-कुणाल देव-
पंजाब, हरियाणा, गुजरात, मुंबई, दिल्ली या कोलकाता... आज कामगारों की दशा एक जैसी है। भूखे पेट और नंगे पांव सिर पर मोटरी लादकर बाल-बच्चों के साथ पैदल ही गांव-घर लौट रहे कामगारों की व्यथा-कथा पत्थरदिल को भी मोम बना दे रही है। उनके घर लौटने की कहानी बेहद दुख है, लेकिन घर वापसी के बाद की चिंता उससे भी ज्यादा गंभीर। समझना मुश्किल नहीं कि अगर गांव में जीने का अवलंब होता तो ये कामगार हजारों किलोमीटर दूर अपनी रोटी क्यों तलाशते। फिर इन लाखों कामगारों के आने से जहां शहरों की आर्थिक व सामजिक व्यवस्था बदल गई, वहीं इनके न रहने से गांवों की व्यवस्था ने भी नया आकार ले लिया है। मिट्टी को छोड़कर जिस प्रकार कामगारों ने लोहे के कल-कारखानों को रोटी का जरिया बना लिया, उसी प्रकार गांव के बचे-खुचे किसानों ने भी जीव-जंतुओं की बजाय अपने दरवाजे पर मशीनों को खड़ा कर दिया। खुलकर कहें तो ये कामगार जिस जिंदगी और रोटी की उम्मीद में गांव लौट रहे हैं, वहां भी अब इसकी गुंजाइश कम रह गई है। किसानों का दिल बड़ा है। अपनी रोटी बांटना और बेबसों को सहारा देना उनकी परंपरा है। लेकिन, यह भी सच है कि जब खुद का पेट भरा हो तभी दान-पुण्य अच्छा लगता है। भूखे पेट दान करने वाले विरले होते हैं।
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कामगारों की गांव वापसी का रेला आज दुनिया देख रही है, लेकिन यह भी कटु सत्य है कि पिछले 30-35 वर्षों में धीरे-धीरे उनके पलायन ने एक समय ग्रामीण अर्थव्यवस्था की कमर ही तोड़ दी थी। कृषक पुत्र हूं। खुद किसानी भी की है। इसलिए, अपना वास्ता भोगे हुए यथार्थ से ही है। हम आदर्शोन्मुख यथार्थ की तो कल्पना भी नहीं कर सकते। बचपन में हमने अपने घर में बड़े-बड़े छह बैल, चार-चार मुर्रा भैसें और देसी गायों को निहारा है। मध्यम श्रेणी के किसान के लिए यह गौसंपदा पर्याप्त थी। खेती-गृहस्थी का काम सालोंभर चलता था। इसलिए, दो लोगों को सालभर का रोजगार भी मिला हुआ था। आठ महीने खेती का मौसम होता था और उन दिनों में रोजना औसतन छह-आठ लोगों की जरूरत होती है। कुल मिलाकर देखा जाए तो एक मध्यम श्रेणी का किसान पांच-छह लोगों के लिए सालोंभर का रोजगार पैदा करता था। यह बात दूसरी है कि खेती-किसानी में दूसरे कामों की तरह चमक-धमक नहीं थी।
बचपन में हमारे घर के प्रमुख सहायक थे- चंदेव राम। उनसे पहले और भी लोग रहे ही होंगे, लेकिन कुछ खास याद नहीं। हम उन्हें चंदेव चाचा या काका कहते थे। मेरे बाबाजी उन्हें बहुत मानते थे। इसलिए, बड़े पापा और पापा भी उनकी बात नहीं काटते थे। चंदेव चाचा का परिवार रहता भी था हमारे घर के बगल में ही। उनकी पांच संतानें हैं- तीन बेटियां और दो बेटे। नाती-पोता की संख्या के बारे में सही अंदाजा नहीं है। चंदेव चाचा के पास खेत नहीं था। इसलिए आय का कोई दूसरा स्रोत नहीं था। हमारे दूसरे प्रमुख सहयोगी नंदकिशोर काका की भी ऐसी ही स्थिति थी। लेकिन, दोनों ही सहयोगियों को परिवार चलाने में कोई कठिनाई नहीं हुई। बेटे-बेटियों के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को भी बहुत अच्छे से निभाया। चंदेव काका के बड़े बेटे यानी बनौधी भइया प्राइमरी स्कूल के मास्टर बने और हेडमास्टर होकर रिटायर हुए। बेटियां भी अच्छे घरों में ब्याही गईं। नाती-पोता भी योग्य स्थान पर हैं। सबकुछ अच्छा चल रहा था, लेकिन करीब 30-35 साल पहले वक्त ने करवट बदला।
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चंदेव चाचा की उम्र बढ़ती जा रही थी और घर की जिम्मेदारियों का बोझ बनौधी भइया संभालने लगे थे। इसलिए, उन्होंने रिटायरमेंट की घोषणा कर दी। नंदकिशोर काका भी बाद में रिटायर हो गए। हवा का रुख बदलने लगा था। गांव के कुछ युवक पंजाब भाग गए। कुछ दिनों बाद लौटे तो उनके शरीर पर पॉलिस्टर का चमचमाता कपड़ा, हाथों में ट्रांजिस्टर और बालों में सुगंधित तेल था। गांव के दूसरे मेहनतकश युवकों और लोगों को उनकी तरक्की भा गई। कुछ दिनों बाद जब पंजाब की कमाई खत्म हुई तो गांव के महाजन से ब्याज पर रुपये लेकर वे युवक लौटने लगे। गांव के कुछ और लोग भी उनके साथ हो लिए। काम पंजाब में भी किसानी का ही था, लेकिन मेहनताना के रूप में नकदी मिलती थी। कुछ दूसरी सुविधाएं भी। कुछ लोग तो वहां रुक गए, लेकिन कुछ लौट आए। जो लौट आए उनका गांव में कहां मन लगने वाला था। फिर दिल्ली, मुंबई और गुजरात की ओर निकल गए। औद्योगिक क्रांति का दौर था। उद्योग-धंधे तेजी से पनप रहे थे। इसलिए, इन महानगरों में कामगारों की पूछ थी। गांव में खेतिहर श्रमिकों की कमी की सबसे ज्यादा मार छोटे किसानों पर पड़ी। श्रमिकों की मुश्किलें और कृषि कार्य पर बढ़ती लागत का बोझ न उठा सकने वाले छोटे किसानों ने किसानी से तौबा करते हुए मजदूरी का दामन थाम लिया। बिल्कुल, प्रेमचंद के गोदान के गोबर की तरह।
खेती घाटे का सौदा तो थी ही, एक समय ऐसा भी आया कि वह बोझ बनने लगी। जिन किसानों के घरों में सदस्यों की संख्या ज्यादा थी, उन्होंने अपनी खेती बचाने के लिए कुछ सदस्यों को फैक्ट्रियों में काम करने के लिए भेज दिया। उत्तम खेती मध्यम बान, अधम चाकरी भीख निदान... लोकोक्ति झूठी साबित होने लगी। लेकिन, अनाज का विकल्प कहां तैयार होने वाला था। पैसे कमाने के बाद भी उससे पेट कहां भरने वाला था। यह बात भारत को उद्योगों के जरिये विकसित देशों की श्रेणी में खड़ा करने की कोशिश कर रहे नीति नियामकों को धीरे-धीरे समझ में आने लगी। गांव पर ध्यान दिया जाने लगा। सरकारें उद्योगों से छीनकर किसानों को श्रमिक लौटा नहीं सकती थीं, इसलिए खेती में मशीनों को लगा दिया। ट्रैक्टर ने दरवाजे से बैलों को गायब कर दिया। खेतों की जुताई आसान हो गई। किसानों की समस्या थोड़ी कम हुई। लेकिन, रोपाई, बोआई और कटाई की समस्या अपनी जगह बनी रही। फिर हारवेस्टर युग आया। कृषि उपकरणों पर छूट और सब्सिडी ने यंत्रों को किसानों के दरवाजे तक पहुंचा दिया और आज किसानी यंत्रजनित हो गई है। यानी, अब किसानी में श्रमिकों की उपयोगिता बेहद कम रह गई है। ऐसे में इतनी संख्या में कामगारों को खेती में समायोजित करना असंभव सा प्रतीत होता है और डर लगता है कि गांवों में कहीं भगदड़ की स्थिति पैदा न हो जाए।
समाप्त
पंजाब, हरियाणा, गुजरात, मुंबई, दिल्ली या कोलकाता... आज कामगारों की दशा एक जैसी है। भूखे पेट और नंगे पांव सिर पर मोटरी लादकर बाल-बच्चों के साथ पैदल ही गांव-घर लौट रहे कामगारों की व्यथा-कथा पत्थरदिल को भी मोम बना दे रही है। उनके घर लौटने की कहानी बेहद दुख है, लेकिन घर वापसी के बाद की चिंता उससे भी ज्यादा गंभीर। समझना मुश्किल नहीं कि अगर गांव में जीने का अवलंब होता तो ये कामगार हजारों किलोमीटर दूर अपनी रोटी क्यों तलाशते। फिर इन लाखों कामगारों के आने से जहां शहरों की आर्थिक व सामजिक व्यवस्था बदल गई, वहीं इनके न रहने से गांवों की व्यवस्था ने भी नया आकार ले लिया है। मिट्टी को छोड़कर जिस प्रकार कामगारों ने लोहे के कल-कारखानों को रोटी का जरिया बना लिया, उसी प्रकार गांव के बचे-खुचे किसानों ने भी जीव-जंतुओं की बजाय अपने दरवाजे पर मशीनों को खड़ा कर दिया। खुलकर कहें तो ये कामगार जिस जिंदगी और रोटी की उम्मीद में गांव लौट रहे हैं, वहां भी अब इसकी गुंजाइश कम रह गई है। किसानों का दिल बड़ा है। अपनी रोटी बांटना और बेबसों को सहारा देना उनकी परंपरा है। लेकिन, यह भी सच है कि जब खुद का पेट भरा हो तभी दान-पुण्य अच्छा लगता है। भूखे पेट दान करने वाले विरले होते हैं।
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बचपन में हमारे घर के प्रमुख सहायक थे- चंदेव राम। उनसे पहले और भी लोग रहे ही होंगे, लेकिन कुछ खास याद नहीं। हम उन्हें चंदेव चाचा या काका कहते थे। मेरे बाबाजी उन्हें बहुत मानते थे। इसलिए, बड़े पापा और पापा भी उनकी बात नहीं काटते थे। चंदेव चाचा का परिवार रहता भी था हमारे घर के बगल में ही। उनकी पांच संतानें हैं- तीन बेटियां और दो बेटे। नाती-पोता की संख्या के बारे में सही अंदाजा नहीं है। चंदेव चाचा के पास खेत नहीं था। इसलिए आय का कोई दूसरा स्रोत नहीं था। हमारे दूसरे प्रमुख सहयोगी नंदकिशोर काका की भी ऐसी ही स्थिति थी। लेकिन, दोनों ही सहयोगियों को परिवार चलाने में कोई कठिनाई नहीं हुई। बेटे-बेटियों के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को भी बहुत अच्छे से निभाया। चंदेव काका के बड़े बेटे यानी बनौधी भइया प्राइमरी स्कूल के मास्टर बने और हेडमास्टर होकर रिटायर हुए। बेटियां भी अच्छे घरों में ब्याही गईं। नाती-पोता भी योग्य स्थान पर हैं। सबकुछ अच्छा चल रहा था, लेकिन करीब 30-35 साल पहले वक्त ने करवट बदला।
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खेती घाटे का सौदा तो थी ही, एक समय ऐसा भी आया कि वह बोझ बनने लगी। जिन किसानों के घरों में सदस्यों की संख्या ज्यादा थी, उन्होंने अपनी खेती बचाने के लिए कुछ सदस्यों को फैक्ट्रियों में काम करने के लिए भेज दिया। उत्तम खेती मध्यम बान, अधम चाकरी भीख निदान... लोकोक्ति झूठी साबित होने लगी। लेकिन, अनाज का विकल्प कहां तैयार होने वाला था। पैसे कमाने के बाद भी उससे पेट कहां भरने वाला था। यह बात भारत को उद्योगों के जरिये विकसित देशों की श्रेणी में खड़ा करने की कोशिश कर रहे नीति नियामकों को धीरे-धीरे समझ में आने लगी। गांव पर ध्यान दिया जाने लगा। सरकारें उद्योगों से छीनकर किसानों को श्रमिक लौटा नहीं सकती थीं, इसलिए खेती में मशीनों को लगा दिया। ट्रैक्टर ने दरवाजे से बैलों को गायब कर दिया। खेतों की जुताई आसान हो गई। किसानों की समस्या थोड़ी कम हुई। लेकिन, रोपाई, बोआई और कटाई की समस्या अपनी जगह बनी रही। फिर हारवेस्टर युग आया। कृषि उपकरणों पर छूट और सब्सिडी ने यंत्रों को किसानों के दरवाजे तक पहुंचा दिया और आज किसानी यंत्रजनित हो गई है। यानी, अब किसानी में श्रमिकों की उपयोगिता बेहद कम रह गई है। ऐसे में इतनी संख्या में कामगारों को खेती में समायोजित करना असंभव सा प्रतीत होता है और डर लगता है कि गांवों में कहीं भगदड़ की स्थिति पैदा न हो जाए।
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