तकरीबन दो महीने होने को हैं, लेकिन मथुरा-वृंदावन यात्रा की स्मृतियां मानस पटल पर एकदम ताजा हैं। एक दिवसीय यात्रा में हम ढेर सारी यादें संजो लेना चाहते थे, इसलिए तड़के तैयार हो गए और सुबह करीब सात बजे वृंदावन के लिए रवाना हो गए। कुछ देर के लिए कोहरे के कारण गाड़ी की रफ्तार थोड़ी धीमी रही, लेकिन यमुना एक्सप्रेसवे पर कसर पूरी हो गई। करीब साढ़े नौ बजे वृंदावन पहुंच गए। हमारा अंदाजा था कि सुबह भीड़ कम होगी, तो दर्शन में आसानी हो जाएगी, लेकिन हुआ इसके एकदम विपरीत।
श्रीबांके बिहारी के दर्शन से पहले हमें श्रीराधा वल्लभ मंदिर पहुंचना था। इसके लिए हमें श्रीबांके बिहारी मंदिर के गेट नंबर 2 को पार करना था। जब हमने कुंज गली में प्रवेश किया तो सबकुछ सामान्य था, लेकिन करीब 200 मीटर चलने के बाद सिर्फ नरमुंड ही दिखाई देने लगे। बुजुर्ग मां के साथ उस जनसैलाब को पार करना काफी दुष्कर रहा। खैर, माताजी ने काफी हिम्मत और उत्साह के साथ उस भीड़ का सामना किया और हम किसी प्रकार श्रीराधा वल्लभ मंदिर पहुंच गए। वहां कमलेश भैया ने एक सज्जन को भेज रखा था। थोड़ी देर में उनसे मुलाकात हुई। उनके सौजन्य से श्रीराधा वल्लभ जी के बहुत ही सहज व भव्य दर्शन हुए। वहीं से हम श्रीबांके बिहारी मंदिर के गेट नंबर 2 के लिए रवाना हो गए। दोपहर करीब 11 बज चुके थे, लेकिन भीड़ थी कि कम ही नहीं हो रही थी। वहां भी एक सज्जन दर्शन में सहयोग के लिए आने वाले थे। आए भी, लेकिन बांके बिहारी का दर्शन प्रांगण से ही संभव हो सका। गर्भगृह के निकट पहुंचना या माला-तुलसीदल अर्पित करना संभव नहीं दिखा।
प्रेम मंदिर की भव्यता के बाद दिव्यता की अनुभूति
बाहर निकलने के बाद हमने शालिनी भाभीजी को फोन मिलाया। उन्होंने कुछ धार्मिक स्थलों पर घूमने की सलाह दी, जिनमें एक था- श्रीटटिया स्थान या तटीय स्थान। बेटे को प्रेम मंदिर देखने की इच्छा थी, तो हम श्रीबांके बिहारी से निकलने के बाद प्रेम मंदिर के लिए रवाना हो गए। काफी बड़ा मंदिर प्रांगण। व्यवस्था भी काफी उत्तम। जीवंत झांकियां। मंदिर बाहर से जितना भव्य दिखता है, उससे कतई कम भीतर से भी नहीं है। वास्तुशिल्प तो अद्भुत है। प्रेम मंदिर के बाद हम श्रीटटिया स्थान के लिए रवाना हो गए। वहां हमें श्रीमंत ललिता दासजी महाराज से मिलना था। पहुंचने के कुछ क्षण बाद ही उनसे मुलाकात हो गई। बहुत ही प्रेम से मिले। दोपहर के करीब 1 बज चुके थे और आश्रम में भंडारे का समय हो चुका था। श्रीललिता दासजी ने हमें प्रसाद पाने के लिए यमुना की रेत पर बैठा दिया। संन्यासी, संत, महंत, सेवक सभी यमुना की रेत पर बैठे थे। चूंकि आश्रम यमुना किनारे स्थित है, तो रेत भी नैसर्किग ही है। थोड़ी देर में आश्रम के संत पत्तल और मिट्टी के कूल्हड़ लगाने लगे। खिचड़ी भोग, पूरी प्रसाद, पालक की सब्जी और मिठाई...जितनी इच्छा हो खाइए, लेकिन छोड़ना एक दाना भी नहीं है... शुद्ध घी में बनी सामग्री का भंडारा वर्षों से चल रहा है, लेकिन किसी भी श्रद्धालु से एक पैसे की भी कामना नहीं की जाती।
आश्रम में नहीं है कलियुग का प्रवेश
प्रसाद पाने के बाद आश्रम के वर्तमान विराजमान श्रीमहंत 108 श्रीस्वामी राधाबिहारी दासजी महाराज के भव्य दर्शन हुए। उस समय श्रीमहाराज रसोई की सीढ़ियों पर आम आदमी की तरह बैठे थे। कोई आडंबर नहीं... न गेरूआं वस्त्र, न जटा, न मोतियों की माला... बस धोती पहने थे और एक हल्की सफेद चादर शरीर पर रखे हुए थे। छोटे-छोटे आश्रमों के संत जब टीवी पर आते हैं, तो उनकी दिव्यता और ज्ञान का न जाने कितना बखान किया जाता है, लेकिन उस आश्रम के महंत आडंबर से कोसों दूर थे, जिनके प्रभुपाद महंत श्रीहरिदासजी महाराज की उपासना से प्रसन्न होकर श्रीबांके बिहारीजी वृंदावन में प्रकट हुए थे। श्रीललिता दासजी ने बताया कि आश्रम में कलयुग का प्रवेश नहीं है। बिजली-बत्ती नहीं है। गैस चूल्हा नहीं है। फोन नहीं है। यह आश्रम बिल्कुल वैसे ही संचालित होता है, जैसे सैकड़ों वर्ष पहले होता था। लकड़ी के चूल्हे पर प्रसाद बनता है और वह भी आश्रम के संत खुद बनाते हैं।
महंत श्रीराधा बिहारी दासजी महाराज आश्रम से बाहर नहीं निकलते। नियमानुसार वह प्राण रहने तक आश्रम से बाहर नहीं निकलेंगे। जमीन पर चटाई बिछाकर सोते हैं और शिष्यों को दान में मिले अन्न या फल को आहार के रूप में स्वीकार करते हैं। समाधि स्थल पर शीश नवाने के बाद श्रीठाकुर जी की दिव्य सेज और स्वामी श्रीहरिदास जी की गूदड़ी, बांकी व सुमिरणी के भव्य दर्शन हुए। यहीं पर श्रीमहंत जी के भी एक बार फिर दर्शन हुए। श्रीमहंत जी के आदेश पर लौटते वक्त हमें प्रसाद, आश्रम साहित्य व तस्वीर से अनुगृहीत किया गया। यह आश्रम के नियमों का ही प्रभाव था कि हम सभी के पास मोबाइल थे, लेकिन एक भी तस्वीर क्लिक नहीं कर सका, अन्यथा प्रतिबंधित जगहों पर भी छुप-छुपाकर तस्वीर ले ही ली जाती है। श्रीललिता दास जी ने बताया कि आश्रम के पेड़-पौधों की काफी देख-रेख की जाती है। माना जाता है कि ये ऋषि-मुनियों का नया जन्म है। वे अपना शेष तप के लिए लताओं के रूप में अवतरित हुए हैं। जबतक तप पूरा नहीं होता लताएं हरी रहती हैं।
18 साल बाद मिले, लेकिन लगा जैसे कल की ही तो बात है...
श्रीटटिया आश्रम से निकलने के बाद हम उनसे मिलने वाले थे, जिनसे 18 वर्षों पहले जुदा हो गए थे। कमलेश भइया और शालिनी भाभी। 18 वर्षों से मिले भले ही नहीं थे, लेकिन संपर्क और संबंध हमेशा बना रहा। इसलिए दोनों परिवार इन वर्षों में आए बदलावों से अवगत था। यह रिश्ता मेरी पत्रकारीय यात्रा की श्रेष्ठ उपलब्धियों में शुमार है। एकदम नैसर्गिक। जब घर पहुंचा तो भइया दफ्तर थे। भाभीजी गेट पर इंतजार कर रही थीं। मेरे पसंद की सारी चीजें बनी थीं। खूब खाया। प्रिय वेणु की मौजदूगी ने आनंद दोगुना कर दिया। चीनू दिल्ली में कॉलेज में थे। मुलाकात नहीं हो सकी। आज दोनों...देवांश को मिला लें तो तीनों युवा हो चुके हैं। बचपन की अनगिनत यादें... चर्चाएं...। बातें होती रहीं। जैसे-जैसे समय बीतता रहा स्मृतियां और धवल होती गईं। शाम में श्रीकृष्ण जन्मभूमि के दर्शन करने थे। भइया-भाभी का साथ मिला। भव्य-दिव्य दर्शन हुए। फिर मिलने के वादे के साथ हम वसुंधरा के लिए लौट चले...