गुरुवार, 17 अक्टूबर 2024

अंचल में समृद्ध होता हिंदी साहित्य व कविताओं का कलरव

बाएं से... भाई राजकुमार जी, नागेंद्र जी,
मैं, धनंजय जयपुरी जी व अनुज बेचैन जी
पत्रकारिता को साहित्य साधना का विस्तार कहा जाए, तो अनुचित नहीं होगा। हमने ऐसा कोई पत्रकार नहीं देखा, जिसमें भाषा व साहित्य के प्रति प्रेम नहीं रहा हो। इसलिए, साहित्यकारों व पत्रकारों के बीच संबंध सहज हो जाता है। औरंगाबाद की साहित्यिक विरादरी से बड़े पापा का गहरा लगाव रहा। पेशेवर प्रतिबद्धताओं और अल्पकालिक ग्राम्य प्रवासों के कारण उस विरादरी से अपना संबंध दूर का रहा। लेकिन, अगस्त में जब गांव गया तो बाल सखा नागेंद्र केसरी ने जिले के कुछ उम्दा साहित्यकारों से मुलाकात करवाई, जो अपनी रचनाओं के जरिये राष्ट्रीय स्तर पर अमिट छाप छोड़ रहे हैं। 

बिहार जैसे प्रांत जहां रोजगार के अवसर कम उपलब्ध हैं, वहां साहित्य को जीवित रखना, उसकी साधना करना और संगठन को सक्रिय रखना बड़ी चुनौती से कम नहीं। हम राष्ट्रीय राजधानी में रहने वाले लोग आठ-नौ घंटे की शिफ्ट के बाद थक जाते हैं। कुछ और करने का मन नहीं करता। लेकिन, नागेंद्र भाई जैसे लोग दस घंटे की ड्यूटी के बाद रोजाना कम के कम दो घंटे साहित्य को जरूर देते हैं। नागेंद्र भाई साहित्यिक पृष्ठभूमि से नहीं आते... शुरुआत में हम दोनों विज्ञान के विद्यार्थी रहे। अब वह स्वास्थ्य प्रबंधन की जिला स्तरीय टीम में उच्चपदस्थ पदाधिकारी हैं। जिम्मेदारियां बड़ी हैं और नागेंद्र भाई उन्हें संतुलित रखने की क्षमता व काबलियत हासिल कर चुके हैं। राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक संस्था शब्दाक्षर में राष्ट्रीय स्तर की जिम्मेदारी रखते हैं। राष्ट्रीय स्तर के कई कवि सम्मेलनों में अपनी कविताओं का जादू बिखेर चुके हैं। श्रीराम जन्मभूमि अयोध्या में अभी हाल ही में कवि सम्मेलन में खूब वाह-वाही बटोर चुके हैं।
इस बार गांव की यात्रा के दौरान करीब घंटाभर साहित्यिक विरादरी के बीच गुजरा। यकीन, मानिए यह वक्त जीवन के चुनिंदा आनंददायक लम्हों में से एक था। हिंदी साहित्य की लेखन परंपरा से लेकर मौजूदा लेखन धारा तथा बोली से भाषा के विकास के क्रम में मगही का योगदान और भविष्य जैसे विषयों पर सुधी चर्चा हुई। जिला हिंदी साहित्य परिषद के योगदान के प्रकाशित चार पुस्तकें मुझे भेंट की गईं। बिना पढ़े उनके बारे में कुछ लिखना नहीं चाहता था, इसलिए करीब दो महीने लग गए। धनंजय जयपुरी जी जिले के सशक्त साहित्यिक हस्ताक्षर हैं। उनकी कविताएं वर्षों से पढ़ता रहा हूं। इस बार उन्होंने कहानी में उम्दा प्रदर्शन किया है। कहानी अपनी-अपनी, जयपुरी जी के 15 कथाओं का संग्रह है। जयपुरी उपनाम से यह भ्रांति हो सकती है कि वह जयपुर के रहने वाले हैं, लेकिन यह बता दूं कि वह खांटी औरंगाबादी हैं, जयपुर उनके गांव का नाम है। जयपुरी जी की कहानियां बदलते आंचलिक समाज की दास्तां हैं। अपनी पहली ही कहानी नहले पे दहला में वह बहुत ही बारीकी से इस बदलाव को चित्रित करते हैं। वह दिखाते हैं कि चोर व ठग अब फटे-पुराने कपड़े और दाढ़ी वाले नहीं रह गए, बल्कि जींस-पैंट व टॉप वाले हो गए हैं। 
भाई नागेंद्र जी की शतचंडी चालीसा उन विलुप्त होते देवस्थानों को कागजबद्ध करने का प्रयास कहा जा सकता है, जिन पर दशकों तक अंचल की अटूट आस्था रही है। बुजुर्ग लोग आज भी मां शतचंडी को सतखंडी कहते हैं। मेरी मां सतखंडी के नाम से ही उन्हें जानती हैं। कभी गई नहीं, लेकिन दर्शन की अभिलाषा है। वह मानने के लिए कतई तैयार नहीं कि मेरी माता शतचंडी व उनकी माता सतखंडी एक ही हैं। भाई नागेंद्र जी का यह प्रयास आगामी पीढ़ियों, खासकर जिले से बाहर रहने वाली पीढ़ियों को अटूट धार्मिक आस्था के एक अहम स्थल को संरक्षित रखने के लिए प्रेरित करेगा। वीर शिरोमणि प्रताप नारायण सिंह उर्फ बच्चा बाबू का काव्य ग्रंथ कैकेयी अद्भुत है। सात सर्गों वाली इस रचना के जरिये बच्चा बाबू ने रानी कैकेयी के उज्ज्वल पक्ष को पाठकों के सामने रखने की सरस कोशिश की है। वरना, हम पौराणिक ग्रंथों के जरिये उन्हें प्रभु श्रीराम को वन भेजने वाली माता के रूप में जानते हैं। प्रेम शंकर प्रेमी जी का नाटक राजा नारायण सिंह औरंगाबाद जिले के पवई रियासत की कहानी है, जहां के राजा नारायण सिंह ने अपनी प्रजा के हित में अंग्रेजों को लगान देने से इन्कार कर दिया था। चौहानों का गढ़ पवई स्वतंत्रता की लड़ाई के अहम केंद्रों में से एक रहा। सौभाग्यवश उस राजघराने के वारिस बबुआ जी से करीबी संबंध रहा। वह हमारे मित्र के रिश्तेदार भी थे। मुझ से भी बहुत स्नेह करते थे। छात्र दिनों में वह हमारे संगठन के संरक्षक भी थे।

बुधवार, 16 अक्टूबर 2024

मेरा गांव, मेरा देस...

मेरे गांव की धरती...
मौसम बदलने लगा है। दिल्ली-एनसीआर में रहने वाले लोग ठंड और स्मॉग की आमद का बेमन से इस्तकबाल कर रहे हैं। लेकिन, बिहार में मौसम एक महीने पहले ही बदल गया था। एक लंबे अरसे बाद अगस्त व सितंबर में लगातार दो बार गांव जाने का अवसर मिला। सावन में कुलदेवता की पूजा होती है और कुछ दिनों बाद ही रक्षा बंधन त्योहार मनता है। धान की रोपाई खत्म हो गई थी और लोग रक्षा बंधन की प्रतीक्षा कर रहे थे। कुलदेवता की श्रद्धापूर्वक पूजा के बाद हम सपरिवार रिश्तेदारी के लिए निकले। सबसे पहले हरसूब्रह्म धाम पहुंचे। मेरी बड़ी फुआ और मामी ने मन्नत (भारा) मांग रखी थी और जब भारा उतरने की बारी आई तो दोनों इस नश्वर संसार में नहीं रहीं। भभुआं जिले के चैनपुर के पास बाबा का धाम किसी गढ़ पर है। बहुत ही भव्य दर्शन हुए। मन प्रसन्न हो गया। हमें जिन पंडितजी का सानिध्य मिला, वे भी संतोषी निकले। इत्मिनान से दर्शन करवाए, हवन करवाया और बदले में श्रद्धा के अनुसार दान देने की बात कही। हमने जो दिया उसे रख लिया। एक अन्य पंडितजी ने भूत-प्रेत बाधा की बात शुरू की, लेकिन हरसूब्रह्म बाबा पर अटूट आस्था की बात कहते हुए हमने उसे बढ़ने ही नहीं दिया। 
हरसू ब्रह्म बाबा
मामा गांव में संतन भैया, सरयू भैया,
रामेश्वर भैया व बच्चों के साथ 
वापसी में कुदरा के पास मुंजिया अपने मामा गांव जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। एक लंबे अरसे बाद पहुंचा था। संतन भैया रिश्ते में ममरे भाई हैं। मां से सिर्फ दो साल छोटे। इसलिए, फुआ-भतीजे से अधिक भाई-बहन का रिश्ता है। मामा लोग तो मां को बेटी जैसा प्यार देते थे। मां वैसे तो संतन भैया और उनके भाइयों की फुआ है, लेकिन उनकी संताने भी मां को फुआ ही कहती हैं। यहां तक कि परपोती भी मां को फुआ ही कहती है। संतन भैया नाम के अनुरूप संत, पूरे इलाके के मानिंद लोगों के भैया... मुझपर तो उनका कुछ खास ही स्नेह रहा है। मेरी गलतियों और बदमाशियों को भी हंसते हुए पचा जाते हैं... माफ कर देते हैं। उनसे छोटे सरयू भैया हैं, जिनके अंदर प्यार की अविरल धारा बहती है। छोटे मामा जी के बेटे रामेश्वर भैया, इतने शालीन कि बड़े होने के बावजूद हमसभी के पसंद-नापसंद का पूरा ध्यान रखते हैं। रवींद्र भैया को दो साल पहले हमने हादसे में खो दिया था। उनकी संतानें अच्छा कर रही हैं। मामा के यहां कुछ घंटों का ठिहा रहा, क्योंकि इस यात्रा में अधिक समय अपनी छोटी फुआ के यहां बिताने का तय था। 
खान-पीना के बाद हम विंढमगंज के लिए रवाना हो गए। दूरी कम करने के चक्कर में एनएच को छोड़कर हमने नवीनगर होते हुए स्टेट हाईवे को साधने का प्रयास किया, लेकिन रास्ता भटक गए और दूरी तथा गंतव्य तक पहुंचने का समय बढ़ गया। रात करीब 10 बजे हम विंढमगंज पहुंचे। खाना खाकर सो गए। अगले दिन बंशीधर महाराज के दर्शन होने थे। वहीं कथा सुनने का कार्यक्रम था। बंशीधरनगर रेलवे स्टेशन भी है, जिसे पहले नगर ऊंटारी के नाम से जाना जाता था। पलामू जिले में आता है। लेकिन, बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ से घिरा हुआ है। यहां भगवान श्रीकृष्ण व मां राधे की 32 मन सोने की अलौकिक प्रतिमा है। भव्य दर्शन हुए। विद्वान ब्राह्मण से सत्यनारायण स्वामजी की कथा सुनने का अवसर प्राप्त हुआ। आनंद आ गया। प्रसाद में पेड़ा था... वैसा पेड़ा हमने पहले कभी नहीं खाया। सौंधी खुशबू वाले खोया ऐसा कि मुंह में जाते ही घुल जाए और काफी देर तक उसका स्वाद मन पर तारी रहे। 
कथा सुनतीं फुआ, मां, पंकज भैया व भाभी
पूजा से लौटने के बाद फुआ के बड़े लड़के पंकज भैया के यहां खाना-पीना हुआ। शाम में उनके गांव गए, जो पास में ही था। वैसे तो पलामू के गांवों में सिंचाई के अभाव में परीत जमीन बहुतायत मिल जाती है, लेकिन उनके गांवों में कुछ ज्यादा ही थी। गांव में मेहनतकश इंसान दिखाई दिए, बच्चे कम दिखे। पता चला, लोग बच्चों को पढ़ाने के लिए विंढमगंज, गढ़वा या डालटनगंज में रहते हैं। बिहार के भी गांवों की यही स्थिति है। मेरा गांव औरंगाबाद से महज छह किलोमीटर है, लेकिन बड़ी संख्या में युवा किसान अपने बच्चों की शिक्षा के लिए जिला मुख्यालय में किराए के मकान में रहते हैं। उसी दिन गांव वापसी का कार्यक्रम था, लेकिन मन ने फुआ, फुफेरे भाई व भाभी के साथ कुछ और वक्त बिताने की मांग की। रुक गया, जो एक तरह से बहुत अच्छा रहा। रात नौ बजे के करीब इतनी तेज बारिश हुई कि कहना ही क्या। अगर यह बारिश रास्ते में मिलती तो हमारी गाड़ी दुर्घटनाग्रस्त हो सकती थी। 
देव मंदिर के भीतर...
देव सूर्य मंदिर
अगले दिन, सुबह सात बजे घर से निकले और करीब 11 बजे गांव पहुंच गए। रविवार का दिन था। मां ने देव मंदिर में भगवान भास्कर के दर्शन की इच्छा जताई। हम नहा-धोकर फिर से तैयार हो गए और भगवान भास्कर के दरबार में हाजिर हो गए। साथ में दो भतीजियां भी थीं। बहुत शानदार दर्शन हुए। बेटे ने अपने हॉस्टल से भगवान के ऑनलाइन दर्शन किए। रात में ट्रेन थी। खा-पीकर निकले और हम फिर अपनी कर्मस्थली पहुंच गए। (शेष अगले भाग में...)