यहां तैयार होते हैं लड़ाका मुर्गे
जमशेदपुर सिटी समेत आसपास के इलाकों में टुसू पर्व पर मेले का आयोजन व मुर्गे की लड़ाई परंपरा का हिस्सा है. टुसू मेले का इंतजार लोगों को पूरे वर्ष रहता है. इसकी तैयारियां भी काफी लंबे समय से चल रही होती हैं. सच कहा जाये, तो टुसू मेले में आकर्षण का केंद्र मुर्गा लड़ाई ही होती है. शहर ही नहीं, गांव-गांव में भी मुर्गा पालक उन्हें महीनों पहले से तैयार करने लगते हैं. यहां तक लोग मुर्गे की हार-जीत से साल भर के लिए अपनी किस्मत का निर्धारण भी कर लेते हैं. बोड़ाम प्रखंड में एक ऐसा ही गांव है, जहां मुर्गों के शौकीन लोगों की संख्या काफी ज्यादा है. यहां शायद ही कोई ऐसा घर हो, जहां लड़ाके मुर्गे पाले न जाते हों या तैयार न किये जाते हों.
मुर्गा लड़ाई ने दिलायी पहचान
बोड़ाम क्षेत्र का गांव केंदडीह काफी तरक्कीपसंद है. यहां के लोग नौकरी-पेशा होने के साथ-साथ अच्छे किसान और व्यापारी भी हैं. इन्हीं में एक युवा हैं- फोटिक महतो. फोटिक महतो अपने मुर्गा पालने और लड़ाने के शौक के कारण पूरे इलाके में फेमस हैं. उनके पास करीब दो दर्जन से ज्यादा लड़ाके मुर्गे हैं. सब वीर-बांकुरे. किसी ने 30 लड़ाइयां जीती हैं, तो किसी ने 35. कोई-कोई तो 60 भी पार कर चुका है. यहां तक कि अगर ये मुर्गे कभी पास-पास दिख गये, तो आपस में ही लड़ने लगते हैं. इसी गांव के दूसरे युवा हैं- रवि महतो. मुर्गा पालने का
इनका भी शौक जबरदस्त है. फोटिक और रवि के यहां दो-दो हॉल स्पेशल मुर्गों को रखने के लिए बनाये गये हैं.
काती लाने गये ओड़िशा
हमारी टीम फोटिक महतो, रवि महतो व अन्य ग्रामीणों से मिलने बुधवार की दोपहर गांव केंदडीह पहुंची. टुसू नजदीक होने तथा बोड़ाम में हाट लगने के कारण ज्यादातर पुरुष सदस्य गांव से बाहर ही थे. फोटिक व रवि भी हमें नहीं मिले. पता चला कि रवि तो किसी काम से बाहर गये हैं, लेकिन फोटिक मुर्गा लड़ाई के लिए काती (पैरों में बांधा जाने वाला चाकू) लाने विशेषतौर पर ओड़िशा गये हैं. यहां भी तो काती मिलती है, फिर ओड़िशा क्यों? फोटिक की पत्नी बताती हैं- वहां की बेहतर होती है. अपने मुर्गे की उससे सुरक्षा रहती है.
वन मुर्गा, देसी या मद्रासी
फोटिक के बड़े भाई मानिक चंद्र महतो बताते हैं कि उनके गांव के ज्यादातर घरों में मुर्गे पाले जाते हैं. ये मुर्गे प्रमुखत: तीन नस्ल के होते हैं-वन मुर्गा, देसी या मद्रासी. सिर्फ टुसू के दौरान ही नहीं, बल्कि सालों भर लोग मुर्गों का ख्याल रखते हैं. वह अपने घर के एक हिस्से में बने हॉल दिखाते हैं. वहां मुर्गे निश्चित दूरी में खूंटे के सहारे बांधे जाते हैं, ताकि वे आपस में लड़ें नहीं. उनके लिए बिजली और खिड़की की व्यवस्था है. खिड़कियों में जाली लगी हुई है, ताकि कोई बिल्ली उनका शिकार न कर ले. रवि के यहां तो दो पक्के कमरे मुर्गों के लिए बने हुए हैं.
बच्चों सा रखना पड़ता है ख्याल
तरकीपन डेढ़ से दो फीट की ऊंचाई वाले और 5-10 किलो तक वजन वाले मुर्गे दिन में खेतों में घूमते हैं और दाना चुगते हैं. शाम को वे अपने घरों में लौट आते हैं. इस दौरान उन्हें बर्तन में दाना दे दिया जाता है. इनमें सामान्य गेहूं से लेकर बाजार में मिलने वाले प्रोटीनस रेडिमेड दाने शामिल हैं. मुर्गों को ठंड न लगे इसलिए पुआल या टाट आदि को जमीन पर बिछा दिया जाता है. साथ ही कमरे में कुछ बल्ब भी लगा दिये जाते हैं. इसी प्रकार गर्मी में कमरों को शीतल रखने के लिए उनकी पानी से धुलाई, पुताई के साथ-साथ पंखे की व्यवस्था रखी जाती है.
सेहत का रखते हैं ख्याल
मुर्गे को अधिक ठंड या गर्मी लग जाये तो वे कमजोर हो जाते हैं. इसलिए, मुर्गा पालने वाले लोग वेटनरी डॉक्टरों का नियमित दौरा लगवाते हैं. उनसे मुर्गों की समय-समय पर जांच करवाते हैं. यही नहीं, अगर लड़ाई के दौरान मुर्गा घायल हो गया, तो तत्काल उन्हें मरहम-पट्टी और उपचार दिया जाता है. इसके बाद उन मुर्गों को तब तक नहीं लड़ने दिया जाता, जब तक उनके जख्म न भर जायें और वह पूरी तरह फीट न हो जाये.
एक मुर्गे की कीमत 15-20 हजार
इस गांव के मुर्गा पालने वाले लोग बेहद जुनूनी हैं. खास कर फोटिक महतो. उनके भाई ही नहीं, आसपास के लोग भी बताते हैं कि फोटिक मुर्गा लाने के लिए दूर-दूर तक जाते हैं. झारखंड का कोई जिला हो या पश्चिम बंगाल अथवा ओड़िशा, अगर फोटिक को पता चल गया कि फलां जगह पर अच्छी क्वालिटी का लड़ाका मुर्गा पाया जाता है, तो वह किसी भी कीमत पर उसे हासिल कर लेते हैं. हाल ही में उन्होंने कुकड़ू से 15 हजार में एक मुर्गा खरीदा है.
दी जाती है स्पेशल ट्रेनिंग
वैसे तो लड़ाका मुर्गे आदतन आपस में लड़ बैठते हैं, लेकिन इन्हें पालने वाले लोग दाव-पेंच भी सिखाते हैं. उनकी नियमित प्रैक्टिस कराते हैं. मुर्गे भी अपने मास्टर के इशारे को पहचानते हैं और दाव चलते हैं.
रंगों के आधार पर होती है लड़ाई
मुर्गों की परख रखने वाले लोग उनकी लड़ाई के बारे में बारीकी से जानते हैं. यानी, मुर्गे की चाल देख कर यह तय करना होता है कि काले रंग वाले के साथ दूसरा काला मुर्गा लड़ पायेगा या सफेद वाला. यह निर्णायक क्षण होता है. इसी पर जीत-हार का दारोमदार होता है. इसलिए, प्रैक्टिस के दौरान हरकतों पर मुर्गों के मास्टर गौर करते रहते हैं.
होती है ब्रीडिंग भी
बहुत लोग अच्छी नस्ल के मुर्गे और उसके मादा जोड़े को साथ में खरीद कर लाते हैं. वे इनकी ब्रीडिंग करते हैं. लड़ाका मुर्गा तैयार करने के लिए बचपन से ही उनके खान-पान व स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान देना होता है.
कानूनन मुर्गा लड़ाई है प्रतिबंधित
तमाम संवेदनाओं और भावनाओं के बीच एक कानूनी सच है. वह यह है कि पशु क्रूरता कानून 1960 के तहत मुर्गा ही नहीं किसी भी प्रकार की पशुओं की लड़ाई प्रतिबंधित है.
साभार प्रभात खबर लाइफ @ जमशेदपुर
साभार प्रभात खबर लाइफ @ जमशेदपुर
**************************
कला का ग्राम
आदमी की अंतश्चेतना जब जागृत होती है, तो उसकी ऊर्जा जीवन को कला के रूप में उभारती है. कला उस क्षितिज की भांति है, जिसका कोई छोर नहीं. कविगुरु रवींद्रनाथ ठाकुर ने कहा था-‘कला में मनुष्य अपने भावों की अिभव्यक्ति करता है.’ यह भी सच है कि कला हमेशा से अभावों के बीच पली है. अमृता शेरगिल हों या शिवाजी गणेशन. लियोनार्दो दा विंची हों या पाब्लो पिकासो. सभी का संघर्ष से बहुत करीब का रिश्ता रहा. झारखंड-पश्चिम बंगाल की सीमा पर एक ऐसा गांव है, जहां अभावों के बीच ऐसी ही एक कला अटखेलियां ले रही है. यह गांव है- चूड़िदा. पुरुलिया जिले के बाघमुंडी थानांतर्गत आने वाला यह गांव अपने शहर से मात्र 70 किलोमीटर दूर है. छऊ की मानभूम शैली के कलाकार जिन मास्क (मुखौटा/मुकुट) के जरिये अपनी कला को देश-विदेश में चमका रहे हैं, उनका निर्माण इसी गांव के गरीब हाथ करते हैं. यहां हर साल दिसंबर माह में तीन दिनों का ‘मुकुट मेला’ लगता है. इस बार इस मेले का समापन इसी रविवार को हुआ. लाइफ @ जमशेदपुर की टीम ने यहां लगने वाले मेले और कारीगरों की स्थिित का जायजा लिया. फोटो व रिपोर्ट : रंजीत प्रसाद सिंह/कुणाल देव
नहीं देखा होगा ऐसा मेला
दुनिया देख ली, पर खुशहाली नहीं देखी
समिति के माध्यम से मिलता है काम
गांव के कलाकार बताते हैं कि यहां कलाकारों के उत्थान के लिए संभव नामक समिति काम करती है. यह समिति राज्य सरकार (पश्चिम बंगाल) से संबद्ध है. इस समिति का काम कलाकारों का सहयोग करना है. कलाकार बताते हैं कि समिति मुखौटों का ऑर्डर लेती है और फिर उसे कलाकारों को दे देती है. कलाकार मुखौटे बनाकर समिति को सौंप देते हैं और समिति उनका भुगतान कर देती है. कलाकारों का कहना है कि उनकी नयी पीढ़ी भी इस कला से जुड़ना चाहती है. दिलचस्पी भी दिखाती है, लेकिन आमदनी अत्यंत सीमित होने के कारण उन्हें आय के दूसरे विकल्पों की ओर ध्यान देना पड़ता है.
तीन दिनों में बनता है एक मुखौटा
छऊ नृत्य के लिए एक मुखौटा को तैयार करने में कम से कम तीन दिन लगते हैं. मौसम खराब रहने या मुखौटा बड़ा होने पर समय ज्यादा भी लग सकता है. मुखौटा तैयार करने के लिए कलाकार पहले मिट्टी का बेस तैयार करते हैं. इसके बाद उसमें मिट्टी और गत्ते की परत का इस्तेमाल किया जाता है. मुखौटा भारी न हो, इसलिए कलाकार कोशिश करते हैं कि मिट्टी का कम से कम प्रयोग करें. यूं कहें कि मिट्टी का इस्तेमाल सिर्फ परत की दरारों को भरने के लिए किया जाता है. कलाकार बताते हैं कि मिट्टी और कागज में समन्वय बनाये रखने पर ही मुखौटा सही बन पाता है. कुछ परतों में सूती बारीक कपड़े का भी इस्तेमाल करना पड़ता है. मुखौटा जब आकार ले लेता है, तो सपोर्ट वाली कच्ची मिट्टी को निकाल दिया जाता है.बदला है मुखौटे का स्वरूप, रंग
खौटे पर पेंट का काम काफी बारीकी से करना होता है. यानी, अगर पेंट जरा सा भी इधर-उधर हुआ कि उसका भाव ही बदल जाता है. अब लोग डिस्टैंपर से भी आगे वाटरप्रूफ प्लास्टिक पेंट का इस्तेमाल करने लगे हैं. कलाकारों का कहना है कि इससे मुखौटा लंबे समय तक चलता है और उसकी चमक भी बनी रहती है.
मानभूम व सरायकेला शैली तथा मुखौटे में अंतर
मानभूम छऊ नृत्य के जानकार परशुराम सिंह मुंडा के अनुसार सरायकेला नृत्य में ओड़िशा की शास्त्रीय पद्धति का प्रभाव है. यानी, बोल में लय ज्यादा होता. उसी के अनुसार छऊ नृत्य करने वाले नर्तक नृत्य भी धीमी कलाओं के साथ करते हैं. लेकिन, मानभूम छऊ वीर रस प्रधान है. यहां ताल में तेजी होती है. करतब तेज होते हैं. साथ ही कूद भी ऊंची होती जाती है. यानी, शास्त्रीय पद्धति के अनुशरण के बावजूद यहां का नृत्य-गीत की गति तेज होती है. जहां तक मुखौटे की बात है, तो सरायकेला छऊ में मुखौटा और मुकुट अलग-अलग होते हैं. यानी, मुखौटे में केवल पात्र की आकृति होती है और उसके लिए मुकुट अलग से बांधा जाता है. जबिक, मानभूम छऊ में मुखौटा में मुकुट लगा होता है. यानी, मुखौटा और मुकुट एक साथ होते हैं.
ऑर्डर मिलने पर छेदी जाती है आंख

भी नहीं रह जाती. इसलिए, जब ऑर्डर आता है, तब लोहे की गर्म रॉड से आंखों की पुतली में सूराख किया जाता है.
काश! मास के लिए होते ये मास्क
कोलकाता निवासी फोटोग्राफरों का एक ग्रुप गांव में मेले की कवरेज के लिए पहुंचा था. इन्हीं में से एक हैं-शुभो. शुभो कोलकाता में अपनी फोटोग्राफी कंपनी चलाते हैं. इससे पहले वह चार बार मेले में कवरेज के लिए आ चुके हैं. वह कहते हैं कि छऊ को जनता से जोड़ा तो जरूर गया, लेकिन इसे जनता के लिए नहीं रहने दिया गया. छऊ मास्क बनाने की कला अद्भुत है. लेकिन, यह बिकती महंगी है. हालांकि, मेहनत व लागत के मुकाबले इसमें पारिश्रमिक ज्यादा नहीं है. छऊ मास्क बनाने की तकनीक काफी पुरानी है. अगर, इनकी तकनीक को सरल करते हुए लागत को कम किया जाता तो ये मास्क मास के लिए उपलब्ध हो जाते. अभी तो सिर्फ वे लोग इन्हें खरीद पाते हैं, जो कला के जानकार हैं, या अपनी ड्राइंग रूम में इसे डेकोरेशन का आइटम बनाना चाहते हैं.
साभार प्रभात खबर लाइफ @ जमशेदपुर
**************
आकुल उड़ान में विघ्न न डालो...
हम पंछी उन्मुक्त गगन के
कनक-तीलियों से टकराकर
श्री राम मंदिर, बिष्टुपुर में कबूतरों को दाना खिलाते रामकृष्ण मूर्ति. |
पुलकित पंख टूट जाएंगे।
***
हम बहता जल पीनेवाले
मर जाएंगे भूखे-प्यासे,
कहीं भली है कटुक निबोरी
कनक-कटोरी की मैदा से।
***
स्वर्ण-शृंखला के बंधन में
अपनी गति, उड़ान सब भूले,
बस सपनों में देख रहे हैं
तरू की फुनगी पर के झूले।
***
ऐसे थे अरमान कि उड़ते
नील गगन की सीमा पाने,
लाल किरण-सी चोंचखोल
चुगते तारक-अनार के दाने।
***
होती सीमाहीन क्षितिज से
हम बहता जल पीनेवाले
मर जाएंगे भूखे-प्यासे,
कहीं भली है कटुक निबोरी
कनक-कटोरी की मैदा से।
***
स्वर्ण-शृंखला के बंधन में
अपनी गति, उड़ान सब भूले,
बस सपनों में देख रहे हैं
तरू की फुनगी पर के झूले।
***
ऐसे थे अरमान कि उड़ते
नील गगन की सीमा पाने,
लाल किरण-सी चोंचखोल
चुगते तारक-अनार के दाने।
***
होती सीमाहीन क्षितिज से
या तनती सांसों की डोरी।***
नीड़ न दो, चाहे टहनी का
आश्रय छिन्न-भिन्न कर डालो,
लेकिन पंख दिए हैं, तो
आकुल उड़ान में विघ्न न डालो।
नीड़ न दो, चाहे टहनी का
आश्रय छिन्न-भिन्न कर डालो,
लेकिन पंख दिए हैं, तो
आकुल उड़ान में विघ्न न डालो।
-डॉ शिवमंगल सिंह ‘सुमन’
घर की मुंडेर पर बैठा कबूतर जब ‘गुटर गूं’ करता है तो कानों को कितना सुकून मिलता है. पिंजरे में बंद तोता ‘ए रूपु, कटोरे-कटोरे’ जरूर कहता है, लेकिन दिन भर में एक बार पिंजरे को तोड़कर बाहर भाग जाने की कोशिश भी निश्चित ही करता है. घर की वेंटीलेटर में घोसला बनाने वाली गौरैया भी दिन भर उनमुक्त आकाश में ही विचरण करती है. खेतों में बसने वाले तीतर-बटेर फसल कटने के पूर्व फुर्र हो जाते हैं. मैना को जब खूबसूरत पिंजरे में बंद किया जाता है, तो खाना-पीना छोड़ देती है. कुल मिलाकर, कोई भी पक्षी, किसी भी सूरत में कैद पसंद नहीं करता. इसके बावजूद वे आपके प्यार को भली-भांति समझते हैं. आप भले ही उन्हें पिंजरे में कैद न करें, लेकिन सचमुच में प्यार करते हैं तो घूम-फिरकर कम-से-कम एक बार वे आपकी बाहों में जरूर आते हैं. अपने शहर में भी परिंदों से प्यार करने वाले लोगों की संख्या काफी है. ये लोग बिना किसी लोभ-लालच के रोजाना परिंदों को दाना देते हैं. उनके लिए पानी की व्यवस्था करते हैं. ऐसे ही लोगों पर केंद्रित है यह स्टोरी...
कोयल की कुहू व कौवों का कांव-कांव
जब भी कोई सुरीली आवाज में गाता है तो उसकी तुलना कोयल से की जाती है. और जब भी कोई तीखी आवाज में बात करता है तो उसकी तुलना कौवों से की जाती है. अगली बार जब भी आप किसी को ऐसी उपमा दे रहे हों तो एक बार जरूर सोचियेगा. सोचियेगा कि मनुष्य की विकासशील सभ्यता-संस्कृति में आदमी का पिछड़े और परंपरावादी इन पक्षियों से तुलना सही है क्या? आखिर, कोई दूसरी उपमा क्यों नहीं हो सकती? तब आप शायद कोयल और कौवों के अस्तित्व को नजदीक के समझ पायें. आप समझ पाएंगे कि मुंडेर पर बैठा कौवा आगंतुक की सूचना कैसे प्राप्त कर लेता है? ...और उसका ग्रास पितरों तक कैसे पहुंच पाता है? दरअसल, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक अर्थों में कौवा परंपरा और नवीनता का पोषक है. इसी प्रकार कोयल बसंत के आगमन का संकेत देता है. बसंत ऋतु अपने आप में नई उमंग और तरंक का द्योतक है. यह मादक ऋतु है. रति और कामदेव के संयोग का ऋतु है. इसीलिए, कुरूप से दिखने वाला कोयल भी मधुर आवाज में शृंगार की तान छेड़ देता है.खड़ा होते कंकरीट के जंगल और उजड़ते आशियाने
विकास के इस दौर में जंगलों की काफी तेजी से सफाई होती जा रही है. उन हरियाली की जगहों पर कंकरीट के जंगल खड़ा होते जा रहे हैं. इस क्रम में पक्षियों की आहार शृंखला कमजोर होती जा रही है. जंगल के बिनौले से काम चलाने वाले पक्षी दाने की खोज में शहर का रुख कर रहे हैं. शहर में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो पक्षियों के दाना-पानी का ख्याल रखते हैं. ऐसी ही सज्जन हैं रामकृष्ण मूर्ति, भूपत भाई, मनसुख लाल, चंपक भाई और सूर्या भाई.जीवों में बसती है जहां भर की खुशियां
रामकृष्ण मूर्ति और भूपत भाई राम मंदिर, बिष्टुपुर से जुड़े हुए हैं. श्री मूर्ति बिना नागा पक्षियों को दाना डालते हैं. वह बताते हैं कि राम मंदिर में कबूतरों को दाना तो वैसे बड़ी संख्या में लोग देते हैं, लेकिन भूपत भाई तो पिछले कई वर्षों से इनकी सेवा करते आ रहे हैं. वे कबूतरों के लिए नियमित रूप से दस किलो गेहूं भिजवाते हैं. पांच किलो सुबह करीब साढ़े छह-सात बजे डाल दिया जाता है और पांच किलो अपराह्न दो बजे के आसपास डाल दिया जाता है. सुबह छह बजे तक कबूतर मंदिर परिसर में डेरा डाल देते हैं और अपराह्न तीन बजते-बजते सभी अपने घोसले की ओर उड़ जाते हैं.दूर-दराज से आते हैं दाने के लिए
श्री मूर्ति बताते हैं कि जहां भी राम मंदिर होता है, वहां कबूतर रहते ही हैं. बिष्टुपुर स्थित राम मंदिर में भी दूर-दराज से कबूतर दाना-पानी के लिए आते हैं. इसकी पहचान कैसे होती है? श्री मूर्ति कहते हैं कि पुराने कबूतर अपने नये साथियों को भी यहां ले आते हैं. इनकी पहचान रंग, आकार और झुंड के जरिये होती है. अक्सर, यहां विभिन्न प्रजातियों के कबूतर आपके दिखाई देंगे. ये कुछ दिनों तक यहां दाना-पानी लेते हैं और फिर अपने पुरानी जगहों के लिए लौट जाते हैं. उधर, लोग सिटी के प्रमुख पार्कों और चौराहों पर पक्षियों के लिए दाना डालते हैं. इनके लिए पानी की भी व्यवस्था रहती है. बड़ी संख्या में लोगों ने अपने घरों के बाहर या छत पर दाना डालने के लिए हौदे (विशेष आकार) बना रखे हैं.पक्षियों का पर्यावरण संतुलन में बड़ा योगदान
जहां पक्षियों की संख्या जितनी ज्यादा होगी, वहां का इकोलॉजिकल सिस्टम उतना ही मजबूत होगा. पक्षी पौधों के परागण (पॉलीनेशन) के बड़े कारक हैं. वनों के विस्तारीकरण (डिसपर्सल आॅफ सीड) में भी इनकी बड़ी भूमिका है. ये कीड़ों को मारकर खेती-बारी में सहयोग करतें हैं.प्रो केके शर्मा, पर्यावरणविद
...तब 1.75 रु. किलो बिकता था गेहूं
श्रीराम मंदिर, बिष्टुपुर में कबूतरों को दाना मुहैया कराने वाले भूपत भाई कहते हैं, ‘दाना कब से दे रहे हैं, सही-सही याद नहीं, लेकिन जब मैंने यह काम शुरू किया था, तब गेहूं 1.75 रुपये प्रति किलो बिकता था. वैसे मोटे तौर पर शायद 25-30 साल हो रहे होंगे.’ कहां से प्रेरणा मिली? इस सवाल पर भूपत भाई कहते हैं- ‘जीवों से प्यार करना तो मानव जाति का स्वभाव है. ये पक्षी तो बेचारे निरीह होते हैं. विकास की दौड़ में हमने इनके आशियाने छीन लिये. रिटर्न के रूप में कम से कम दाने तो मुहैया करा दें.’
क्यों मनाया जाता है राष्ट्रीय पक्षी दिवस
आमतौर पर बर्ड डे, नेशनल बर्ड डे और इंटरनेशनल माइग्रेटरी बर्ड डे को लेकर दुविधा में पड़ जाते हैं. बर्ड डे हमेशा 4 मई को मनाया जाता है, जबकि नेशनल बर्ड डे पांच जनवरी को. इंटरनेशनल माइग्रेटरी बर्ड डे मई के दूसरे शनिवार को मनाया जाता है. बर्ड डे मनाने का उद्देश्य लोगों में पक्षियों के प्रति लगाव पैदा करना है. यूएस की लाइब्रेरी आॅफ कॉन्ग्रेस के अनुसार सबसे पहले बर्ड डे 4 मई 1894 को को मनाया गया. इसकी शुरुआत कार्लेस अलमांजो बैबकॉक ने की. वे आयल सिटी के स्कूल अधीक्षक थे. 1910 के बाद यह बड़े पैमने पर मनाया जाने लगा. नेशनल बर्ड डे पक्षियों की गतिविधियों पर आधारित है. इसका उद्देश्य पिंजरे में बंद पक्षियों को मुक्त कराना और इसके लिए लोगों को प्रेरित करना है. इंटरनेशनल माइग्रेटरी बर्ड डे प्रवासी पक्षियों की अतुलनीय यात्रा के उपलक्ष्य में मनाया जाता है. यह सम्मान उन पक्षियों के लिए है जो अमेरिका और यूरोप के विभिन्न प्रांतों से दूसरे देशों और प्रांतों में प्रवास के लिए जाते हैं.साभार लाइफ@जमशेदपुर (प्रभात खबर)
एक आलोचक का अल्पज्ञात पक्ष
डॉ. नामवर सिंह ने शुरुआती दिनों में कई तरह का सृजनात्मक लेखन किया। बाद में वे आलोचना और वक्तृत्व के नए प्रतिमान बनाने में इतने व्यस्त हो गए कि यह पक्ष छूट गया। उनकी प्रारंभिक रचनाएं पिछले दिनों प्रकाशित हुई हैं। प्रस्तुत हैं उनमें से कहानी की कहानी और कुछ कविताएं
उस दिन हम लोग कमरे में जमे थे- रहे होंगे कोई चार जने। दोपहर के बाद ताश चल रहा था- ताश के साथ-साथ सांस का संसार, जीवन का रोमांस। हमारी बातें इन्हीं केन्द्रों के चारों ओर मंडरा रही थीं। भावुकता का स्रोत उमड़ चला था। बाहर सारी सृष्टि खड़ी-खड़ी भींग रही थी। जाड़े की बूंदा-बांदी जो थी! इधर तो ताश में ही गर्मी थी। दुनिया हमसे बहुत दूर छूटी जा रही थी कि दुनिया का एक प्राणी खिड़की पर झुक गया- झुर्रीदार चेहरा, झुर्रियों में नन्हीं-नन्हीं बूंदें। रमेश ने गंभीर स्वर में पूछा- ‘क्या है? किसे चाहते हो?’
‘यही नौकरी...और हो तो आग भी।’ बुड्ढे का शरीर कांप रहा था।
उत्तर था- ‘जाओ, यहां तो ताश है, लोगे? इसमें भी कम गर्मी नहीं है।’
वह हंस पड़ा, ‘बाबू ताश तो पेट भरने पर है। हमें तो आग ही चाहिए।’
यह एक दीन-हीन का व्यंग्य था। मेरा हृदय तड़पकर रह गया। सारा रोमांस न जाने कहां चला गया। उसे बुलाता तो तुरन्त, पर मित्रों के कारण कहना पड़ा कि शाम के बाद आना।
‘हां नाम क्या है?’
‘खरपत्तू।’ वह तुरन्त उस बूंदा-बूंदी में निकल गया। बिजली कौंधकर छिप गई। हृदय में एक झलक रह गई।
आखिर मित्रों से पिंड छुड़ाया, किन्तु उनकी बातें तो दिमाग को बुरी तरह घेरे पड़ी थीं- शाम हो गई थी। मैं कोच पर पड़ा विचार में उलझा था। आंखों में मित्रों का रोमांस और खरपत्तू की उसांस एक इंद्रधनुष बना रही थी कि वही काया कमरे के द्वार पर आ गई। सिर की फटी पगड़ी जमीन पर रखकर खरपत्तू ने प्रणाम किया। कमरे में आने से हिचक रहा था कि फर्श कहीं गन्दा हो जाएगा। मैंने खरपत्तू को पास बुलाया। वह डरता-डरता आया, फर्श पर बैठ गया। मन में आया इसे नौकर रखूं तो किस बूते पर। मेरा तर्क प्रबल हो उठा। पता नहीं यह कैसा आदमी है, भेस बनाने वाले भी आज कल खूब मिलते हैं। क्या खरपत्तू चोर नहीं हो सकता? शंकाएं ही तो हैं, बढ़ने लगीं सावन की बदली-सी।
मैंने पूछा-
‘खरपत्तू तुम पर विश्वास करूं? क्या सबूत कि तुम ईमानदार हो?’
वह एकटक मेरा मुंह देखने लगा, बोला नहीं। मैंने फिर दोहराया- तब उसने कहा- ‘बाबू सबूत कुछ नहीं, केवल मैं अपना सबूत हूं। जैसी आपकी मर्जी।’ सोच विचार कर मैंने उसे रख लिया और अब तो हंसी आती है अपने उस भोंडे प्रश्न पर!
खरपत्तू फिर तो मेरी दैनिक बातचीत का मसाला बन गया- वह मेरे कितना पास आ गया, यह तो इसी से मालूम है कि मुझे उसने अपने विषय में कुछ लिखने को बाध्य कर दिया।
पर मेरे मित्र जो रोमांस के पीछे दौड़ते से फिरते थे, मेरी इस बात पर भला नाक-भौं न सिकोड़ें। हां, तो मैंने एक दिन सोचा, खरपत्तू के विषय में कुछ लिख डालूं। क्या लिखूं? ऐसे ही गद्य में कुछ पंक्तियां उसके जीवन की। लिखा ऐसे ही कुछ स्केच जैसा। सोचा मित्रों को सुनाऊं, तब खरपत्तू को सुनाऊंगा। पर नहीं, खरपत्तू की चीज खरपत्तू को ही पहले सुनानी चाहिए। रात हो आई। खरपत्तू को बुलाया वह आकर बैठ गया। डरते हुए उसने पूछा, ‘क्या है बाबू, कोई अपराध तो नहीं हो गया?’
मैंने हंसते हुए कहा- ‘हां, सुनो मैंने एक कहानी लिखी है तुम्हारे लिए।’
‘कहानी कैसी बाबू! क्या होती है यह!’
‘तुम्हारे जीवन के विषय में मैंने लिखा है जो तुमने बतलाया है मुझे- सुनो चुपचाप!’
‘खरपत्तू, मेरा नौकर है। गरीबी में पला एक विशाल हृदय है। खरपत्तू आदमी है, आदमी ही नहीं देवता है। जीवन की कठिनाइयों के थपेड़े खाकर खरपत्तू अब मानवता के लिए पथ-प्रदर्शक बना है।’
इसी बीच में रमेश आ टपका, मैंने पढ़ना बंद कर दिया किन्तु वह छिपकर शायद उसका कुछ भाग सुन चुका था। रमेश ने छूटते ही कहा- ‘हां, खरपत्तू इज गॉड!’
‘नहीं तो क्या? मैंने झेंप मिटाते हुए कहा।’
खरपत्तू जैसे कुछ न समझकर भी समझ गया था रमेश के भावों को।
‘कहानी पढ़ो, सुनाओ खरपत्तू जैसे समालोचक को।’
मैं चुप और खरपत्तू तो गोया चुप था ही। रमेश ने एक बार खरपत्तू को खूब बनाया, किन्तु वह तो ऐसे बैठा था जैसे वह कुछ बन ही न सका हो। वह जो कुछ था वही रहा। रमेश ने उसे छोड़कर तब मुझे बनाना शुरू किया।
‘हां भाई, प्रेम सम्बन्धी कहानियां तो अश्लील होती हैं। जीवन में अब रोमांस ही कहां, अब तो कहानीकार के लिए बुधुआ की मड्ई ही प्रेयसी है।’
मैं सब सुन रहा था। अब साहस कर खरपत्तू ने कहा- ‘बाबू, देखूं तो यह कागद को- क्या है उसमें?’ मैंने दे दिया किन्तु उस हृदय को जिसे कभी सहानुभूति नहीं मिली थी, मेरी यह सहानूभूति रुलाने के लिए पर्याप्त थी। उसकी आंखें न जाने क्यों ये बातें सुनकर सजल हो आईं। इधर मैं सरगर्मी से खरपत्तू की ओर से बहस करने लगा। लालटेन के मन्द प्रकाश में फर्श पर बैठे हुए खरपत्तू की आंखें बरस रही थीं- कागज भीगकर काला हो गया था। कम्पित हाथों में वह कागज भी न जाने सिर हिला-हिलाकर क्या कह रहा था। मेरा बोलना बंद हो गया। मैंने केवल इतना ही कहा- ‘रमेश, एक गरीब के भी हृदय होता है।’ उधर देखा, खिड़की के बाहर तो आकाश के भी काले-काले अक्षर बादलों में लिपे-पुते से हो रहे थे। रमेश का दिल कुछ ठंडा हो रहा था।
खरपत्तू ने रुंधे कंठ से कहा- ‘बाबू, एक गरीब के वास्ते इतनी कागद की खराबी और इतना झगड़ा...आप लोगों की दोस्ती में अब मैं रोड़ा न होऊंगा। अब छुट्टी दें!’
कागज मेरे हाथों पर रखता हुआ वह उठकर चला गया। मैं न हां कर सका न नहीं। रमेश भी अवाक् रह गया। उसे कैसे रोकता? हवा का झोंका आया, कागज हाथों से उड़कर बाहर निकल गया। कोई पकड़नेवाला न था। रमेश ने कहा, ‘हां अब कहानी लिखना।’ उधर बाहर बरामदे के खम्भे से कागज लिपट गया। समझ रहा था शायद वह खरपत्तू है। मैं समझ रहा था शायद रमेश है और रमेश पता नहीं सोचता था कि वह मैं हूं या और कोई, पर थी वह केवल कहानी की कहानी।
(संपादक: भारत यायावर, साभार: राजकमल प्रकाशन)
---------
पथ में सांझ
पथ में सांझ
पहाड़ियां ऊपर
पीछे अंके झरने का पुकारना
सीकरों की मेहराब की छांव में
छूटे हुए कुछ का ठुनकारना
एक ही धार में डूबते
दो मनों का टकराकर
दीठ निवारना
याद है, चूड़ी के टूक-से चांद पै
तैरती आंख में आंख का ढारना?
***
पहाड़ियां ऊपर
पीछे अंके झरने का पुकारना
सीकरों की मेहराब की छांव में
छूटे हुए कुछ का ठुनकारना
एक ही धार में डूबते
दो मनों का टकराकर
दीठ निवारना
याद है, चूड़ी के टूक-से चांद पै
तैरती आंख में आंख का ढारना?
***
मंह मंह बेल
मंह मंह बेल कचेलियां, माधव मास
सुरभि सुरभि से सुलग रही हर सांस
लुनित सिवान, संझाती, कुसुम उजास
ससि-पांडुर क्षिति में घुलता आकास
फैलाये कर ज्यों वह तरु निष्पात
फैलाये बांहें ज्यों सरिता वात
फैल रहा यह मन जैसे अज्ञात
फैल रहे प्रिय, दिशि लघु लघु हाथ!
***
सुरभि सुरभि से सुलग रही हर सांस
लुनित सिवान, संझाती, कुसुम उजास
ससि-पांडुर क्षिति में घुलता आकास
फैलाये कर ज्यों वह तरु निष्पात
फैलाये बांहें ज्यों सरिता वात
फैल रहा यह मन जैसे अज्ञात
फैल रहे प्रिय, दिशि लघु लघु हाथ!
***
धुंधुवाता अलाव
धुंधुवाता अलाव, चौतरफा मोढ़ा मचिया
पड़े, गुड़गुड़ाते हुक्का कुछ खींच मिरजई
बाबा बोले लख अकास : ‘अब मटर भी गई’
देखा सिर पर नीम फांक में से कचपचिया
डबडबा गई-सी, कंपती पत्तियां, टहनियां।
लपटों की आभा में तरु की उभरी छाया।
पकते गुड़ की गरम गंध ले सहसा आया
मीठा झोंका। ‘आह! हो गई कैसी दुनिया!
सिकमी पर दस गुना।’ सुना फिर था वही गला
सबने गुपचुप गुना, किसी ने कुछ नहीं कहा।
चूं-चूं बस कोल्हू की, लोहे से नहीं सहा
गया। चिलम फिर चढ़ी, ‘खैर, यह पूस तो चला’...
पूरा वाक्य न हुआ कि आया खरतर झोंका
धधक उठा कौड़ा, पुआल में कुत्ता भौंका।
***
भी चली गई, किन्तु अभागा मैं न जा सका
समुख तुम्हारे और नदी तट भटका भटका
कभी देखता हाथ कभी लेखनी अबन्ध्या।
पार हाट, शायद मेला, रंग रंग गुब्बारे।
उठते लघु लघु हाथ, सीटियां, शिशु सजे धजे
मचल रहे...सोचूं कि अचानक दूर छ: बजे।
पथ, इमली में भरा ब्योम, आ बैठे तारे
‘सेवा-उपवन’, पुष्पमित्र गंधवह आ लगा
मस्तक कंकड़ भरा किसी ने ज्यों हिला दिया।
हर सुंदर को देख सोचता क्यों मिला हिया
यदि उससे वंचित रह जाता तुम्हीं-सा सगा
क्षमा कत करो वत्स, आ गया दिन ही ऐसा
आंख खोलती कलियां भी कहती हैं पैसा।
**********************************************************पड़े, गुड़गुड़ाते हुक्का कुछ खींच मिरजई
बाबा बोले लख अकास : ‘अब मटर भी गई’
देखा सिर पर नीम फांक में से कचपचिया
डबडबा गई-सी, कंपती पत्तियां, टहनियां।
लपटों की आभा में तरु की उभरी छाया।
पकते गुड़ की गरम गंध ले सहसा आया
मीठा झोंका। ‘आह! हो गई कैसी दुनिया!
सिकमी पर दस गुना।’ सुना फिर था वही गला
सबने गुपचुप गुना, किसी ने कुछ नहीं कहा।
चूं-चूं बस कोल्हू की, लोहे से नहीं सहा
गया। चिलम फिर चढ़ी, ‘खैर, यह पूस तो चला’...
पूरा वाक्य न हुआ कि आया खरतर झोंका
धधक उठा कौड़ा, पुआल में कुत्ता भौंका।
***
आज तुम्हारा जन्मदिवस
आज तुम्हारा जन्मदिवस, यूं ही यह संध्याभी चली गई, किन्तु अभागा मैं न जा सका
समुख तुम्हारे और नदी तट भटका भटका
कभी देखता हाथ कभी लेखनी अबन्ध्या।
पार हाट, शायद मेला, रंग रंग गुब्बारे।
उठते लघु लघु हाथ, सीटियां, शिशु सजे धजे
मचल रहे...सोचूं कि अचानक दूर छ: बजे।
पथ, इमली में भरा ब्योम, आ बैठे तारे
‘सेवा-उपवन’, पुष्पमित्र गंधवह आ लगा
मस्तक कंकड़ भरा किसी ने ज्यों हिला दिया।
हर सुंदर को देख सोचता क्यों मिला हिया
यदि उससे वंचित रह जाता तुम्हीं-सा सगा
क्षमा कत करो वत्स, आ गया दिन ही ऐसा
आंख खोलती कलियां भी कहती हैं पैसा।
साभार हिन्दुस्तान
‘सरस्वती’ के संपादक का पुण्य स्मरण
संपादक प्रवर महावीर प्रसाद द्विवेदी की 150वीं जयंती के समारोह 9 मई से शुरू हो रहे हैं। इस महान लेखक-संपादक की स्मृति में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और डॉ. रामविलास शर्मा के लेखन के कुछ अंश
उनका व्यक्तित्व उनके लेखों में अत्यंत स्पष्ट हो उठा है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, उनके लेखों, कविताओं में कोई नवीनता नहीं है। अधिकांश लेख यह कहकर आरंभ होते हैं कि इस विषय पर अमुक भाषा की अमुक पत्रिका में एक पठनीय लेख छपा है। इन पंक्तियों के लेखक को कभी-कभी मूल लेखों के साथ द्विवेदीजी के लेख को मिलाकर पढ़ने का अवसर मिला है। मूल लेख की प्रकाशन-भंगी में द्विवेदीजी ने एकदम नया रूप दिया है। अगर वे स्वयं न कह देते कि उनका लेख उक्त विशेष लेख का सारांश है, तो दोनों के एक ही होने का संदेह सब लोग नहीं कर सकते। मूल का वक्तव्य-वस्तु नया चोला पहनकर सामने आता है। दो बातें स्पष्ट ही समझ में आ जाती हैं। पहली यह कि यह आदमी नख से शिख तक ईमानदार है। वह एक भी पंक्ति, जिसे दूसरे ने लिखा है, अपने नाम से नहीं चलाना चाहता। इस नाम कमाने के उपहासास्पद युग में, जब नामी-नामी लेखकों में भी दूसरे के वक्तव्य-वस्तु को नया चोला पहनाकर अपनाने की पागलपन-भरी धुन सवार है, वह अकेला प्रवाह के विरुद्ध निश्चल खड़ा है। दूसरी यह कि उसने ज्ञान के प्रचार को पूजा की बुद्धि से ग्रहण किया है। उसमें उसने आत्म-बुद्धि के साथ ही मंदिर की सफाई की ओर भी ध्यान दिया है। जो कुछ भी सड़ा, गला, कूड़ा करकट है, उसे वह मंदिर में रख नहीं सकता। इस विषय में वह निर्मम और कठोर है। इन लेखों को पढ़कर द्विवेदीजी से हजार कोस दूर और हजार वर्ष बाद भी पैदा हुआ आदमी आसानी से समझ सकता है कि इसके पीछे एक निर्मम कठोर, उच्छासहीन ईमानदार, मैटर-ऑफ-फैक्ट व्यक्तित्व है।
द्विवेदीजी जिस युग में लेखनी चालना कर रहे थे, उस युग का व्यक्तित्व भी उनकी रचनाओं में स्पष्ट ही दीख जाता है। उनके युग का भारतवर्ष पुराने और नए के संघर्ष से गुजर रहा है, उत्सुकता के साथ नई-नई गवेषणाओं को सुनना चाहता है, फिरकर पीछे की ओर देखकर यह भी जान लेना चाहता है कि उसके पूर्व पुरुषों ने ऐसी कोई बात कही है या नहीं और संदेह के साथ अपने ज्ञान विज्ञान के आधार की जांच करना चाहता है। उसके सामने नव-युग का द्वार खुल गया है। अपरिचित स्वर्णयुग विस्मृति के गहन अंधकार से धीरे-धीरे सिर उठा रहा है। नवीनता के प्रति उत्कट औत्सुक्य और प्राचीन के प्रति दुर्दमनीय निष्ठा, यही उस भारतवर्ष का परिचय है। द्विवेदीजी ने इन दोनों बातों का बड़ा ही प्रौढ़ सामंजस्य किया। वे खोज-खोज कर नवीन विषयों का ज्ञान संचय करते रहे और प्राचीन गौरव की याद दिलाते रहे। सर्वत्र उन्होंने युग की इस विशेषता को अपने व्यक्तिगत संयम, निष्ठा और ईमानदारी से अधिकाधिक आकर्षक बना दिया। यह सब कुछ उन्हें एकदम नए सिरे से करना पड़ा। नए विचारों को नए प्राणों के स्पन्दन सहित प्रकाश कर सकने की क्षमता उस युग की भाषा में नहीं थी। प्राचीन गौरव को नए वैज्ञानिक रूप से प्रकट करने की सामथ्र्य भी उसमें कम ही थी। इस दूसरी श्रेणी की बातें उस युग की भाषा में या तो उच्छ्वासपूर्ण आवेग के रूप में प्रकट की जाती थीं या पक्षपातपूर्ण असम्भव कल्पनाओं के रूप में। द्विवेदीजी की रचनाओं में ही सबसे पहले इस बात का आभास मिला कि भारतीय गौरव केवल देशभक्ति की उमंग में दी गई सम्भव-असम्भव उच्छ्वासमयी वक्तृताओं से नहीं, बल्कि वैज्ञानिक यथार्थ-वादिता के रूप में प्रकट करने से ही देशवासियों को अपनी वास्तविक स्थिति का ज्ञान कराने में समर्थ हो सकता है। असल में द्विवेदीजी की परुष और निर्मम शैली ने ही उनमें वैज्ञानिक यथार्थवादिता भरी। उन्होंने वह भाषा तैयार की, जो हमारे प्राचीन गौरव को यथार्थ रूप में प्रकट कर सके। अतिरंजित, काल्पनिक, आवेगपूर्ण और खर्वकारी भाषा जो उन दिनों बहुत अधिक प्रचलित थी, उनके परुष हाथों में आकर संयत, उचित और साफ बन गई। यद्यपि उनकी भाषाओं का बौद्धिक उपकरण, भावावेशमूलक उपकरण से कहीं अधिक था, पर जिस युग में वे पैदा हुए थे, उस युग के लिए यह कमी गुण हो गई। उनसे कम परुष, कम बुद्धिपरवश और अधिक भावावेशी पुरुष के हाथों में पड़ने पर हमारी संक्रांति-कालीन भाषा में एक ऐसा ढीलापन रह गया होता, जिसके सुधारने के लिए शायद अब तक किसी और अवतारी पुरुष की बाट जोहते रहते। (महापुरुषों का स्मरण, हजारी प्रसाद द्विवेदी)
---
सरस्वती को हिन्दी की आदर्श पत्रिका बनाने में द्विवेदी जी ने अथक परिश्रम किया। थोड़े ही दिन में उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा और 1920 में उन्होंने सालभर के लिए छुट्टी ले ली। इस छुट्टी की कैफियत देते हुए जनवरी 1910 की सरस्वती में उन्होंने एक टिप्पणी लिखी- ‘परमावश्यक प्रार्थना। कुछ समय के लिए सरस्वती से छुट्टी।’ इसमें उन्होेंने बताया कि सात साल तक सरस्वती का सम्पादन करते हुए उन्होेंने एक दिन की भी छुट्टी नहीं ली। सरस्वती उपयुक्त सामग्री दे, इसके अलावा वह नियत समय पर निकले, इसके लिए बड़ी मेहनत दरकार थी। सम्पादक के कहने भर से अच्छे लेखक लेख भेज दें तो पत्रिका निकालना आसान हो जाए। किन्तु हिन्दी में यह स्थिति नहीं थी। सरस्वती-सम्पादन के अलावा वह पुस्तकें भी लिखते रहे थे जिनमें सबसे महत्वपूर्ण ‘सम्पत्तिशास्त्र’ थी। इस सारे परिश्रम का परिणाम यह हुआ : ‘हमने अनजान में अपनी शारीरिक शक्ति से बाहर काम किया। प्रकृति बड़ी ही कठोर न्यायाधीश है। उसके नियम का उल्लंघन हुआ कि दंड मिला। रहम करना-दया दिखाना-वह जानती ही नहीं। उसने जान-अनजानपने की जरा भी परवा न करके हमें उचित दंड दे दिया। हमें आज दो वर्ष से उन्निद्र रोग हो गया है। कभी कुछ कम हो जाता है, कभी बढ़ जाता है। किसी दिन घंटे दो घंटे नींद आ जाती है, किसी दिन बिलकुल ही नहीं आती। इस दशा में साहित्य-संबंधी सारा काम छोड़कर हमारे लिए विश्राम की बड़ी जरूरत है। अतएव हमने कुछ समय के लिए सरस्वती से छुट्टी ले ली है।’
जिस कारण उन्हें उन्निद्र रोग हुआ था, वह नितान्त भौतिक था। प्रकृति और मनुष्य-इन्हीं के सनातन द्वंद्व का परिणाम उनकी अस्वस्थता थी। सम्पादन के पांच वर्ष पूरे करने पर उन्हें उन्निद्र रोग हुआ। उस हालत में भी लगातार दो वर्ष तक सम्पादन-कार्य करते रहने से स्वास्थ्य इतना गिर गया कि उन्हें लगा कि अंतिम विदा का समय आ पहुंचा है। उसी टिप्पणी के अंत में उन्होंने पाठकों, ग्राहकों और सहायकों से जान अनजान में होने वाली भूल के लिए, उन्हें अपने किसी कार्य से खेद पहुंचाने या अप्रसन्न करने के लिए क्षमा मांगते हुए लिखा: ‘शरीर का कुछ ठिकाना नहीं। सम्भव है, हमारा यह लेख आखिरी हो और फिर कभी उनसे इस तरह लेख-द्वारा मिलने का मौका न मिले :-
उद्घाटित नवद्वारे पञ्जरे विहगोऽनिल:।
यत्तिष्ठति तदाश्चय्र्यं प्रयाणे विस्मय: कुत:।।’
जिस शरीर पञ्जर के नवों द्वार खुले हुए हैं, उसमें प्राण-विहग बना रहता है, यही आश्चर्य की बात है। उसके उड़ जाने में आश्चर्य कैसा?
---
महावीर प्रसाद द्विवेदी का जन्म बैसवाड़े के साधारण किसान-परिवार में हुआ था। उनके पितामह ब्रिटिश फौज के हिन्दुस्तानी सिपाहियों को पुराण बांचकर सुनाया करते थे। उन्होंने बहुत सी हस्त लिखित पुस्तकें एकत्र की थीं। इन्हें बेचकर उनकी पत्नी ने अपने बच्चों को पाला। द्विवेदी जी के पिता राम सहाय ब्रिटिश फौज में सिपाही थे। 1857 में अंग्रेजों के विरुद्ध एक पल्टन वह भी थी जिसमें रामसहाय दुबे थे। विद्रोह के समय पल्टन होशियारपुर में थी। अंग्रेजों ने पल्टन को चारों तरफ तोपें लगाकर घेर लिया। द्विवेदी जी ने आत्मकथा में लिखा है : ‘गदर में पिता की पल्टन बागी हो गई। जो बच निकले, वे बच गए। बाकी जवान तोपों से उड़ा दिए गए।’ रामसहाय दुबे भागकर सतलज में कूद पड़े। कई दिन तक नदी में तैरते रहने के बाद बहुत दूर जाकर बेहोशी की सी हालत में किनारे लगे। ‘हरी मोटी घास के तिनके चूस चूसकर कुछ शक्ति सम्पादन की। मांगते खाते, साधुवेष में, कई महीने बाद, वह घर आए।’ कुछ दिन बाद बम्बई पहुंचे और वहां वल्लभ-सम्प्रदायी एक सेठ के यहां ठाकुर जी की सेवा करने पर नौकर हुए। द्विवेदी जी के नाना और मामा संस्कृत के विद्वान थे। संस्कृत साहित्य से प्रेम द्विवेदी जी को अपने पितामह और नाना दोनों की ओर से मिला। बचपन से तुलसीदास की रामायण पढ़ी थी। जब हुशंगाबाद में थे, तब भारतेन्दु हरिचन्द्र की ‘कवि-वचनसुधा’ और राधाचरण गोस्वामी का ‘भारतेन्दु’ पत्र पढ़कर हिन्दी सेवा की ओर प्रवृत्त हुए।
द्विवेदी जी ने बड़ी कठिनाइयों से शिक्षा प्राप्त की थी। स्कूली शिक्षा बहुत साधारण थी। अपनी असाधारण शिक्षा विद्यालयों में गए बिना अपने ही प्रयत्न से उन्होंने प्राप्त की। रेलवे में नौकर हो गए पर अंग्रेज अफसरों का व्यवहार खलता था। नौकरी छोड़ने के बारे में उन्होंने 4-9-32 के पत्र में श्री राम शर्मा को लिखा था : ‘मैं रेलवे में 150 रु. तनख्वाह, 50 रु. अलौंस = 200 रु. पाता था। एक मेरे साहब ने मुझसे अपने मातहत क्लर्कों पर जुल्म कराना चाहा। मैंने इनकार कर दिया। वह बोला- तुम्हारी जगह पर दूसरा आदमी रखूंगा। फिर मनाने-पथाने पर भी इस्तीफा वापस न लिया।’ (द्विवेदी युग के साहित्यकारों के कुछ पत्र, इलाहाबाद, पृष्ठ 64)। इसी प्रसंग में उन्होंने आत्मकथा में लिखा है कि कर्जन के दिल्ली दरबार के समय ‘मेरे गौराङ्ग प्रभु अपनी रातें अपने बंगले या क्लब में बिताते थे। मैं दिनभर दफ्तर का काम करके रात भर, अपनी कुटिया में पड़ा हुआ उनके नाम आए हुए तार लेता और उनके जवाब देता था।’ इन्हें सताने के अलावा ‘मेरे प्रभु ने मेरे द्वारा औरों पर भी अत्याचार करना चाहा।’ इस्तीफा देने के बाद उन्होंने पत्नी से सलाह की और पूछा, क्या इस्तीफा वापस ले लें?
पत्नी ने उत्तर में दूसरा प्रश्न किया, क्या थूककर भी कोई चाटता है?
कोई आश्चर्य नहीं कि हिस्टीरिया रोग से पीड़ित अपनी पत्नी के प्रति द्विवेदी जी के हृदय में अगाध प्रेम था। गंगा में डूब जाने से जब उनकी अकाल मृत्यु हुई, तब नि:सन्तान विधुर पति की आयु 40-42 के आसपास थी पर उन्होंने दूसरा विवाह न किया और आजीवन अपने दु:ख-सुख की साथी स्वर्गीया पत्नी की स्मृति के प्रति अपनी आस्था अडिग और पवित्र बनाए रहे।
द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ में यज्ञदत्त शुक्ल ने लिखा है: ‘उनके कमरे में कई अस्त्र- एक बन्दूक, एक तलवार, काता (कांता) और कई लाठी-डंडे- रखे रहते हैं। जयपुर से मंगाए हुए धनुष बाण भी रक्खे हुए हैं। जहां बैठते हैं, ठीक उसी जगह उनकी बाईं ओर, एक करौली रक्खी रहती है।’ (पृष्ठ 567)। प्रतिक्रियावादियों के गढ़ में समाज के सूत्रधारों को ठेंगा दिखाकर सुख की नींद सोना संभव नहीं था। विद्रोही सिपाही रामसहाय के बेटे महावीरप्रसाद ने आत्मरक्षा के लिए ये शस्त्र इकट्ठे किए थे। समाज की उपेक्षा और निहित स्वार्थों के घोर विरोध की चिन्ता न करके वह अपने निर्धारित मार्ग पर दृढ़ता से आगे बढ़ते रहे। किशोरीदास वाजपेयी ने उन्हें बहुत उचित कलजुगी भवभूति कहा है। भवभूति जैसे विद्रोही साहित्यकार सतयुग में नहीं, कलियुग में ही पैदा होते हैं। इसलिए उपेक्षित भी रहते हैं और उनका जीवन बहुत कुछ अकेलेपन में बीतता है। परिवार में द्विवेदी जी का अपना सगा कोई न था। जो परिवार उन्होंने जोड़ा था, उससे उन्हें संतोष न था। सरस्वती के सम्पादन-काल में ही उन्होंने मैथिलीशरण गुप्त को 25-5-15 के पत्र में लिखा था: ‘मेरे शरीर की रक्षा करने वाला कोई नहीं। जिनको मैंने अपना कुटुम्बी बनाया है वे मुझे फलवान वृक्ष समझकर डंडों और ईंटों की मार से शीघ्र ही कच्चे, पक्के फल गिराकर हड़प कर जाना चाहते हैं।’ (द्विवेदी पत्रावली, पृष्ठ 133)। जब बहुत व्यथित या उत्तेजित होकर गद्य लिखते हैं, तब उसका कलात्मक स्तर इसी तरह ऊंचा होता है। (महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण : रामविलास शर्मा)
से साभार...
मूल लेख यहाँ पढ़ें...http://www.livehindustan.com/news/tayaarinews/tayaarinews/article1-story-67-67-330575.html
*********************************
हिंदी के अप्रतिम आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री

प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. अरुण सज्जन
(संपर्क : 9334013836)
का यह लेख प्रभात खबर ई-पेपर,
जमशेदपुर पर उपलब्ध

प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. अरुण सज्जन
(संपर्क : 9334013836)
का यह लेख प्रभात खबर ई-पेपर,
जमशेदपुर पर उपलब्ध
(संपर्क : 9334013836)
का यह लेख प्रभात खबर ई-पेपर,
जमशेदपुर पर उपलब्ध
![]() |
आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री
(7 अप्रैल, द्वितीय पुण्य तिथि) |
916 आधुनिक हिंदी के प्रादुर्भाव या प्रथम चरण का काल कहा जा सकता है. इसी काल में हिंदी में खड़ी बोली के उत्रायक भारतेंदु हरिश्चंद खड़ी बोली हिंदी को स्थापित कर कर रहे थे, इसी समय मैथिलीशरण गुप्त और भगवती चरण वर्मा जैसे रचनाकार हिंदी साहित्य को राष्ट्रवादी और प्रगतिवादी वितान प्रदान कर रहे थे. निराला, प्रसाद, पंत और महादेवी वर्मा के साहित्य के रूप में छायावाद पुष्ट हो रहा था और हिंदी साहित्य रीतिकालीन शरीरांजलि का त्याग कर राष्ट्रीय भावना और सामाजिक चेतना के रस में मज्जित हो नयी ऊं चाइयां छू रहा था. इसी 1916 वर्ष की माघ शुक्ल द्वितीया को बिहार के मगध अंचल के बीहड. ग्राम मैगरा में पंडित रामानुग्रह शर्मा के आंगन में हिंदी साहित्य के भावी पुरोधा का जानकीवल्लभ के रूप में जन्म हुआ. परंपरागत श्रृंगारिकता के साथ नव राष्ट्रवाद, छायावाद और प्रगतिवाद के साहित्यिक वातावरण में जानकीवल्लभ ने इन सबसे अलग या सबको समन्वय के साथ ही उसमें देवभाषा संस्कृत का सौंदर्य विधान भी समाहित करना आरंभ किया. तब जानकीवल्लभ शास्त्री मात्र 14 वर्ष के थे. पिता रामानुग्रह शर्मा जरूर संस्कृत के उद्भट विद्वान थे, किंतु पुत्र ने तो मानो गर्भ में ही कालिदास की कलात्मकता तथा रवीन्द्रनाथ के संगीत के सरगम को आत्मसात कर लिया था. तभी तो जानकीवल्लभ दोनों महाकवियों की कला के अद्भुत सम्मिलन, अपनी प्रथम संस्कृत-रचना (1932) काकली के रूप में प्रस्तुत कर सके. आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री में एक तरफ जहां समुद्र की तरह कलात्मक गहराई थी, वहीं संगीत कला का भी अद्भुत संयोग था. इन दोनों के मणिकांचन संयोग ने उनके काव्य को अलग आयाम दिया.
आचार्य शास्त्री मूलत: संस्कृत के कवि के रूप में अवतरित हुए, किंतु वाराणसी के शैक्षणिक प्रवास के दौरान महामना मदनमोहन मालवीय के शिष्यत्व और निराला के वत्सल स्नेह ने उन्हें जो एक बार हिंदी की ओर मोड.ा, उसके बाद वे आजीवन हिंदी की सेवा में ही लगे रहे तथा हिंदी को महाकाव्य, संस्मरण, आलोचना, गीत और गजल की शताधिक निधियों से भर दिया.
उनका व्यक्तित्व और कृतित्व, दोनों निराले ओर अनुकरणीय रहे. स्वाभिमान और स्पष्टवादिता से दीप्त उनका आकर्षक व्यक्तित्व अलग से ही पहचाना जाता था. भारतीय परम्परा और संस्कृति के प्रबल सर्मथक तथा गद्य-पद्य दोनों में समान गति के धनी एवं विशिष्ट रचना-शैलीवाले व्यक्तित्व के रूप में उनकी अलग ही पहचान थी.
‘अवन्तिका’ उनकी प्रथम गीति रचना है जिसकी सम्पूर्णता उनके प्रबंधकाव्य ‘राधा’ में दिखी जो हिंदी साहित्य को उनकी अनुपम भेंट है. सात पवरें में रचित ‘राधा’ जीवन-दर्शन से गुम्फित है जिसमें मानव-जीवन की व्याख्या और सफल सापेक्ष्य कल्पना अभिव्यंजित है. देखें :-
तन नहीं जहां, बहुधा मन वहां रमा है,
कैसे न थका, गिरि, वन-सर्वत्र भ्रमा है!
है कौन इसे संचारित करता रहता,
यह अमृत कहां पाता, नित मरता रहता!
मैं उसी उत्स का रहूं सदा संधानी,
उससे जानूं जीवन की ज्योति अजानी!
और विशेषकर निम्न छंद :-
मन नहीं बंधेगा तो तन नहीं सधेगा,
निज से न मिले, क्या उसे दूसरा देगा!
(राधा, प्रणय पर्व)
गद्य में ‘कालिादास’ शास्त्री जी की ऐतिहासिक औपन्यासिक कृति है, जिसमें कालिदास आचार्य की दृष्टि और लेखनी में द्रष्टव्य हैं. ‘कालिदास’ की निम्न पंक्तियां जहां इतिहास की गहराई का अवलोकन कराती हैं, वहीं उनकी देशज लोकोक्तिपूर्ण शैली की अनुपम बानगी भी हैं :-
‘कालिदास को महाभाष्य में पतंजलि की कही एक कहावत याद आ गई, बेर आंवले को, हरे रहें या पक कर लाल-पीले हो जायें, वे बेर और आंवले ही रहते हैं.’ स्व. शास्त्री का वाह्य सांसारिक जीवन यों तो तत्कालीन अनेक महान साहित्यकारों, और पैतृक विरासत से प्राप्त सांस्कृतिक परम्परा का प्रतिरूप था, किंतु पं सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की पकड. उनकी जीवनशैली और आचार-व्यवहार पर अंत तक दिखी. स्वाभाविक भी था, मात्र 19 वर्ष की आयु में अध्ययन के लिए काशी पहुंचे शास्त्री जी ने निराला के दर्शन कर किशोरावस्था में ही अपने जीवन को ‘निरालेपन’ के प्रभाव से सराबोर कर लिया था. उन्होंने अपने स्मृति-ग्रंथ अनकहा-निराला में आचार्यत्व की शैली में इसका वर्णन किया है :-
‘हां, मैंने किशोर वय में ही सूखे तन से, समुद्र में गोते लगा लिये थे, किंतु सन 35 में जो देखा-वह पहाड. सा ऊंचा समुद्र और समुद्र-से गहरा पहाड., उसके खुरदरे सपने भी उनींदी पलकों में कभी नहीं आये थे. वह अनदेखा अनगढ.-विराट निराला था. वर्ष पर वर्ष बीतते गये! पहाड. की गहराई थाही न गई, समुद्र की ऊंचाई मापी न जा सकी. मैंने बार-बार कोशिश की, मगर मुझे कामयाबी हासिल नहीं हुई..!’
हिंदी साहित्येतिहास में डॉ नगेंद्र ने उन्हें उत्तर छायावाद के गीतकार के रूप में सभी से इतर स्थान शायद इसलिए दिया है, क्योंकि आचार्य शास्त्री की गीति-रचनाएं वायवीय नहीं थीं. उन्होंने जीवन-साधना में सधते सांसों को मंत्र के रूप में अपनी रचनाओं में प्रस्तुत किया है. अनेकानेक गीत इसके प्रमाण हैं :-
‘मैं गाऊं तेरा मंत्र समझ,
जग मेरी वाणी कहे, कहे!
पाकर तेरी ही स्वर्ण किरण
मेरा खग अपना पर तोल।
हो जिधर-जिधर आह्वान तेरा,
वह उधर ही तेरे निकट डोले! और उन्होंने जीवन भर भारतीय वेद-वाड्मय की विवेचना और गवेषणा को अपने गीतों में रचते रहे :-
‘गीत नहीं मैं गीता गाता!
दुर्बल मन अर्जुन जब साहस
का गांडीव फेंक पछताता!
मैं कहता, यदि कसी कमर है,
डर क्या, यह संसार समर है!
जूझो, आत्मा अजर-अमर है,
ज्ञान-कर्म का महा मिलन ही,
है मंजुल, मंगल-फल लाता!
गीत नहीं मैं गीता गाता!’
जिसका बचपन मातृछाया से वंचित, कठोर पितृ-निर्देशन में गुजरा हो, उसके हृदय में हहराती बरसाती नदी की उफान, झाग बनने को नहीं, समुद्र के हहराती-लहराती लहरों में उब-डुब करने को बेचैन मात्र नहीं होता, तथापि समुद्र के अंतस्थल में डूबो कर अपने को एकाकार करना चाहेगा. आचार्य शास्त्री के पिता पंडित रामानुग्रह शर्मा अपने पारिवारिक जीवन को संवारते हुए जब अधिक वय के लोगों में गिने जाने लगे, तब गांव संबंधियों के आग्रह पर पाणिग्रहण को तैयार हुए. तब सुशीला गृहलक्ष्मी की तलाश की जाने लगी. आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री होश संभालने से पूर्व, आंखों से देख पाने भर की उम्र में ही मां को देख पाये, किंतु जितना भर देखा, उसका अनुपम वर्णन उन्होंने अपने लोकप्रिय और हिंदी साहित्य के अद्वितीय संस्मरण ‘हंस बलाका’ में किया है. निम्न पंक्तियां उनकी प्रसिद्ध रचना ‘हंस बलाका’ की एक बानगी मात्र हैं, किसी भी सुधी साहित्यकार के अध्ययन के लिए :-
‘और एक ऐसी सुदक्षिणा कुलवधू के संधान में बडे.-बुजुर्ग लग गये जिसकी आंखों में आकाश की विशालता भी हो और समुद्र की अतलता भी, गहरे अंधेरे में जिसके होठों के भीतर तारों की पांत जगमगाए और बाहर शील की चंदन-चांदनी. और जो ब्राह्मण-युग की यज्ञ-सहधर्मिणी ऋषि-पत्नी सी प्रकृति-पार्वती की तपस्या से अंत:पूत मातृत्व की गंध बिखेरती, पति के पाण्डित्य का गरल पीकर भी परितृप्ति की सुधा-धार बरसाये!
‘कहना न होगा, दारिद्र्््रय से भरपूर इस यवन-वन में सबके मनोरथ के अनुरूप साक्षात लक्ष्मी-स्वरूपा मेरी मां अनुपमा का पदार्पण, बड.ों के आशीर्वाद के अनुपम निदर्शन के लिए ही हुआ.’
जानकी वल्लभ शास्त्री, निस्संदेह हिंदी साहित्य के लिए एक अनुपम भेंट हैं, जिनका विपुल साहित्य न केवल संख्या के आधार पर उन्हें अग्रिम पंक्ति में ला खड.ा करता है, अपितु उनके साहित्य सागर के अवगाहक, समीक्षक और शोधार्थी एक-एक कृति की मीमांसा में हिंदी साहित्येतिहास का पुनर्लेखन कर सकते हैं. कोई आश्चर्य नहीं कि शास्त्री जी की साहित्यिक भाषा, शैली, गहराई, सांस्कृतिक मूल्य और उसी के समान उनकी जीवन शैली विस्तृत अध्ययन की मांग करते हैं, जिसमें हिंदी जगत के विविध आयाम कमल-दल की तरह गुंफित हैं जिसमें वैविध्य भी है और गहराई भी. दूसरा सच यह भी है कि आजीवन अपनी शतरें और स्वाभिमान के साथ जीने वाले शास्त्री जी को बहुत सम्मान मिला, फिर भी उन्हें यथोचित सम्मान नहीं मिल पाया. उनकी पूरी साहित्य-निधि हमारे समक्ष है. हिंदी को नयी दिशा और दशा प्रदान करने के लिए जिसकी समीक्षा उनके प्रति सी श्रद्धान्जलि होगी.
साहित्य साधकों के लिए प्रभात खबर ई-पेपर, जमशेदपुर से साभार...
******************************************************
राहुल सांकृत्यायन की तिब्बती पांडुलिपियों के अनुवाद का रास्ता साफ
महापंडित
राहुल सांकृत्यायन द्वारा तिब्बत से लाई गई छह हजार से अधिक पांडुलिपियों
के अनुवाद की रुकावटें दूर हो गई हैं। सोमवार से सारनाथ स्थित सेंट्रल
इंस्टीट्यूट ऑफ तिब्बतन स्टडीज के पेम्पा दोरजी के नेतृत्व में तीन सदस्यीय
टीम बिहार रिसर्च सोसाइटी में संरक्षित पांडुलिपियों पर काम शुरू करेगी।
जिन पांडुलिपियों का अनुवाद होना है, उनमें चार हजार तिब्बती भाषा में
बौद्ध धर्म पर हैं जबकि 1619 ग्रंथ
अलग-अलग विषयों से जुड़ी हैं।
सांकृत्यायन ये पुस्तकें 1929, 1934, 1936 और 1938 में तिब्बत से लेकर आए।
और इन्हें बिहार रिसर्च सोसाइटी को सौंप दिया। पटना संग्रहालय के अतिरिक्त
निदेशक जेपीएन सिंह ने कहा कि इन पांडुलिपियों के अनुवाद के लिए सारनाथ और
धर्मशाला स्थित तिब्बती संस्थाओं से मदद मांगी गई थी।
भारत
से गई थीं पुस्तकें : ये पांडुलिपियां दरअसल भारत से ही 7वीं शताब्दी और
उसके बाद विभिन्न बौद्ध विद्वानों द्वारा तिब्बत ले जाई गई थीं। इनमें
दीपांकर श्रीज्ञान, अतीश शांति रक्षित, प्रज्ञाकर गुप्त, पद्मसंभव आदि
प्रमुख विद्वान थे। वे भारत से अपने साथ बौद्ध धर्म पर संस्कृत में रचित
पांडुलिपियां ले गए थे। बाद में तिब्बती भाषा में पांडुलिपियां तैयार हुई। मूल संस्कृत पांडुलिपि नष्ट हो गई।
बहुमूल्य
हैं पांडुलिपियां : बौद्ध विद्वान धर्मकीर्ति लिखित प्रमाण वार्तिक को भी
तिब्बत ले जाया गया था। वहां इस पुस्तक पर प्रज्ञाकर गुप्त ने
'प्रमाणवार्तिक भाष्यम, मनोरथ नंदिन ने 'प्रमाणवार्तिक वृति और कर्णक गोमिण
ने 'प्रमाणवार्तिक स्ववृति टीका की रचना की। इन पांडुलिपियों को जापान के
नारीतासन इंस्टीट्यूट फॉर बुद्धिस्ट स्टडीज और बिहार रिसर्च सोसाइटी ने
संयुक्त रूप से 1998 में पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया। तीनों पुस्तकों
के 'सेट की कीमत 1.25 लाख रुपए रखी गई है।
साभार दैनिक भास्कर
***************************************** एक उपन्यासकार, जो अफ्रीकी अस्मिता की जुबान बन गया
इसी 21 मार्च को अफ्रीका के महानतम उपन्यासकार चिनुआ अचीबे का निधन हो गया। चिनुआ अचीबे को आधुनिक अफ्रीकी साहित्य का पिता कहा जाता है। अफ्रीका की उपनिवेशवाद से मुठभेड़ के अनुभवों को प्रामाणिकता और संवेदनशीलता के साथ दर्ज करने की वजह से उन्हें आधुनिक विश्व साहित्य में सर्वाधिक सम्मानित लेखकों में शुमार किया जाता है। इस महान लेखक के कृतित्व के बारे में बता रहे हैं प्रभात रंजन :-
चिनुआ अचीबे |
चिनुआ अचीबे के उपन्यास ‘थिंग्स फॉल अपार्ट’ का नायक ओकोनक्वो पूछता है- ‘क्या गोरा आदमी जमीन के बारे में हमारे रिवाज जानता है?’ जवाब मिलता है- ‘कैसे जान सकता है, जब वह हमारी भाषा भी नहीं बोलता?’ लेकिन वह कहता है-‘हमारे रिवाज खराब हैं, और हमारे अपने भाई भी, जिन्होंने उसका धर्म अपना लिया, यही कहते हैं कि हमारे रिवाज बुरे हैं।’1958 में प्रकाशित चिनुआ अचीबे के इस उपन्यास ने सभ्यताओं के संघर्ष का एक ऐसा पाठ प्रस्तुत किया कि उसके बाद उनको अफ्रीकी साहित्य का पिता कहा जाने लगा। मूलत: अंग्रेजी में लिखे गए उपन्यास ‘थिंग्स फॉल अपार्ट’ के बारे में कहा जाता है कि उसने अफ्रीका के बारे में पश्चिमी समाज के नजरिये को सिर के बल खड़ा कर दिया। कहा जाता है कि जिस तरह से अफ्रीकी समाज की कथा इस उपन्यास में आई है, इससे पहले कभी कही नहीं गई थी। जिस तरह गाब्रिएल गार्सिया मार्केज के उपन्यास ‘वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलिट्यूड’ के प्रकाशन के बाद लैटिन अमेरिकी समाज के बारे में लोगों की धारणा बदल गई, उसी तरह का काम इस उपन्यास ने अफ्रीकी समाज के बारे में किया। इस एक उपन्यास के कारण उनको अफ्रीका के महानतम लेखकों में गिना जाता है। 1958 में प्रकाशित इस उपन्यास के अब तक 50 भाषाओं में अनुवाद हो चुके हैं। हाल में ही ‘चीजें बिखरती हैं’ नाम से उसका हिंदी अनुवाद हार्पर कॉलिन्स ने प्रकाशित किया है।
1950 के दशक में लेखन शुरू करने वाले अचीबे की लेखक के रूप में प्रतिष्ठा का कारण केवल यही एक उपन्यास नहीं है, बल्कि वह दृष्टि है, जिसने उपनिवेशवाद की भाषा अंग्रेजी में पूरे बल के साथ यह स्थापित किया कि हम इस भाषा की यशस्वी लेखन परंपरा का पूरा सम्मान करते हुए उसमें उस ढंग से, उस शैली में उपन्यास-कथा साहित्य लिख सकते हैं, जिसके ऊपर पश्चिमी दृष्टि की छाया भी न हो। अकारण नहीं है कि उन्होंने अपने आरंभिक उपन्यासों के शीर्षक अपने प्रिय अंग्रेजी लेखकों से लिए, ‘थिंग्स फॉल अपार्ट’ यीट्स से तो ‘नो लौंगर ऐट इज’ का शीर्षक टी. एस. इलियट को श्रद्घांजलि है। एक बार पूछे जाने पर उन्होंने कहा था कि अंग्रेजी उनकी अफ्रीकी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए माकूल भाषा साबित होगी, लेकिन वह अंग्रेजी एक ऐसी अंग्रेजी होगी, जो अपने पूर्वजों के साथ पूरा तादात्म्य स्थापित करते हुए समकालीन अफ्रीका के अनुकूल हो। वह समकालीन अफ्रीका, जो औपनिवेशिक दासता से मुक्त है, जो अपनी अलग पहचान बनाने के लिए
चिनुआ अचीबे को जातीय उपन्यासकार कहा जा सकता है। तर्काधारित आधुनिकता ने पारंपरिक समाजों को जो शिक्षा दी, उसने उनको अपनी सभ्यता से शर्म करना सिखाया। यह सिखाया कि जो भी पश्चिमी ढंग की शिक्षा से महरूम है, वह पिछड़ा है। अचानक से इस नई आधुनिकता के सामने पारंपरिक समाज बौने नजर आने लगे। पश्चिमी आधुनिकता ने तीसरी दुनिया के देशों को यह बताना शुरू किया कि असल में आप कितने जाहिल रहे हैं, कितने पोंगापंथी रहे हैं। हर देश में ऐसे पश्चिम समर्थक पैदा हो गए, जिन्होंने अपनी सभ्यता की कमियां गिनाने को ही अपना पेशा बना लिया। प्रसंगवश, चिनुआ अचीबे का दूसरा उपन्यास ‘नो लौंगर ऐट इज’ यही बताता है कि किस तरह पारंपरिक समाज का एक व्यक्ति अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने के बाद, सिविल सेवा में आने के बाद अपने समाज से कटता चला जाता है। औपनिवेशिक शासन ने किस तरह आधुनिकता के नाम पर लोगों को अपने समाज से काट दिया, उनके दूसरे उपन्यास में इसी दर्द की अभिव्यक्ति है।
असल में चिनुआ अचीबे के उपन्यासों ने औपनिवेशिक समाजों को अपनी परम्पराओं के ऊपर गर्व करना सिखाया। अगर हम पिछड़े हैं तो भी वह हमारा है और हमें उसके ऊपर गर्व है। असल में उनके आरंभिक दोनों उपन्यास यूरोपीय आधुनिकता का एक क्रिटिक पेश करते हैं और कहीं न कहीं यह भी बताते लगते हैं कि आधुनिकता को विकास का एकमात्र वाहक समझना वास्तव में बहुत बड़ा छल था। आधुनिकता के सीमान्तों को दिखाने वाले उपन्यास उन्होंने लिखे और एक तरह से उत्तर-आधुनिक उपन्यास का आधार तैयार करने का काम भी किया।
इसमें कोई शक नहीं कि उनके बाद के अफ्रीकी लेखकों ने उनके लेखन में अपनी आवाज पाई, उनको लेखन की एक दृष्टि चिनुआ अचीबे से मिली। हाल के दिनों की एक प्रसिद्ध नाइजीरियाई लेखिका चिमामंदा न्गोजी अदीची ने लिखा है कि अचीबे को पढ़ कर यह महसूस हुआ कि हम जैसी लड़कियां, जिनकी त्वचा का रंग चॉकलेट जैसा है, जिनके उलझे-उलझे बालों से पोनीटेल नहीं बनाया जा सकता है, उनके लिए भी साहित्य में स्थान है। अफ्रीकी लेखकों में उन्होंने यही आत्मविश्वास पैदा किया। हालांकि इनाम-इकराम के मामले में वे उतने भाग्यशाली नहीं रहे। अंग्रेजी में प्रकाशित उपन्यास के लिए दिया जाने वाला मैनबुकर प्राइज के लिए वे पहली बार 1987 में अपने उपन्यास ‘एन्टहिल्स ऑफ सवान्ना’ के आखिरी दौर तक नामांकित रहे, लेकिन मैनबुकर इंटरनेशनल प्राइज उनको मिला 2007 में, जो अंग्रेजी साहित्य लेखन परंपरा की चूलें हिला देने वाले एक लेखक के लिए स्वाभाविक ही कहा जाएगा। वैसे पाठकों का भरपूर प्यार उनको मिला और उनके पहले उपन्यास ‘थिंग्स फॉल अपार्ट’ की करीब पांच करोड़ प्रतियां दुनिया भर में बिक चुकी हैं।
वैसे इसे भी विडम्बना ही कहा जाएगा कि अफ्रीकी अस्मिता के इस महान लेखक को अपने जीवन का आखिरी चौथाई अमेरिका में बिताना पड़ा। 1990 में एक दुर्घटना के बाद शरीर के निचले हिस्से में लकवे के शिकार हो जाने के बाद वे अमेरिका में रहने के लिए चले गए। वहीं उनका निधन हुआ। औपनिवेशिक समाज की विडंबनाओं को उद्घाटित करने वाला यह लेखक मानवीय विडंबनाओं में जीता रहा। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि चिनुआ अचीबे ने औपनिवेशिक गुलामी के शिकार समाजों को उठ कर खड़ा होना सिखाया, अपने ऊपर गर्व करना सिखाया और उस आधुनिकता के ऊपर प्रश्नचिह्न लगाना सिखाया, जिसे पश्चिमी सभ्यता मनुष्य की मुक्ति का सबसे बड़ा मंत्र मानती आई थी। उनका जाना एक ऐसे लेखक का जाना है, जिसने प्रेम की भाषा में नफरत का पाठ पढ़ाया, जिसने औपनिवेशिक भाषा को उसके औपनिवेशिक अहंकार से मुक्त करवाया।
निष्कासन
चिनुआ अचीबे |
सात साल तक अपने कबीले से दूर रहना एक अच्छी-खासी मुद्दत थी। आदमी की जगह, उसका इंतजार करती हुई, हमेशा वहां बनी नहीं रहती थी। जैसे ही वह चला जाता, कोई और उठ खड़ा होता और उसे भर देता। कबीला छिपकली की तरह था। अगर वह अपनी पूंछ खो बैठता तो वह जल्दी ही दूसरी उगा लेता।
ओकोनक्वो ये बातें जानता था। वह जानता था कि वह कबीले में न्याय का प्रबंध करने वाली नौ नकाबपोश आत्माओं के बीच अपना स्थान खो बैठा था। वह उस नए धर्म के विरुद्ध अपने जुझारू कबीले का नेतृत्व करने का अवसर खो बैठा था, जो उसे बताया गया था, धीरे-धीरे मजबूत होता जा रहा था। वह उन बरसों को खो बैठा था जब वह कबीले की सबसे ऊंची पदवियां ले सकता था। लेकिन इनमें से कुछ नुकसान ऐसे थे जो दोबारा ठीक किए जा सकते थे। उसने ठान रखी थी कि उसकी वापसी पर लोग गौर करें। वह धूम-धड़ाके से लौटेगा और जाया हुए सात वर्षों को फिर से पूरा कर लेगा।
निष्कासन के पहले साल ही से उसने अपनी वापसी की योजना बनानी शुरू कर दी थी। पहला काम जो वह करेगा, वह था अपने अहाते को फिर से और भी शानदान ढंग से बनाना। वह पहले वाले कोठार से बड़ा कोठार बनाएगा और दो नई पत्नियों के लिए झोपड़ियां खड़ी करेगा। फिर वह अपने बेटों को ओजो समाज में दीक्षित करके अपनी सम्पत्ति का प्रदर्शन करेगा। कीले में सिर्फ असली गण्य-मान्य व्यक्ति ही ऐसा कर पाते थे। ओकोनक्वो साफ-साफ देखता कि उसे कितने सम्मान से देखा जाएगा और वह खुद को इलाके की सबसे बड़ी पदवी ग्रहण करते हुए देखता।
जैसे-जैसे निष्कासन के बरस एक-एक करके बीतते गए उसे महसूस होने लगा कि उसका ची अब पिछली विपदा की भरपाई कर रहा था। उसके यैम के भंडार में भरपूर वृद्धि हुई, सिर्फ उसकी मातृभूमि में ही नहीं, बल्कि उमूओफिया में भी, जहां इसका मित्र उन्हें साल-दर-साल बटाईदारों को देता रहा था।
फिर उसके पहले बेटे की दुखद घटना हुई थी। पहले-पहल ऐसा लगा था कि वह उसके मनोबल के लिए बहुत भारी पड़ेगी। लेकिन उसका मनोबल धक्का खा कर फिर उठा खड़़ा होने वाला था और अंत में ओकोनक्वो अपने दुख पर विजय पाने में सफल हो गया था। उसके पांच और बेटे थे और वह उन्हें कबीले के तौर-तरीकों पर पालने वाला था। उसने अपने पांचों बेटों को बुलवा भेजा और वे आकर उसकी ओबी में बैठ गए। उनमें से सबसे छोटा चार बरस का था।
‘तुम सब ने अपने भाई का भारी घिनौनापन देख लिया है। अब वह न तो मेरा बेटा है, न तुम्हारा भाई। मैं बेटा सिर्फ उसी को मानूंगा जो मर्द हो, जो मेरे लोगों के बीच सिर उठा कर रह सके। अगर तुम में से किसी को औरत बनना पसन्द हो तो वह अभी न्वोये का रास्ता पकड़े, जब मैं जिन्दा हूं ताकि मैं उसे शाप दे सकूं। अगर तुम मेरे मरने के बाद मेरे खिलाफ जाओगे तो मैं तुम्हारे पास आऊंगा और तुम्हारी गर्दन तोड़ दूंगा।’
ओकोनक्वो अपनी बेटियों के मामले में बड़ा भाग्यशाली था। वह कभी यह खेद करते नहीं थकता था कि एजिन्मा लड़की थी। उसके सारे बच्चों में सिर्फ वही थी जो उसकी हर मनोदशा को समझती थी। जैसे-जैसे वर्ष बीतते गए थे, उनके बीच हमदर्दी का एक नाता कायम हो गया था।
एजिन्मा अपने बाप के निष्कासन के दौरान बड़ी हुई और अम्बाण्टा की सबसे सुन्दर युवतियों में गिनी जाने लगी। उसे सुन्दरता का बिल्लौर कहते थे, जैसे उसकी मां अपनी जवानी में कही जाती थी। वह छोटी-सी बीमार लड़की जिसने अपनी मां के मन में इतनी चिन्ता पैदा की थी, लगभग रातों-रात एक स्वस्थ फुर्तीली युवती में तब्दील हो गई थी। यह सच है कि उसे अवसाद के दोरे पड़ते थे, जब वह किसी गुस्साए कुत्ते की तरह हरेक को काटने को दौड़ती। ऐसी मन:स्थितियां अचानक और बिना किसी प्रकट कारण के उस पर हावी हो जातीं। लेकिन वे बहुत विरल और अल्पजीवी थीं। जब तक वे बनी रहतीं, वह अपने पिता के सिवा और किसी को बरदाश्त न कर पाती।
ओकोनक्वो ये बातें जानता था। वह जानता था कि वह कबीले में न्याय का प्रबंध करने वाली नौ नकाबपोश आत्माओं के बीच अपना स्थान खो बैठा था। वह उस नए धर्म के विरुद्ध अपने जुझारू कबीले का नेतृत्व करने का अवसर खो बैठा था, जो उसे बताया गया था, धीरे-धीरे मजबूत होता जा रहा था। वह उन बरसों को खो बैठा था जब वह कबीले की सबसे ऊंची पदवियां ले सकता था। लेकिन इनमें से कुछ नुकसान ऐसे थे जो दोबारा ठीक किए जा सकते थे। उसने ठान रखी थी कि उसकी वापसी पर लोग गौर करें। वह धूम-धड़ाके से लौटेगा और जाया हुए सात वर्षों को फिर से पूरा कर लेगा।
निष्कासन के पहले साल ही से उसने अपनी वापसी की योजना बनानी शुरू कर दी थी। पहला काम जो वह करेगा, वह था अपने अहाते को फिर से और भी शानदान ढंग से बनाना। वह पहले वाले कोठार से बड़ा कोठार बनाएगा और दो नई पत्नियों के लिए झोपड़ियां खड़ी करेगा। फिर वह अपने बेटों को ओजो समाज में दीक्षित करके अपनी सम्पत्ति का प्रदर्शन करेगा। कीले में सिर्फ असली गण्य-मान्य व्यक्ति ही ऐसा कर पाते थे। ओकोनक्वो साफ-साफ देखता कि उसे कितने सम्मान से देखा जाएगा और वह खुद को इलाके की सबसे बड़ी पदवी ग्रहण करते हुए देखता।
जैसे-जैसे निष्कासन के बरस एक-एक करके बीतते गए उसे महसूस होने लगा कि उसका ची अब पिछली विपदा की भरपाई कर रहा था। उसके यैम के भंडार में भरपूर वृद्धि हुई, सिर्फ उसकी मातृभूमि में ही नहीं, बल्कि उमूओफिया में भी, जहां इसका मित्र उन्हें साल-दर-साल बटाईदारों को देता रहा था।
फिर उसके पहले बेटे की दुखद घटना हुई थी। पहले-पहल ऐसा लगा था कि वह उसके मनोबल के लिए बहुत भारी पड़ेगी। लेकिन उसका मनोबल धक्का खा कर फिर उठा खड़़ा होने वाला था और अंत में ओकोनक्वो अपने दुख पर विजय पाने में सफल हो गया था। उसके पांच और बेटे थे और वह उन्हें कबीले के तौर-तरीकों पर पालने वाला था। उसने अपने पांचों बेटों को बुलवा भेजा और वे आकर उसकी ओबी में बैठ गए। उनमें से सबसे छोटा चार बरस का था।
‘तुम सब ने अपने भाई का भारी घिनौनापन देख लिया है। अब वह न तो मेरा बेटा है, न तुम्हारा भाई। मैं बेटा सिर्फ उसी को मानूंगा जो मर्द हो, जो मेरे लोगों के बीच सिर उठा कर रह सके। अगर तुम में से किसी को औरत बनना पसन्द हो तो वह अभी न्वोये का रास्ता पकड़े, जब मैं जिन्दा हूं ताकि मैं उसे शाप दे सकूं। अगर तुम मेरे मरने के बाद मेरे खिलाफ जाओगे तो मैं तुम्हारे पास आऊंगा और तुम्हारी गर्दन तोड़ दूंगा।’
ओकोनक्वो अपनी बेटियों के मामले में बड़ा भाग्यशाली था। वह कभी यह खेद करते नहीं थकता था कि एजिन्मा लड़की थी। उसके सारे बच्चों में सिर्फ वही थी जो उसकी हर मनोदशा को समझती थी। जैसे-जैसे वर्ष बीतते गए थे, उनके बीच हमदर्दी का एक नाता कायम हो गया था।
एजिन्मा अपने बाप के निष्कासन के दौरान बड़ी हुई और अम्बाण्टा की सबसे सुन्दर युवतियों में गिनी जाने लगी। उसे सुन्दरता का बिल्लौर कहते थे, जैसे उसकी मां अपनी जवानी में कही जाती थी। वह छोटी-सी बीमार लड़की जिसने अपनी मां के मन में इतनी चिन्ता पैदा की थी, लगभग रातों-रात एक स्वस्थ फुर्तीली युवती में तब्दील हो गई थी। यह सच है कि उसे अवसाद के दोरे पड़ते थे, जब वह किसी गुस्साए कुत्ते की तरह हरेक को काटने को दौड़ती। ऐसी मन:स्थितियां अचानक और बिना किसी प्रकट कारण के उस पर हावी हो जातीं। लेकिन वे बहुत विरल और अल्पजीवी थीं। जब तक वे बनी रहतीं, वह अपने पिता के सिवा और किसी को बरदाश्त न कर पाती।
हार्पर कॉलिंस से प्रकाशित ‘चीजें बिखरती हैं’ (थिंग्स फॉल अपार्ट) का एक अंश। अनुवाद: नीलाभ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें