रामलीला से लौटकर खाना खाता और पापा के साथ सोने के लिए बिस्तर पर चला जाता। लेकिन, कानों में काफी देर तक वही नगाड़ों की नाद, नर्तकियों की आवाज और शोर गूंजते रहते। करवट बदलता रहता और पता नहीं चल पाता कि कब नींद आ गई।
(जमाना बदल गया) |
यहीं से शुरू होती प्लानिंग। कोई कहता कि आज दोपहर में ही हरिहरगंज बाजार घूमकर दशहरे मेले का मुआयना कर लेना है तो कोई कहता कि दिन में क्या होगा। कोई मेला तो लगा नहीं होगा। वही, फोफीवाले पीं-पीं करके बेच रहे होंगे। वैद्यनाथ की दुकान पर मिठाइयां बिक रही होंगी और एक्का-दुक्कासब्जी वाले चिचिया रहे होंगे।
दूसरा कहता- नहीं यार, ऐेसी बात नहीं है। चलो, मान भी लेते हैं कि दोपहर में वहां कोई नहीं होगा लेकिन पापा को क्या मालूम कि हम बाजार गए हैं याऔर कहीं। अरे चलते हैं न, हरिहरगंज मेले में ठीक लगा तो ठीक वरना, संडा तक हो आएंगे।
नहीं यार, ऐसा करना ठीक नहीं रहेगा। पापा को पता चल गया तो खूब खिंचाई होगी। विश्वास खत्म होगा सो अलग से।
हां भाई, ये तो है। फिर भी देखते हैं हरिहरगंज चलके।
क्या दोपहर में पापा बाजार जाने देंगे?
अरे नहीं, मां से पूछ के चले जाएंगे न। सब्जी लाने के बहाने।
हां, यह ठीक रहेगा।
मुंह धोकर (ब्रश)
घर लौटते फिर सभी स्थितियों पर नजर रखनी शुरू कर देते। लोगों के बीच ज्यादा मृदुभाषी बन जाते और ताक में रहते कि अपने काम की बात कब छेड़ें। मौके मिलते ही कहते कि मां को कहते कि आज सब्जी लाने के लिए दोपहर में ही भेज देना। शाम में जाने का मन नहीं करता है।
भीड़ होती है। दोस्त भी किसी प्रकार घर में बहाने बनाते। और हम ज्यादातर दोस्त परिजनों को झांसा देने में कामयाब हो जाते।
अनुमति मिलते ही शुरू हो जाती साइकिल की झड़ाई-पोंछाई। कुलमिलाकर साइकिल को चमका देते। फिर जैसे ही देखते ही पापा कहीं बाहर जा रहे हैं झोला उठाते और सब्जी लाने जाने के लिए तैयार हो कर निकल लेते। साइकिलके पैंडिल तक पांव तो जाते नहीं थे सो उछल-उछलकर उसे दबाते या हिप को इधर-उधर हिलाकर पैंडिल तक पहुंचने की कोशिश करते।
हरिहरगंज जाते और फिर वहां से न जाने कितने दोस्तों के घरों पर दस्तक देते हुए टोली तैयार करके संडा निकल जाते। इस बीच न तो कुछ खरीदारी होती न ही कोई मेला-बताशा ही देख पाते। लेकिन, फक्कड़ की तरह घूमने में अजब ही मजा आता। दोस्तों से साइकिल की रेस लगाते और हंसी-चुटकुले सुनते-सुनाते। इस बीच भूल जाते कि जिस काम के बहाने चौकड़ी भरने आए हैं वह काम क्या है?
जब शाम होने लगती तो घर लौटने की चिंता सताती और तब हाथ में लटका झोला याद दिलाता कि सब्जी लेनी थी। फिर आपाधापी शुरू होती और जल्दी-जल्दी सब्जी खरीदकर घर की ओर रवाना होते। रास्ते में जो बच्चे मिलते उनसे पूछते कि पापा घर आए हैं या नहीं। अगर, वे बता देते कि अभी नहीं तो साइकिल की स्पीड तेज हो जाती। अगर हां हो लगता जैसे रात हो जाती तो अच्छा था। घर पहुंचकर पापा से सामना होते ही बहानेबाजी शुरू हो जाती। कई बार डांट खाकर ही मुक्ति मिल जाती तो कई बार हल्की-फुल्की ठुकाई भी होती।
लेकिन, हम क्या इससे बाज आ जाते। आखिर हम तो हम हैं।
अगले दिन वही प्रक्रिया दुहराई जाती लेकिन, उसका स्वरूप दूसरा होता। बहाने दूसरे होते और रंगा दूसरा होता। कभी-कभी समय भी।
क्रमशः जारी