शुक्रवार, 22 मई 2020

शाख से टूटे हुए पत्तों का कोई सहारा नहीं होता...

-कुणाल देव-

पंजाब, हरियाणा, गुजरात, मुंबई, दिल्ली या कोलकाता... आज कामगारों की दशा एक जैसी है। भूखे पेट और नंगे पांव सिर पर मोटरी लादकर बाल-बच्चों के साथ पैदल ही गांव-घर लौट रहे कामगारों की व्यथा-कथा पत्थरदिल को भी मोम बना दे रही है। उनके घर लौटने की कहानी बेहद दुख है, लेकिन घर वापसी के बाद की चिंता उससे भी ज्यादा गंभीर। समझना मुश्किल नहीं कि अगर गांव में जीने का अवलंब होता तो ये कामगार हजारों किलोमीटर दूर अपनी रोटी क्यों तलाशते। फिर इन लाखों कामगारों के आने से जहां शहरों की आर्थिक व सामजिक व्यवस्था बदल गई, वहीं इनके न रहने से गांवों की व्यवस्था ने भी नया आकार ले लिया है। मिट्टी को छोड़कर जिस प्रकार कामगारों ने लोहे के कल-कारखानों को रोटी का जरिया बना लिया, उसी प्रकार गांव के बचे-खुचे किसानों ने भी जीव-जंतुओं की बजाय अपने दरवाजे पर मशीनों को खड़ा कर दिया। खुलकर कहें तो ये कामगार जिस जिंदगी और रोटी की उम्मीद में गांव लौट रहे हैं, वहां भी अब इसकी गुंजाइश कम रह गई है। किसानों का दिल बड़ा है। अपनी रोटी बांटना और बेबसों को सहारा देना उनकी परंपरा है। लेकिन, यह भी सच है कि जब खुद का पेट भरा हो तभी दान-पुण्य अच्छा लगता है। भूखे पेट दान करने वाले विरले होते हैं।

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जड़ों की ओर-3
         कामगारों की गांव वापसी का रेला आज दुनिया देख रही है, लेकिन यह भी कटु सत्य है कि पिछले 30-35 वर्षों में धीरे-धीरे उनके पलायन ने एक समय ग्रामीण अर्थव्यवस्था की कमर ही तोड़ दी थी। कृषक पुत्र हूं। खुद किसानी भी की है। इसलिए, अपना वास्ता भोगे हुए यथार्थ से ही है। हम आदर्शोन्मुख यथार्थ की तो कल्पना भी नहीं कर सकते। बचपन में हमने अपने घर में बड़े-बड़े छह बैल, चार-चार मुर्रा भैसें और देसी गायों को निहारा है। मध्यम श्रेणी के किसान के लिए यह गौसंपदा पर्याप्त थी। खेती-गृहस्थी का काम सालोंभर चलता था। इसलिए, दो लोगों को सालभर का रोजगार भी मिला हुआ था। आठ महीने खेती का मौसम होता था और उन दिनों में रोजना औसतन छह-आठ लोगों की जरूरत होती है। कुल मिलाकर देखा जाए तो एक मध्यम श्रेणी का किसान पांच-छह लोगों के लिए सालोंभर का रोजगार पैदा करता था। यह बात दूसरी है कि खेती-किसानी में दूसरे कामों की तरह चमक-धमक नहीं थी।
बचपन में हमारे घर के प्रमुख सहायक थे- चंदेव राम। उनसे पहले और भी लोग रहे ही होंगे, लेकिन कुछ खास याद नहीं। हम उन्हें चंदेव चाचा या काका कहते थे। मेरे बाबाजी उन्हें बहुत मानते थे। इसलिए, बड़े पापा और पापा भी उनकी बात नहीं काटते थे। चंदेव चाचा का परिवार रहता भी था हमारे घर के बगल में ही। उनकी पांच संतानें हैं- तीन बेटियां और दो बेटे। नाती-पोता की संख्या के बारे में सही अंदाजा नहीं है। चंदेव चाचा के पास खेत नहीं था। इसलिए आय का कोई दूसरा स्रोत नहीं था। हमारे दूसरे प्रमुख सहयोगी नंदकिशोर काका की भी ऐसी ही स्थिति थी। लेकिन, दोनों ही सहयोगियों को परिवार चलाने में कोई कठिनाई नहीं हुई। बेटे-बेटियों के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को भी बहुत अच्छे से निभाया। चंदेव काका के बड़े बेटे यानी बनौधी भइया प्राइमरी स्कूल के मास्टर बने और हेडमास्टर होकर रिटायर हुए। बेटियां भी अच्छे घरों में ब्याही गईं। नाती-पोता भी योग्य स्थान पर हैं। सबकुछ अच्छा चल रहा था, लेकिन करीब 30-35 साल पहले वक्त ने करवट बदला।

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       चंदेव चाचा की उम्र बढ़ती जा रही थी और घर की जिम्मेदारियों का बोझ बनौधी भइया संभालने लगे थे। इसलिए, उन्होंने रिटायरमेंट की घोषणा कर दी। नंदकिशोर काका भी बाद  में रिटायर हो गए। हवा का रुख बदलने लगा था। गांव के कुछ युवक पंजाब भाग गए। कुछ दिनों बाद लौटे तो उनके शरीर पर पॉलिस्टर का चमचमाता कपड़ा, हाथों में ट्रांजिस्टर और बालों में सुगंधित तेल था। गांव के दूसरे मेहनतकश युवकों और लोगों को उनकी तरक्की भा गई। कुछ दिनों बाद जब पंजाब की कमाई खत्म हुई तो गांव के महाजन से ब्याज पर रुपये लेकर वे युवक लौटने लगे। गांव के कुछ और लोग भी उनके साथ हो लिए। काम पंजाब में भी किसानी का ही था, लेकिन मेहनताना के रूप में नकदी मिलती थी। कुछ दूसरी सुविधाएं भी। कुछ लोग तो वहां रुक गए, लेकिन कुछ लौट आए। जो लौट आए उनका गांव में कहां मन लगने वाला था। फिर दिल्ली, मुंबई और गुजरात की ओर निकल गए। औद्योगिक क्रांति का दौर था। उद्योग-धंधे तेजी से पनप रहे थे। इसलिए, इन महानगरों में कामगारों की पूछ थी। गांव में खेतिहर श्रमिकों की कमी की सबसे ज्यादा मार छोटे किसानों पर पड़ी। श्रमिकों की मुश्किलें और कृषि कार्य पर बढ़ती लागत का बोझ न उठा सकने वाले छोटे किसानों ने किसानी से तौबा करते हुए मजदूरी का दामन थाम लिया। बिल्कुल, प्रेमचंद के गोदान के गोबर की तरह।
           खेती घाटे का सौदा तो थी ही, एक समय ऐसा भी आया कि वह बोझ बनने लगी। जिन किसानों के घरों में सदस्यों की संख्या ज्यादा थी, उन्होंने अपनी खेती बचाने के लिए कुछ सदस्यों को फैक्ट्रियों में काम करने के लिए भेज दिया। उत्तम खेती मध्यम बान, अधम चाकरी भीख निदान... लोकोक्ति झूठी साबित होने लगी। लेकिन, अनाज का विकल्प कहां तैयार होने वाला था। पैसे कमाने के बाद भी उससे पेट कहां भरने वाला था। यह बात भारत को उद्योगों के जरिये विकसित देशों की श्रेणी में खड़ा करने की कोशिश कर रहे नीति नियामकों को धीरे-धीरे समझ में आने लगी। गांव पर ध्यान दिया जाने लगा। सरकारें उद्योगों से छीनकर किसानों को श्रमिक लौटा नहीं सकती थीं, इसलिए खेती में मशीनों को लगा दिया। ट्रैक्टर ने दरवाजे से बैलों को गायब कर दिया। खेतों की जुताई आसान हो गई। किसानों की समस्या थोड़ी कम हुई। लेकिन, रोपाई, बोआई और कटाई की  समस्या अपनी जगह बनी रही। फिर हारवेस्टर युग आया। कृषि उपकरणों पर छूट और सब्सिडी ने यंत्रों को किसानों के दरवाजे तक पहुंचा दिया और आज किसानी यंत्रजनित हो गई है। यानी, अब किसानी में श्रमिकों की उपयोगिता बेहद कम रह गई है। ऐसे में इतनी संख्या में कामगारों को खेती में समायोजित करना असंभव सा प्रतीत होता है और डर लगता है कि गांवों में कहीं भगदड़ की स्थिति पैदा न हो जाए।

समाप्त

मंगलवार, 19 मई 2020

जिंदगी की तलाश में लगाते रहे मौत से बाजी

-कुणाल देव- 

क दंपती छुटि्टयां बिताने श्रीलंका गया था। इस बीच लॉकडाउन हो गया और उसकी छुट्टी इतनी लंबी होती जा रही है कि होटल का जो कमरा कभी उसके लिए सुकून का खजाना था अब उदासी का डेरा है। होटल के कमरे में पिछले करीब दो महीने से बंद रहने के बाद उसे समुद्र की उनमुक्त लहरों से जलन होने लगी है। घर लौटने व अपने परिजनों से मिलने के लिए वह कुछ भी लुटाने को तैयार है। अब जरा सोचिए कि आपके पास कुछ भी न हो- न खाने के लिए और न दिल बहलाने के लिए तो आप क्या करेंगे। घर-परिवार से हजारों किलोमीटर दूर कमाने और उसे लुटाने के बाद प्रवासी कामगारों के पास जड़ों की ओर लौटने के अलावा क्या विकल्प रह जाता है।

जड़ों की ओर-2


         फेसबुक पर एक वीडियो देख रहा था। एक बेकल महिला लगातार रोए जा रही है। वह अपनी बहन के यहां दिल्ली आई थी। इस बीच लॉकडाउन हो गया। पति व बच्चे सासाराम (बिहार) में थे। इस बीच एक दिन उसे सूचना मिली कि उसके पति अब नहीं रहे। जरा सोचिए उसके दिल पर क्या बीता होगा। झोले में जरूरी सामान उठाकर उस ठिकाने पर चल पड़ी जहां से घर लौटने के लिए संसाधन मिलने की उम्मीद थी। बार-बार रोए जा रही है और लोगों से मिन्नते कर रही है कि किसी प्रकार उसे सासाराम तक पहुंचा दिया जाए, ताकि वह अपने पति का अंतिम दर्शन कर सके। यकीन मानिए, किसी की जिंदगी में इससे बुरा कुछ भी नहीं हो सकता।
            मैं यह नहीं कहता कि प्रवासी कामगार ही सर्वथा सही होते हैं, लेकिन अमूमन बर्दाश्त उन्हें ही करना पड़ता है। चाय देने वाले छोटू से लेकर रिक्शा वाले और सब्जी वाले भइया के साथ होने वाला बर्ताव किसी से छुपा नहीं है। इनमें से हजारों ऐसे हैं, जिनके पास छत नहीं होता। वे हर रात नीले आसमान तले गुजारने को मजबूर होते हैं। कोरोना के इस दौर में तो उनके पास नीले आसमान का भी सहारा नहीं रहा। ऐसे ही लोगों ने पैदल घरों का रुख किया और इसके बाद प्रवासी कामगारों की अकुलाहट तेज हो गई।

           जिस ट्रेन के जरिये प्रवासियों ने घर लौटने के सपना संजोया था, महाराष्ट्र में वही ट्रेन एक दिन उन पर चढ़ गई। अपना रास्ता लिए घरों को लौट रहे इन कामगारों को मुजफ्फरनगर में यमराज रूपी बस झपट्टा मारती हुई अपने साथ ले गई। मध्य प्रदेश में ट्रक पलटता है और कई कामगार अपनी आंखों में घर वापसी का सपना लिए स्वर्ग सिधार जाते हैं। गाजियाबाद के रामलीला मैदान में जुटे हजारों प्रवासियों में कोरोना संक्रमण का लेस मात्र भी भय नहीं दिखता। दरअसल, कोरोना ने इन्हें इतना भयभीत कर दिया है कि इनके दिलोदिमाग से भय जाता रहा। अब बस एक ही सुर है कि मरना भी है तो घर लौटकर।
           व्यक्ति जब असहाय हो जाता है तो वह दो ही लोगों को याद करता है मां और ईश्वर। ईश्वर का ठिकाना तो किसी कामगार को मालूम नहीं, लेकिन मां का ठिकाना तो उनका गांव ही है। इसलिए, वह अपनी इस बेहद पीड़ादायक घड़ी में उस जगह जाना चाहते हैं जहां उनकी मां रहती है। जो उनकी मातृभूमि है।

क्रमशः...

शनिवार, 16 मई 2020

तब दिल्ली दूर थी और अब गांव दूर है भाई!

-कुणाल देव-                                                                                                                  

रात करीब डेढ़ बजे हैं। ऑफिस से लौट रहा हूं। दफ्तर से मेरा घर सिर्फ नौ किलोमीटर दूर है, तब भी लौटने की जल्दी होती है। घर आने के लिए नोएडा सेक्टर-62 अंडरपास से गुजरना पड़ता है। रास्ते में मेरे साथ कामगारों का रेला चल रहा है। उन्हें हजारों किलोमीटर दूर जाना है। जल्दी उन्हें भी है, लेकिन जब मंजिल दूर हो और संसाधन कुछ भी उपलब्ध नहीं तो अपने सामर्थ्य की सीमा तय करनी ही पड़ती है। कामगारों के काफिले में महिलाएं और बच्चे भी शामिल हैं। जिससे जितना बन पड़ता है बोझ भी उठा रहा है। ये गठरी-मोटरी औरों के लिए कुछ नहीं होंगी, लेकिन कामगारों की जिंदगी भर की कमाई है। कष्ट इनके लिए नया नहीं है। पर्व-त्योहार पर रेलगाड़ियों में धक्के खाकर, खड़े रहकर घर जाने की इन्हें आदत है, लेकिन अबकी जो चोट इनके मन पर लगी है उसे ये जल्दी नहीं भूलने वाले।
जड़ों की ओर-1
            रेले में चार युवक अलग-अलग चलते दिखाई दिए। मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ। गाड़ी धीमी की और उनसे पूछा कि ट्रेनें तो चल गई हैं आप पैदल कहां जा रहे हैं। जवाब मिला कि इन श्रमिक विशेष ट्रेनों में जगह पाना आसान नहीं। पैदल चलने से ज्यादा मशक्कत करनी पड़ रही है। बातचीत में एक युवक बताता है कि वह जहानाबाद (बिहार) का रहने वाला है और उसके साथ के तीन अन्य वाराणसी के। चारों नोएडा सेक्टर सात में एक फैक्ट्री में काम करते थे। वह फैक्ट्री घरों में लगने वाली कुंडियां बनाती है। जब लॉकडाउन शुरू हुआ था तब फैक्ट्री मालिक ने बहुत भरोसा दिया था। रुकने के लिए कहा था। वेतन देने की बात कही थी। राशन आदि की मदद दी भी थी। लेकिन, जैसे-जैसे लॉकडाउन बढ़ता गया, कंपनी के मालिक ने दूरी बनानी शुरू कर दी। इन युवकों को पहले की बचत के बूते दिन काटने पड़े। युवकों ने मालिक से राशन व पैसे खत्म होने की बात कही। पहले तो मालिक टाल-मटोल करता रहा, लेकिन जब इन्होंने दबाव बनाया तो उसने मार्च का वेतन देकर कहा कि काम अभी नहीं शुरू होने वाला है। तुमलोग अपने गांव लौट जाओ। कुछ दिन रुककर इन्होंने ट्रेन आदि से घर लौटने की कोशिश की। इस बीच पैसे खर्च होते गए। सारे पैसे खत्म हो जाते तो घर लौटने का कोई भरोसा भी नहीं बचता। पैदल घर कैसे लौट पाओगे, युवक कहते हैं- गाजियाबाद से गुजर रहे जीटी रोड तक पैदल जाएंगे और फिर ट्रकों का इंतजार करेंगे। भीड़ देखकर तो ट्रक वाले भी नहीं रुकते, इसलिए हम चार लोग अलग-अलग चल रहे हैं। उम्मीद है हमें कोई ट्रकवाला बैठा लेगा और कुछ पैसे लेकर कुछ दूर छोड़ देगा। आगे भी ऐसे ही हम घर तक पहुंचने की कोशिश करेंगे। जब कोई जुगाड़ नहीं लगेगा तो पैदल ही चल देंगे।
     लॉकडाउन की शुरुआत में जब लोगों ने घर जाने की जल्दी की थी और आनंदविहार बसअड्डे पर भीड़ इकट्ठा हुई थी तो बहुत गुस्सा आया था। लगा था कि जान सांसत में डालकर घर लौटने की इतनी भी क्या जल्दी है। खासकर तब जबकि सरकार उन्हें हर समस्या के समाधान का भरोसा दे रही है। संस्थाएं आगे बढ़कर उनका मदद कर रही हैं। सरकार ने भी फैक्ट्री और कंपनी मालिकों से कामगारों को वेतन व अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराने की अपील की है। सच पूछिए तो तब नहीं लगा था कि जिन कामगारों के खून से दिल्ली-एनसीआर की बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएं और कंपनियां खड़ी हुई हैं, उनके मालिकों का दिल इतना छोटा निकलेगा कि वे अपने नींव के पत्थरों का भार एक-दो महीने भी नहीं उठा पाएंगे। आज जब दिल्ली-एनसीआर से पलायन का दूसरा दौर शुरू हुआ है तो खुद पर और बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं व कंपनियों के मालिकों के प्रति अपनी सोच पर ग्लानि होती है। मुझे समझना चाहिए था कि जो लोग सिर्फ लेना जानते हैं वे कुछ भी मुफ्त में भला क्यों देने लगे। 
    
       घर लौटकर जब माताजी से हमने यह बात साझा की तो वह अचंभित रह गईं। बोलीं-इहां से जहानाबाद तो बाबाधाम से भी दूर होगा। जब मैंने बताया कि बाबाधाम से छह गुना ज्यादा दूर है तो वह हताश हो गईं। मेरे जेहन में बचपन की याद तैयर गई- शायद क्लास छह में पढ़ता था। औरंगाबाद से मेरा गांव आठ किलोमीटर पड़ता है। एक दिन औरंगाबाद से गांव पैदल ही पहुंच गया था। मेरी मां इतना चिंतित हो गई थीं कि कई दिनों तक हल्दी का दूध पिलातीं और सरसों तेल गर्म करके पैरों की मालिश करती थीं। जो हजार  दो हजार किलोमीटर पैदल चलकर घर पहुंच रहे हैं उनके पैरों की हालत क्या होती होगी। फेसबुक और ट्विटर आदि सोशल मीडिया पर मजदूरों के पैरों की तस्वीरें विचिलत कर देती हैं। कुछ लोग इन तस्वीरों पर अविश्वास भी कर रहे हैं। ऐसे लोगों से मैं सिर्फ इतना आग्रह करना चाहता हूं कि एक दिन दोपहर में 10 किलोमीटर पैदल चलकर अपने पैरों की हालत देख लें और फिर सच और झूठ का फैसला खुद ही कर लें।

क्रमश...