रविवार, 18 सितंबर 2011

तीन चौथाई


तीन चौथाई यानी 75 प्रतिशत। इतनी ही आबादी तो अपने देश में गांव में रहती है। आप सोच रहे होंगे कि मैं कैसी बातें कर रहा हूं। एक तरफ जहां सर्वे बताते हैं कि गांवों से पलायन हो रहा है, वहीं दूसरी तरफ मैं कैसी राग अलाप रहा हूं।
लेकिन, हम इसे दूसरे तरीके से सोचते हैं। शहरों में मलीन बस्तियों (स्लम एऱियाज) की संख्या में कितना इजाफा हुआ है? चालों और एमआईजी फ्लैटों में कितनी वृद्धि हुई है? दरअसल, हम इनकी बात इसलिए कर रहे हैं क्योंकि यहां नवप्रवेशी शहरी या यूं कहें कि गांव की जड़ें रहती हैं। हो सकता है कि दो चार प्रतिशत लोगों ने गांव की गरीबी से निजात पाते हुए निम्न मध्यमवर्गीय समूह से तरक्की कर ली हो लेकिन, ज्यादातर लोग वैसे ही हैं- दाल-रोटी वाले। मतलब महीने की तनख्वाह पर बीवी-बच्चों को पालने वाले।
कोई बीस-पच्चीस साल पहले की बात है। पढ़ा करता था कि भारत की सत्तर प्रतिशत आबादी गांव में रहती है। सोचिए तब गांव के मायने क्या होते होंगे। खेत, कुआं, रहट, ढीबरी (डिबिया), नंग-धड़ंग बच्चे, कृषकाय किसान, मलीन से फूस या खपरैल के घर, कोलम किंतु बोझिल शरीर वाली महिलाएं व युवतियां, संकरा और कच्चा रास्ता या पगडंडी आदि-आदि। गौर करिए कि गांव में इन वर्षों में क्या-क्या अंतर आए हैं। ज्यादातर गावों में खेत में सिंचाई के संसाधन दुरस्त हुए हैं, कुआं के स्थान पर हैंडपंप लग गए हैं, रहट का स्थान डीप बोरिंग ने ले लिया है, बिजली आ गई है, टीवी ने भी योगदान दे दिया है, और तो और डिश टीवी का भी पदार्पण हो चुका है, घरों की छतें पक्की हो गई हैं और गावों को जाने वाले संपर्क मार्ग या तो आरसीसी या पक्के हो चुके हैं।
तरक्की की चाह में नौकरी को आजीविका बनाकर शहर में पलायन करने वाले ग्रामीण पृष्ठ भूमि के लोग जहां रहते हैं वहां की भी स्थिति कोई ज्यादा संतोषजनक नहीं है। मुंबई की चाल हो या दिल्ली के गावों में किराये की कोठरी में रहने वाले पलायित लोग, कोलकाता में किराये पर गुजर-बसर करने वाले लोग या बेंगलुरू में जैसे-तैसे दिन पार करने की सोच रखने वाले लोग; इनके जीवन स्तर में गांव के अपेक्षाकृत कुछ और चीजें तो जु़ड़ गई हैं लेकिन, वहां रहने वाले आम शहरी की तुलना में अब भी ग्रामीण जैसे ही हैं। कुछ लोग इसके अपवाद हो सकते हैं।
कहने का आशय है कि गांव से जिन लोगों ने शहर की ओर पलायन किया उनमें से अब भी ज्यादातर लोग गांव जैसी ही जिंदगी गुजार रहे हैं। यह ब्लॉग भी उन्हीं 75 फीसदी लोगों यानी तीन चौथाई से जुड़ा है। इसकी शुरुआत का उद्देश्य ही है कि तीन चौथाई लोगों की आवाज तीन चौथाई के साथ-साथ उन एक चौथाई लोंगों तक भी पहुंचे जो किसी न किसी तरीके से हमारी जीवनशैली और रीति-नीति को प्रभावित करते हैं या जुड़े हुए हैं। यहां सबकुछ होगा- जानकारी, मनोरंजन, साहित्य, सृजन, कला, संस्कृति, खेती-गृहस्थी, गांव-समाज, लोक-लाज, सलाह-मशविरा आदि-आदि। इनके अलावा आप जो भी सभ्यता के लिहाज से चाहेंगे वो भी।