मंगलवार, 19 मई 2020

जिंदगी की तलाश में लगाते रहे मौत से बाजी

-कुणाल देव- 

क दंपती छुटि्टयां बिताने श्रीलंका गया था। इस बीच लॉकडाउन हो गया और उसकी छुट्टी इतनी लंबी होती जा रही है कि होटल का जो कमरा कभी उसके लिए सुकून का खजाना था अब उदासी का डेरा है। होटल के कमरे में पिछले करीब दो महीने से बंद रहने के बाद उसे समुद्र की उनमुक्त लहरों से जलन होने लगी है। घर लौटने व अपने परिजनों से मिलने के लिए वह कुछ भी लुटाने को तैयार है। अब जरा सोचिए कि आपके पास कुछ भी न हो- न खाने के लिए और न दिल बहलाने के लिए तो आप क्या करेंगे। घर-परिवार से हजारों किलोमीटर दूर कमाने और उसे लुटाने के बाद प्रवासी कामगारों के पास जड़ों की ओर लौटने के अलावा क्या विकल्प रह जाता है।

जड़ों की ओर-2


         फेसबुक पर एक वीडियो देख रहा था। एक बेकल महिला लगातार रोए जा रही है। वह अपनी बहन के यहां दिल्ली आई थी। इस बीच लॉकडाउन हो गया। पति व बच्चे सासाराम (बिहार) में थे। इस बीच एक दिन उसे सूचना मिली कि उसके पति अब नहीं रहे। जरा सोचिए उसके दिल पर क्या बीता होगा। झोले में जरूरी सामान उठाकर उस ठिकाने पर चल पड़ी जहां से घर लौटने के लिए संसाधन मिलने की उम्मीद थी। बार-बार रोए जा रही है और लोगों से मिन्नते कर रही है कि किसी प्रकार उसे सासाराम तक पहुंचा दिया जाए, ताकि वह अपने पति का अंतिम दर्शन कर सके। यकीन मानिए, किसी की जिंदगी में इससे बुरा कुछ भी नहीं हो सकता।
            मैं यह नहीं कहता कि प्रवासी कामगार ही सर्वथा सही होते हैं, लेकिन अमूमन बर्दाश्त उन्हें ही करना पड़ता है। चाय देने वाले छोटू से लेकर रिक्शा वाले और सब्जी वाले भइया के साथ होने वाला बर्ताव किसी से छुपा नहीं है। इनमें से हजारों ऐसे हैं, जिनके पास छत नहीं होता। वे हर रात नीले आसमान तले गुजारने को मजबूर होते हैं। कोरोना के इस दौर में तो उनके पास नीले आसमान का भी सहारा नहीं रहा। ऐसे ही लोगों ने पैदल घरों का रुख किया और इसके बाद प्रवासी कामगारों की अकुलाहट तेज हो गई।

           जिस ट्रेन के जरिये प्रवासियों ने घर लौटने के सपना संजोया था, महाराष्ट्र में वही ट्रेन एक दिन उन पर चढ़ गई। अपना रास्ता लिए घरों को लौट रहे इन कामगारों को मुजफ्फरनगर में यमराज रूपी बस झपट्टा मारती हुई अपने साथ ले गई। मध्य प्रदेश में ट्रक पलटता है और कई कामगार अपनी आंखों में घर वापसी का सपना लिए स्वर्ग सिधार जाते हैं। गाजियाबाद के रामलीला मैदान में जुटे हजारों प्रवासियों में कोरोना संक्रमण का लेस मात्र भी भय नहीं दिखता। दरअसल, कोरोना ने इन्हें इतना भयभीत कर दिया है कि इनके दिलोदिमाग से भय जाता रहा। अब बस एक ही सुर है कि मरना भी है तो घर लौटकर।
           व्यक्ति जब असहाय हो जाता है तो वह दो ही लोगों को याद करता है मां और ईश्वर। ईश्वर का ठिकाना तो किसी कामगार को मालूम नहीं, लेकिन मां का ठिकाना तो उनका गांव ही है। इसलिए, वह अपनी इस बेहद पीड़ादायक घड़ी में उस जगह जाना चाहते हैं जहां उनकी मां रहती है। जो उनकी मातृभूमि है।

क्रमशः...

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