गुरुवार, 29 सितंबर 2011
मंगलवार, 27 सितंबर 2011
दशहरे की छुट्टी-२
जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जा रही थी, दशहरे के मायने और उससे आने वाली खुशियों में भी फर्क आने लगा था। उस वक्त हम पांचवी क्लास में पढ़ते थे। कस्बे के सरकारी स्कूल में सभी वर्ग के बच्चे पढ़ते थे। लेकिन, उनमें कोई फर्क नहीं था। जिन छोटी कक्षाओं में बच्चे जमीन पर टाट-पट्टी डालकर बैठते थे वहां सभी वर्ग के बच्चे वैसा ही करते और जिस क्लास में बेंच उपलब्ध थीं वह सबके लिए। पहले आओ और पहले पाओ की तर्ज पर बैठने के लिए सीटों का भी आरक्षण होता था।
इस कक्षा में एक नए लड़के ने दाखिला लिया था। उसका नाम था शरीफ। उसके घर की माली हालत मैं नही जानता था लेकिन उसने बताया कि मदरसे से पढ़ाई छुड़वाकर अम्मी-अब्बा ने मीडिल स्कूल में अच्छी तालीम के लिए भेजा है। स्कूल में नया होने के कारण वह काफी सहमा हुआ रहता। सिर्फ अपने मुहल्ले के लड़कों के साथ। दूसरे मुहल्ले के लड़के या गांव से आने वाले बच्चे उससे दोस्ती करने की कोशिश करते तो भी वह किनारा कर लेता था। एक दिन जगदीश मासाब आए और त्रिकोणमिती के बारे में पढ़ाने लगे। पिछली बेंच पर बैठे शरीफ से वे अचानक पूछ बैठे- अब तक क्लास में क्या पढ़ाई हुई?
शरीफ की सकपका गया। बोला, मासाब याद नहीं। इसके बाद वह मुर्गा बन गया। आगे बेंच पर बैठे होने के कारण हम सीधे मासाब की नजर में आए और उन्होंने वही सवाल दुहरा दिया। हम उसका उत्तर देने में सफल रहे। इसके बाद तो शरीफ को लगने लगा कि जैसे मेरे कारण ही वह मुर्गा बना हो।
खाली कक्षा में हम घर से लाए हुए गेंद से पिट्टमपिट्टौव्वल खेलते। क्लास के ही एक ढीठ बच्चा (जिसका घर स्कूल के नजदीक था और जिससे क्लास के सारे छात्र डरते थे) ने खेल में शामिल न होने पर भी शरीफ की तरफ गेंद दे मारी। गेंद उसकी आंख पर लगी और वह रोने लगा।
मारे डर के सारे लड़के भाग गए और मैं उसकी मदद करने लगा। इस बीच रामेश्वर सर आए और बिना कुछ पूछे मेरी पिटाई करने लगे। कारण था कि स्कूल के शरारती बच्चों में से मैं भी एक था। शरीफ ने मेरा बचाव किया।
जमाना बदल गया |
स्कूल से घर दूर होने के कारण शरीफ टिफिन में खाना खाने नहीं जा पाता था जबकि, हम खाना खाकर स्कूल लौट आते थे। एक दिन घर से 25 पैसे मुझे मिले थे। हमने घर में कह दिया था कि आज टिफिन में खाना खाने नहीं आऊंगा।
दोपहर में टिफिन की घंटी बजते ही हम स्कूल से बाहर निकल गए। मुहल्ले के लड़के घर जाने लगे लेकिन तो तो लंगड़ मियां की दुकान की तरफ जा रहे थे। वहां देखते हैं कि शरीफ भी बैठा हुआ है। तब 10 पैसे में आलू के मसालेदार 5 पीस मिला करते थे। हमने दस पैसे का इस्तेमाल इसी काम में किया। धीरे-धीरे जायका लेते हुए आलू के पीस खा रहे थे और शराफत से बैठे शरीफ को भी देख रहे थे। एक अजीब सी कसमसाहट थी उसके चेहरे पर। थोड़ी लालच भी। वह ग्लास उठाकर पानी पीने लगा। हमने दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए उससे आलू खाने के लिए कहा। लेकिन, उसने मना कर दिया। अजीबोगरीब स्थित पैदा हो गई। थोड़ी देर रुक कर, हमने उससे कहा कि तुम्हारे पास जब पैसे आएं तो मुझे खिला देना। इस पर वह मान गया। आलू खाकर हम लौटे तो क्लास में कोई नहीं था। घर के बारे में पूछने पर शरीफ ने बताया कि उसके पापा कपड़े का काम करते हैं। कभी-कभी छु्ट्टी में वह भी उनके साथ जाता है। हमारी दोसती पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ा।
फिर तो कई बार हम और शरीफ दोनों दोपहर में खाना खाने हमारे ही घर चले जाते। माई, को बुरा लगा होगा लेकिन, वह खाने के लिए किसी को मना नहीं करती थीं। इसलिए, शरीफ को भी मना नहीं कर पाती थीं।
मतांतर के बीच भी हमारे कस्बे की खासियत थी कि उस पर सभी धर्मों के त्योहार का रंग जरा जल्दी ही चढ़ जाता था। चाहे वह ईद हो, दीपावली हो, करमा हो, विश्वकर्मा पूजा हो, अनंत हो, छठ हो, मुहर्रम हो या फिर बड़ा दिन। सभी धर्म के लोग दिल खोलकर एक साथ त्योहार मनाते थे। इसका कारण था कि कोई भी बाहरी व्यक्ति यह नहीं कह सकता था कि वह हिंदुओं के इलाके में है या फिर मुसलमानों के। सड़क के एक किनारे जहां हिंदू समुदाय के लोग रहते थे वहीं दूसरी तरफ मुसलमानों का बसेरा था। कोई भी जुलूस निकलता तो सभी धर्म के लोग अपने आप ही उसमें शामिल होते जाते। ईद पर चंदा दीदी (जो मेरी मंझली दीदी की सहेली रहीं) की सेवइयां खाता तो मुहर्रम पर मलीदा। शरीफ और हमने लगातार दो वर्षों तक सभी त्योहार साथ-साथ मनाए।
तब हम सातवीं कक्षा में पढ़ते थे। अचानक शहर की फिजां थोड़ी कड़वी होने लगी थी। जिन मुसलमानों के दरवाजे हमारी गली की तरफ खुलते थे उन्होंने बंद करवा करके दूसरी तरफ खुलवाना शुरू कर दिया। दुकान पर जब नजरूल और कमरूजमा चाचा मिलते तो पहले जैसी गर्मजोशी नहीं होती। सुना था कि श्याम सुंदर भाई और नजरूल हसन में बातचीत बंद हो गई है। श्यामसुंदर भाई की गाय को नजरूल ने डंडा मार दिया। इसे लेकर ही उनके बीच जमकर लड़ाई हुई। हमारे मुहल्ले में हमारी पट्टी के लोगों की जमात शाम को गोला बनाकर मीटिंग करती। वह भी बहुत धीमी-धीमी आवाज में। सुबह-सुबह अखबार पहुंचने का इंतजार सबको कुछ ज्यादा ही रहता। पहले मुहल्ले भर में सिर्फ हमारे पापा बीबीसी न्यूज सुनते थे और लोग सिबाका टॉप। लेकिन, आजकल बीबीसी सुनने वाले लोगों की संख्या यकायक बढ़ गई। तब ये बातें मेरी समझ में नहीं आईं।
दशहरा आने वाला था और इस बार कस्बे में रामलीला के मंचन नहीं होने वाला था। बल्कि, इस बार पर्दा लगाकर रात के नौ से 12 बजे तक रामायण और उसके बाद कूली, दो आंखें 12 हाथ आदि फिल्में दिखाई जाने वाली थीं। हम काफी उत्साहित थे। सोच रहा था कि 8 बजे ही घर से निकल जाएंगे और फिर शरीफ को घर से लेते हुए मेला देखेंगे और फिर रामायण और फिर सिनेमा।
हमने अपनी प्लानिंग दोस्त शरीफ को बताई। लेकिन वह उत्साहित नहीं हुआ। कई बार पूछने की कोशिश की लेकिन वह बात को टाल जाता था। इस बीच कई बार टिफिन में खाने के लिए उसे घर ले जाना चाहा लेकिन बहाना बनाते हुए वह टाल जाता। एक दिन हमने उसे अपनी कसम दे दी।
शरीफ कहने लगा- इस बार वह दशहरे के मेले में नहीं आ पाएगा। अम्मी बता रही थीं कि किसी दूसरे देश में कुछ लोगों ने मंदिर तोड़ दिया था। उसके बदले हिंदुओं ने उनकी मस्जिद तोड़ दी। फिर मारकाट हुई। कई जानें गईं। इहां भी तुम्हारे हिंदू लोग सुबह-सुबह तलवारबाजी सीखने लगे हैं। मस्जिद से भी इस्लाम खतरे में है का ऐलान होने लगा है। अम्मी कहती हैं कि दशहरे में कहीं राइट हो गया तो गजब हो जाएगा।
शरीफ इ राइट क्या होता है भाई? हमने सकुचाते हुए कहा।
पता नहीं भाई। लगता है कोई लड़ाई-झगड़े का नाम होगा। शरीफ ने झिझकते हुए कहा।
घर लौटे तो पापा ने सबके सामने एक ऐलान कर दिया- इस बार हम लोग दशहरा गांव पर मनाएंगे।
फिर न तो किसी ने कोई सवाल किया न ही उन्होंने किसी से कोई राय ली। हमें भी कोई शिकायत नहीं थी। सोच रहा था कि कस्बे में रहेंगे और शरीफ के साथ मेला भी नहीं घूम पाएंगे, पर्दे पर रामायण नहीं देख पाएंगे और फिल्में भी नहीं देख पाएंगे तो दशहरे की छुट्टी में यहां रहने का क्या फायदा।
शनिवार, 24 सितंबर 2011
दशहरे की छुट्टी-1
रामलीला से लौटकर खाना खाता और पापा के साथ सोने के लिए बिस्तर पर चला जाता। लेकिन, कानों में काफी देर तक वही नगाड़ों की नाद, नर्तकियों की आवाज और शोर गूंजते रहते। करवट बदलता रहता और पता नहीं चल पाता कि कब नींद आ गई।
(जमाना बदल गया) |
यहीं से शुरू होती प्लानिंग। कोई कहता कि आज दोपहर में ही हरिहरगंज बाजार घूमकर दशहरे मेले का मुआयना कर लेना है तो कोई कहता कि दिन में क्या होगा। कोई मेला तो लगा नहीं होगा। वही, फोफीवाले पीं-पीं करके बेच रहे होंगे। वैद्यनाथ की दुकान पर मिठाइयां बिक रही होंगी और एक्का-दुक्कासब्जी वाले चिचिया रहे होंगे।
दूसरा कहता- नहीं यार, ऐेसी बात नहीं है। चलो, मान भी लेते हैं कि दोपहर में वहां कोई नहीं होगा लेकिन पापा को क्या मालूम कि हम बाजार गए हैं याऔर कहीं। अरे चलते हैं न, हरिहरगंज मेले में ठीक लगा तो ठीक वरना, संडा तक हो आएंगे।
नहीं यार, ऐसा करना ठीक नहीं रहेगा। पापा को पता चल गया तो खूब खिंचाई होगी। विश्वास खत्म होगा सो अलग से।
हां भाई, ये तो है। फिर भी देखते हैं हरिहरगंज चलके।
क्या दोपहर में पापा बाजार जाने देंगे?
अरे नहीं, मां से पूछ के चले जाएंगे न। सब्जी लाने के बहाने।
हां, यह ठीक रहेगा।
मुंह धोकर (ब्रश)
घर लौटते फिर सभी स्थितियों पर नजर रखनी शुरू कर देते। लोगों के बीच ज्यादा मृदुभाषी बन जाते और ताक में रहते कि अपने काम की बात कब छेड़ें। मौके मिलते ही कहते कि मां को कहते कि आज सब्जी लाने के लिए दोपहर में ही भेज देना। शाम में जाने का मन नहीं करता है।
भीड़ होती है। दोस्त भी किसी प्रकार घर में बहाने बनाते। और हम ज्यादातर दोस्त परिजनों को झांसा देने में कामयाब हो जाते।
अनुमति मिलते ही शुरू हो जाती साइकिल की झड़ाई-पोंछाई। कुलमिलाकर साइकिल को चमका देते। फिर जैसे ही देखते ही पापा कहीं बाहर जा रहे हैं झोला उठाते और सब्जी लाने जाने के लिए तैयार हो कर निकल लेते। साइकिलके पैंडिल तक पांव तो जाते नहीं थे सो उछल-उछलकर उसे दबाते या हिप को इधर-उधर हिलाकर पैंडिल तक पहुंचने की कोशिश करते।
हरिहरगंज जाते और फिर वहां से न जाने कितने दोस्तों के घरों पर दस्तक देते हुए टोली तैयार करके संडा निकल जाते। इस बीच न तो कुछ खरीदारी होती न ही कोई मेला-बताशा ही देख पाते। लेकिन, फक्कड़ की तरह घूमने में अजब ही मजा आता। दोस्तों से साइकिल की रेस लगाते और हंसी-चुटकुले सुनते-सुनाते। इस बीच भूल जाते कि जिस काम के बहाने चौकड़ी भरने आए हैं वह काम क्या है?
जब शाम होने लगती तो घर लौटने की चिंता सताती और तब हाथ में लटका झोला याद दिलाता कि सब्जी लेनी थी। फिर आपाधापी शुरू होती और जल्दी-जल्दी सब्जी खरीदकर घर की ओर रवाना होते। रास्ते में जो बच्चे मिलते उनसे पूछते कि पापा घर आए हैं या नहीं। अगर, वे बता देते कि अभी नहीं तो साइकिल की स्पीड तेज हो जाती। अगर हां हो लगता जैसे रात हो जाती तो अच्छा था। घर पहुंचकर पापा से सामना होते ही बहानेबाजी शुरू हो जाती। कई बार डांट खाकर ही मुक्ति मिल जाती तो कई बार हल्की-फुल्की ठुकाई भी होती।
लेकिन, हम क्या इससे बाज आ जाते। आखिर हम तो हम हैं।
अगले दिन वही प्रक्रिया दुहराई जाती लेकिन, उसका स्वरूप दूसरा होता। बहाने दूसरे होते और रंगा दूसरा होता। कभी-कभी समय भी।
क्रमशः जारी
गुरुवार, 22 सितंबर 2011
दशहरे की छुट्टी
झन......ढन...ढन...ढन...ढन...ढन...ढन...ढूड़ूंग (जमाना बदल गया)
महाराजाधिराज, लंकापति, राक्षसराज रावण पधार रहे हैं...

पापी रावण, अपने होश की चिंता कर। मैं सती हूं। मेरे रोम-रोम में प्रभु श्रीराम ही बसते हैं। मैं उनकी अमानत हूं। तुमने धोखे से मेरा हरण तो जरूर कर लिया है लेकिन, तुम्हारी जिंदगी ज्यादा दिनों की नहीं है। मेरे प्रभु राम किसी भी क्षण तुम्हारी सोने की लंका को भस्म कर देंगे। वे आते ही होंगे। तुम्हारा नाश तय है।
पर्दा गिरता है.....
झन......ढन...ढन...ढन...ढन...ढन...ढन...ढन...ढन...ढन...ढन...ढन...ढन...ढन...ढूड़ूंग
भाइयों और बहनों, प्रह्लाद सिंह ने सीता का अभियन पर खुश होकर दस रुपए का नकद इनाम दिया है। श्रीरामलीला कमेटी की ओर से हम उनका तहेदिल से शुक्रिया अदा करते हैं।
धीरे-धीरे पर्दा उठता है...
टिंग...टिंग...टिंग...टिंग...टिंग...टिंग...टिंग...टूंग...टूंग...टूंग... ढिंगचक...ढिंगचक...ढिंगचक...ढिंगचा
लौंडा बदनाम हुआ नसीबन तेरे लिए.......मेरी छतरी के नीचे आजा, क्यों भींगे रे कमला खड़ी-खड़ी...
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हिला दिया भाई....नचवा तो हिला दिया....
ई बात है कि महाराजगंज के रामलीला में जितना मजा है ओतना हरिहरगंज के रामलीला में कहा हैं....
इहां तो हर साल एक से एक प्रोग्राम होता है
आउ देख, न ह। हर साल सबसे कम चंदा करियो के केतना बढ़िया व्यवस्था रह हई....
देख न ह, बेर डूबते का मैक बजे लग हई....हियां से ऊहां तक गाने-गाना
और रात में रामलीला में जब नचवा आवा हई तो सीरीदेवी समझ फैल...
अरे तनी इहो तो देखा कि रामलीलवा में पाठ आगे भी बढ़तई कि खाली सीता वाटिके में अटकल रहतई....तीन दिन से रावण और सीता के पाठे चलईत हई।
अरे तूहूं कहां घुस गेला। रामलीला जहां हई उहंई अटकल रहऊ। नाच में तो मजा आवइत न हई।
घऱ में चर्चा चल रही है कि दो अक्टूबर से १२ अक्टूबर तक बेटी की छुट्टी होगी। दुर्गा पूजा को लेकर। अनायास ही हमें उस जगह की याद आ जाती है जहां हम किशोर हए। दशहरा वहां के लिए खास त्योहार था। यह एक ऐसा कस्बा है जहां के लोग हमेशा ही बॉर्डर पर रहते हैं। संयुक्त बिहार में भी हरिहरगंज पलामू जिले में आता था और महाराजगंज औरंगाबाद में। खास बात यह है कि तब भी महाराजगंज में कोई घटना होने पर हरिहरगंज की पुलिस मौके पर नहीं पहुंचती थी। महाराजगंज के लोगों को कुटुंबा थाने, जो वहां से करीब बीस किलोमीटर दूर था जाना पड़ता था।
आज तो गली बदलते ही प्रदेश बदल जाता है। हरिहरगंज और महाराजगंज को विभाजित करने वाली एक गली थी उसका नाम था भट्ठी मोहल्ला। आप कल्पना कर सकते हैं कि इस मुहल्ले में हर व्यक्ति का पड़ोसी दूसरे प्रांत में रहता है। यानी, मेरे घर के सामने वाला व्यक्ति पड़ोसी राज्य का निवासी है।
बहरहाल, प्रशासनिक दिक्कतें चाहे जो भी हों दोनों कस्बों के रहने वाले लोगों को इससे कोई दिक्कत नहीं थी। हरिहरगंज में जो हाईस्कूल इंटर कॉलेज है वहां तब भी माराजगंज के छात्र ज्यादा दाखिला लेते थे और आज भी।
देखिए, हम एकदम से बचपन में भटक गए। तो बात दशहरे की हो रही थी। हमको याद है कि इसके लिए कितनी तैयारियां करते थे। कुछ दोस्त जिनके पिता नौकरी करते थे वे घर लौट जाते थे लेकिन ज्यादातर साथ ही रहते थे। भगवान से मनाते थे कि इस बार दशहरे की छुट्टी पर स्कूल कम से कम एक महीने के लिए बंद रहे, लेकिन पापा की ड्यूटी देर शाम तक बढ़ा दी जाए। और भइया तो दशहरे पर बिलकुल घर न आएँ। इन्हीं दोनों से तो डर लगता था। पापा से तो थोड़ा कम, भइया से काफी ज्यादा। पता नहीं क्यों?
लेकिन, पापा भी रोज ही पूजा करते थे। पता नहीं वो भगवान से क्या मांगते होंगे। फिर भी, हमारी मुराद पूरी तरह पूरी नहीं हो पाती थी। छुट्टी पापा की भी होती थी। ये बात अलग है कि वे बीच-बीच में ड्यूटी पर भी चले जाते थे। लेकिन, भइया तो बस आते तो मुहल्ले में ही डेरा डाले रहते।
उनके भी दोस्तों की संख्या ज्यादा थी। भइया से हम डरते हैं, इसकी जानकारी उनके दोस्तों को भी थी। फिर क्या, दोपहर में जरा बाहर दिखे नहीं कि धमकी...भइया से कह देंगे। और हम....बिल्ली देखकर जैसे चूहा बिल में दुबक जाता है वैसे ही तितली की तरह दौड़कर घर में दुबक जाते।
खैर, दशहरे की छुट्टी तो दस दिनों की ही होती। कॉलेज में छुट्टी होने के कारण भइया भी अक्सर आ ही जाते। एक-दो बहने भी ससुराल से आ जातीं। हम सुबह-शाम किताब खोलकर बैठ जाते और घर से बाहर जाने के बहानों पर शोध करना शुरू कर देते। ऐसा नहीं कि हमारा ही घर इस तरह का था। दोस्तों के साथ भी सबकुछ ऐसा ही था। हम दोस्तों के घर जाते। इशारा करते और बाहर चलने को कहते। इतने में भी बात नहीं बनती तो कबीरदास की उलटबासियों (मतलब पानी को नीपा कहते ) का ससहारा लेते। और जब देखते ही आजादी किसी भी कीमत पर नहीं मिलने वाली है तो नींद का आश्रय ले लेते।
खैर, जैसे-तैसे शाम होती। लाउडस्पीकर पर दुर्गा चालीसा, हनुमान चालीसा व न जाने कौन-कौन से चालीसे बजने शुरू हो जाते। इसके बाद फिल्मी गाने। करीब आठ बजे अनाउंस होता- देवियों और सज्जनों, मताओं व बहनों रामलीला शुरू होने वाली है। कृपया अपना स्थान ग्रहण करें। वोलेंटियरों से अनुरोध है कि दर्शकों का सहयोग करें। फिर जल्दी-जल्दी खाना खाते और अपने दोस्तों की टोली लेकर सबसे आगे बोरा डाल देते। पापा हिदायत देते और कहते दस बजे से पहले चले आ जाना। कहता, जी अच्छा। फिर भी, दस बजते-बजते न जाने कितनी बार घर से संदेसा लेकर कोई न कोई पहुंच ही जाता कि पापा बुला रहे हैं।
क्रमशः जारी....
बुधवार, 21 सितंबर 2011
टोमैटो मैक्रोनी
सामग्रीः पके टमाटर 4
भऱने के लिए
बटरः डेढ़ से दो चम्मच
हरी मिर्चः बारीक कटी हुई 1-2 चम्मच (जैसा तीखा चाहें)
हरा प्याजः बारीक कटा हुआ आधा कप
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चटकारा |
शिमला मिर्चः बारीक कटी हुई आधा कप
मटरः उबला हुआ आधा कप
गाजरः कद्दूकस किया हुआ एक चौथाई कप
मैक्रोनीः उबला औऱ कटा हुआ एक कप
सीजनिंग के लिए
ऑरगेनाः आधा चम्मच
लाल मिर्च पाउडरः आधा चम्मच
तुलसी पत्ता सूखा हुआः आधा चम्मच
चाट मसालाः एक चौथाई चम्मच
चीज स्प्रेडः दो चम्मच
पनीर कद्दूकस किया हुआः एक कप
मटर उबला हुआः गार्निशिंग के लिए
बनाने का तरीका
टमाटर को ऊपर से काटकर भीतर से खोखला कर दें। माइक्रोवेव में दो मिनट के लिए हाईटेम्प्रेचर पर रखें। बेकिंग डिश में चिकनाई लगाकर उसमें टमाटर रखें। बटर, हरी मिर्च, हरा प्याज औऱ शिमला मिर्च को बाउल में ऱखकर माइक्रोवेव में हाई टेम्प्रेचर पर दो मिनट रखें। मटर गाजर और मैक्रोनी डालें और अच्छी तरह मिला लें। ऊपर से सीजनिंग डालें और दो मिनट के लिए उसे हाई टेम्प्रेचर पर रखें। बीच-बीच में मिश्रण को मिलाते रहें। टमाटर को मिश्रण से भर दें और ऊपर से कद्दूकस किया हआ पनीर और ब्रेड क्रम्ब्स डालें। माइक्रोवेव में 10 मिनट के लिए 180 डिग्री पर ग्रील करें। ऊबले हुए मटर से गार्निश कर सर्व करें।
मंगलवार, 20 सितंबर 2011
याद आए है
जिंदगी! मुझको यहां बहुत तड़पाए है, (कवि मन)
दूरियां बढ़ गईं फिर भी याद आए है।
कैसे भूला दूं ममता की छांव,
वो मंदिर सा घर, वो स्वर्ग सा गांव,
भूलना नहीं आसान इतना,
आते रहे याद चाहा मैं जितना,
बरसात में उमड़ते वो कारे बादल,
जाड़े के दिन की सूरज की लाली,
पतझड़ के दिनों में नंगा सा पीपल,
साव के मौसम की हरियाली,
कैसे भूला दूं लोगों का प्यार,
वो ममता का आंचल, वे बचपन के यार,
चाहूं मैं फिर भी भुलाई न जाए है,
जिंदगी! मुझको यहां बहुत तड़पाए है।
कल-कल कर बहती नदिया की धारा,
नन्हे-मुन्ने बच्चों का मुखड़ा वो प्यारा,
स्वर्ण सी चमकती नदिया की रेत,
खुशी के द्योतक वे गेहूं के खेत,
बाबुल के संग, नाहर पर घुमना,
कभी मस्त पेड़ों की डालों पर झुमना,
जरा चोट लगने पर मां का रोना,
बापू का मन ही मन विह्वल होना,
राखी के दिन वो बहना का प्यार,
जिस पे लुटा दूं मैं खुशियां हजार,
वे खुशियों के दिन जो साथ बिताए
गम में वे सभी याद आए हैं
जिंदगी! मुझको यहां बहुत तड़पाए है।
सोमवार, 19 सितंबर 2011
शब्द
शब्द नहीं बचे मेरे पास (कवि मन)
अपने।
जो थे बेच दिए
दुकान-दुकान पर
कोने-कोने में मेरे शब्द तैरते हैं
उनकी नाद सुनाई देती है
मुझे
पर
उनमें अपनापन नहीं
लगाव नहीं
दूरी है
कुछ सहज और
कुछ जानबूझकर।
कहते हैं, बाजार है
अब अपनाना मुश्किल है।
बहुत मुश्किल
और
अगर अपना भी लिए
तो
तुम होगे
मेरे दूसरे खरीददार।
हक नहीं होगा तुम्हें
एकमेव
मालिक होने का।
क्योंकि
जब मुझसे
मेरी आत्मा से
तुम एक शरीर गढ़ते थे
उसमें खून होता था,
संवेदना भी।
उसमें गति थी
वेग भी था
और अब
मैं घिस चुका हूं
नजाने कितनी बार
अनाड़ियों के हाथों
हुआ है मेरा दुराचार।
कई सौदागरों से
अनगिनत बार हुआ है सौदा
न जाने कितनी बार
महफिल जमी है
और कितनी बार
उसी सुहाग सेज पर
नई चादर की मानिंद
बिछा हूं मैं।
कई बार नींद में ही
हुआ हूं मैं कामरत
और
दिन के उजियारे में
देखा है अपना
भग्नावशेष।
खैर तुम नहीं समझोगे
रहने दो
क्योंकि
तुम जानते हो
मेरे अस्तित्व को
अपशब्द...अशब्द...निःशब्द
रविवार, 18 सितंबर 2011
तीन चौथाई
तीन चौथाई यानी 75 प्रतिशत। इतनी ही आबादी तो अपने देश में गांव में रहती है। आप सोच रहे होंगे कि मैं कैसी बातें कर रहा हूं। एक तरफ जहां सर्वे बताते हैं कि गांवों से पलायन हो रहा है, वहीं दूसरी तरफ मैं कैसी राग अलाप रहा हूं।
लेकिन, हम इसे दूसरे तरीके से सोचते हैं। शहरों में मलीन बस्तियों (स्लम एऱियाज) की संख्या में कितना इजाफा हुआ है? चालों और एमआईजी फ्लैटों में कितनी वृद्धि हुई है? दरअसल, हम इनकी बात इसलिए कर रहे हैं क्योंकि यहां नवप्रवेशी शहरी या यूं कहें कि गांव की जड़ें रहती हैं। हो सकता है कि दो चार प्रतिशत लोगों ने गांव की गरीबी से निजात पाते हुए निम्न मध्यमवर्गीय समूह से तरक्की कर ली हो लेकिन, ज्यादातर लोग वैसे ही हैं- दाल-रोटी वाले। मतलब महीने की तनख्वाह पर बीवी-बच्चों को पालने वाले।
कोई बीस-पच्चीस साल पहले की बात है। पढ़ा करता था कि भारत की सत्तर प्रतिशत आबादी गांव में रहती है। सोचिए तब गांव के मायने क्या होते होंगे। खेत, कुआं, रहट, ढीबरी (डिबिया), नंग-धड़ंग बच्चे, कृषकाय किसान, मलीन से फूस या खपरैल के घर, कोलम किंतु बोझिल शरीर वाली महिलाएं व युवतियां, संकरा और कच्चा रास्ता या पगडंडी आदि-आदि। गौर करिए कि गांव में इन वर्षों में क्या-क्या अंतर आए हैं। ज्यादातर गावों में खेत में सिंचाई के संसाधन दुरस्त हुए हैं, कुआं के स्थान पर हैंडपंप लग गए हैं, रहट का स्थान डीप बोरिंग ने ले लिया है, बिजली आ गई है, टीवी ने भी योगदान दे दिया है, और तो और डिश टीवी का भी पदार्पण हो चुका है, घरों की छतें पक्की हो गई हैं और गावों को जाने वाले संपर्क मार्ग या तो आरसीसी या पक्के हो चुके हैं।
तरक्की की चाह में नौकरी को आजीविका बनाकर शहर में पलायन करने वाले ग्रामीण पृष्ठ भूमि के लोग जहां रहते हैं वहां की भी स्थिति कोई ज्यादा संतोषजनक नहीं है। मुंबई की चाल हो या दिल्ली के गावों में किराये की कोठरी में रहने वाले पलायित लोग, कोलकाता में किराये पर गुजर-बसर करने वाले लोग या बेंगलुरू में जैसे-तैसे दिन पार करने की सोच रखने वाले लोग; इनके जीवन स्तर में गांव के अपेक्षाकृत कुछ और चीजें तो जु़ड़ गई हैं लेकिन, वहां रहने वाले आम शहरी की तुलना में अब भी ग्रामीण जैसे ही हैं। कुछ लोग इसके अपवाद हो सकते हैं।
कहने का आशय है कि गांव से जिन लोगों ने शहर की ओर पलायन किया उनमें से अब भी ज्यादातर लोग गांव जैसी ही जिंदगी गुजार रहे हैं। यह ब्लॉग भी उन्हीं 75 फीसदी लोगों यानी तीन चौथाई से जुड़ा है। इसकी शुरुआत का उद्देश्य ही है कि तीन चौथाई लोगों की आवाज तीन चौथाई के साथ-साथ उन एक चौथाई लोंगों तक भी पहुंचे जो किसी न किसी तरीके से हमारी जीवनशैली और रीति-नीति को प्रभावित करते हैं या जुड़े हुए हैं। यहां सबकुछ होगा- जानकारी, मनोरंजन, साहित्य, सृजन, कला, संस्कृति, खेती-गृहस्थी, गांव-समाज, लोक-लाज, सलाह-मशविरा आदि-आदि। इनके अलावा आप जो भी सभ्यता के लिहाज से चाहेंगे वो भी।
गुरुवार, 15 सितंबर 2011
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