बुधवार, 12 अक्टूबर 2011

जोंक

कवि मन
जानते हैं आप
जोंक के बारे में
देखा भी होगा।
कितनी बार खेतों में
कीचड़ में, 
कभी-कभी सड़क पर भी
रेंगते हुए...। 
जमाना बदल गया है
जोंक गांव से निकलकर
शहरों में आ बसे हैं
बड़े-बड़े दफ्तरों में। 
उनके पैर निकल आए हैं
कभी-कभी दौड़ते भी हैं
लेकिन
तब
जब उन्हें किसी से चिपकना होता है। 
चाहे कुर्सी से
या कुर्सी बनाने वाले से।
उनके पिलपिले शरीर में
सिर और चेहरे ने
आकार ले लिया है। 
सरकते हैं,  खिसकते हैं
पर सीट के इर्दगिर्द। 
जो नहीं बदल पाया
उनके साथ वह है नमक
का रिश्ता
जैसे ही नमक की बात आती है
वो तड़पते हैं
बेहद दर्द के साथ
और संपर्क में आते ही तोड़ देते हैं दम
पहले की तरह।

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