शुक्रवार, 22 जुलाई 2022

अंकों की दौड़ और जीवन के अनुभव

-कुणाल देव-

सीबीएसई 10वीं व 12वीं के परीक्षा परिणाम आ चुके हैं। बच्चे उत्साहित हैं और उनसे भी ज्यादा खुश हैं उनके माता-पिता व परिजन। यह बहुत स्वभाविक भी है। हम में से ज्यादतर जिस पृष्ठभूमि से आते हैं, वहां हमारी पीढ़ी तक प्रादेशिक शिक्षा बोर्ड का ही बोलबाला था। समुद्र जैसा पाठ्यक्रम, स्कूलों में शिक्षकों की घोर कमी और बहुत ही कंजूसी के साथ मूल्यांकन तब प्रादेशिक शिक्षा बोर्ड की पहचान हुआ करती थी। सारा दोष व्यवस्था पर मढ़ देना अर्धसत्य होगा। हम में से ज्यादतर लोग बेफिक्र भी कुछ ज्यादा ही होते थे। माता-पिता की अपेक्षा भी कुछ ज्यादा नहीं थी। मैट्रिक व इंटर की परीक्षा पास होने को ही बड़ा गौरव मान लेते थे। जिनके बच्चों ने फर्स्ट डिवीजन हासिल कर लिया, वे तो बल्लियों उछल जाते थे। 

मैट्रिक की परीक्षा शिक्षा का पहला फिल्टर होता था। सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले किसान परिवार के ज्यादातर बच्चे अर्थाभाववश या स्वभावश किताबों का झोला खूंटी में टांगकर खेतों की तरफ निकल पड़ते थे। इंटरमीडिएट में नाम लिखाने वाले छात्र दो प्रकार के होते थे-एक तो वह जिन्हें वास्तव में पढ़ाई से लगाव था और दूसरा वह जिनके माता-पिता चाहते थे कि बच्चा आगे पढ़ ले। इंटरमीडिएट के दूसरे फिल्टर में दूसरे प्रकार के छात्र छंट जाते थे और खेतों या दुकानों की ओर लौटकर पैतृक विरासत संभालने लगते थे। पहले वाले छात्र थर्ड और सेकेंड डिवीजन के साथ आगे की पढ़ाई जारी रखते थे। कुछ फर्स्ट डिवीजन भी ले आते थे, लेकिन उनकी संख्या नगण्य होती थी। ग्रेजुएशन की पढ़ाई के बाद ज्यादातर छात्र प्रतियोगिता परीक्षाओं में लग जाते थे। यहीं से शुरू हो जाता था क्लर्क से कलक्टर बनने का सफर। जो कलक्टर बन गए वे तो उदाहरण हो ही जाते थे, जो सफल नहीं हो पाए उनकी भी कहानियां कई मौकों पर लोग पूरे जोश के साथ सुनाई जाती थीं।

आज प्रादेशिक शिक्षा बोर्ड से पढ़ाई करने वालों के बच्चे सीबीएसई व आइसीएसई से संबद्ध स्कूलों से पढ़ाई कर रहे हैं। ये बोर्ड मूल्यांकन में कंजूसी कतई नहीं करते और एक तरह से स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा ही देते हैं। बढ़ती आबादी व सीमित होते संसाधनों के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा की जरूरत भी है, वर्ना प्रतिभा के मूल्यांकन का विकल्प ही क्या है। सच कहूं तो आजकल के बच्चे भी हमारी पीढ़ी से ज्यादा प्रतियोगी हो गए हैं और कई बार महसूस होता है कि शिक्षा व करियर की कड़ी प्रतियोगिता ने उन्हें जीवन के व्यावहारिक पहलुओं से थोड़ा जुदा कर दिया है। शहरों, खासकर महानगरों में रह रहे छात्रों की दुनिया कीताबों से शुरू होती है और सोशल मीडिया पर खत्म हो जाती है। राशन की दुकान से लेकर खेत-खलिहान, नदी-नाले व पर्वत-पठार तक के बारे में उनका अनुभव इन्हीं माध्यमों पर आधारित है। इन्हीं अवस्थाओं ने ग्राम्य पर्यटन की संभावनाओं को जन्म दिया है। शायद उसी तरह, जिस तरह पारिवारिक व सामाजिक बिखराव ने वृद्धाश्रम को जन्मा है।