई कवि सम्मेलनों में अपनी कविताओं का जादू बिखेर चुके हैं। श्रीराम जन्मभूमि अयोध्या में अभी हाल ही में कवि सम्मेलन में खूब वाह-वाही बटोर चुके हैं।
इस बार गांव की यात्रा के दौरान करीब घंटाभर साहित्यिक विरादरी के बीच गुजरा। यकीन, मानिए यह वक्त जीवन के चुनिंदा आनंददायक लम्हों में से एक था। हिंदी साहित्य की लेखन परंपरा से लेकर मौजूदा लेखन धारा तथा बोली से भाषा के विकास के क्रम में मगही का योगदान और भविष्य जैसे विषयों पर सुधी चर्चा हुई। जिला हिंदी साहित्य परिषद के योगदान के प्रकाशित चार पुस्तकें मुझे भेंट की गईं। बिना पढ़े उनके बारे में कुछ लिखना नहीं चाहता था, इसलिए करीब दो महीने लग गए। धनंजय जयपुरी जी जिले के सशक्त साहित्यिक हस्ताक्षर हैं। उनकी कविताएं वर्षों से पढ़ता रहा हूं। इस बार उन्होंने कहानी में उम्दा प्रदर्शन किया है। कहानी अपनी-अपनी, जयपुरी जी के 15 कथाओं का संग्रह है। जयपुरी उपनाम से यह भ्रांति हो सकती है कि वह जयपुर के रहने वाले हैं, लेकिन यह बता दूं कि वह खांटी औरंगाबादी हैं, जयपुर उनके गांव का नाम है। जयपुरी जी की कहानियां बदलते आंचलिक समाज की दास्तां हैं। अपनी पहली ही कहानी नहले पे दहला में वह बहुत ही बारीकी से इस बदलाव को चित्रित करते हैं। वह दिखाते हैं कि चोर व ठग अब फटे-पुराने कपड़े और दाढ़ी वाले नहीं रह गए, बल्कि जींस-पैंट व टॉप वाले हो गए हैं।
भाई नागेंद्र जी की शतचंडी चालीसा उन विलुप्त होते देवस्थानों को कागजबद्ध करने का प्रयास कहा जा सकता है, जिन पर दशकों तक अंचल की अटूट आस्था रही है। बुजुर्ग लोग आज भी मां शतचंडी को सतखंडी कहते हैं। मेरी मां सतखंडी के नाम से ही उन्हें जानती हैं। कभी गई नहीं, लेकिन दर्शन की अभिलाषा है। वह मानने के लिए कतई तैयार नहीं कि मेरी माता शतचंडी व उनकी माता सतखंडी एक ही हैं। भाई नागेंद्र जी का यह प्रयास आगामी पीढ़ियों, खासकर जिले से बाहर रहने वाली पीढ़ियों को अटूट धार्मिक आस्था के एक अहम स्थल को संरक्षित रखने के लिए प्रेरित करेगा। वीर शिरोमणि प्रताप नारायण सिंह उर्फ बच्चा बाबू का काव्य ग्रंथ कैकेयी अद्भुत है। सात सर्गों वाली इस रचना के जरिये बच्चा बाबू ने रानी कैकेयी के उज्ज्वल पक्ष को पाठकों के सामने रखने की सरस कोशिश की है। वरना, हम पौराणिक ग्रंथों के जरिये उन्हें प्रभु श्रीराम को वन भेजने वाली माता के रूप में जानते हैं। प्रेम शंकर प्रेमी जी का नाटक राजा नारायण सिंह औरंगाबाद जिले के पवई रियासत की कहानी है, जहां के राजा नारायण सिंह ने अपनी प्रजा के हित में अंग्रेजों को लगान देने से इन्कार कर दिया था। चौहानों का गढ़ पवई स्वतंत्रता की लड़ाई के अहम केंद्रों में से एक रहा। सौभाग्यवश उस राजघराने के वारिस बबुआ जी से करीबी संबंध रहा। वह हमारे मित्र के रिश्तेदार भी थे। मुझ से भी बहुत स्नेह करते थे। छात्र दिनों में वह हमारे संगठन के संरक्षक भी थे।
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